पुस्तकों का प्रकाशन विवरण
- लेखकों के पत्र
- कहानी
- तीसरी बीवी
- कला बाज़ार
- दी हुई नींद
- वह हथेली
- अनचाहे दरवाज़े पर
- आवारा हवाओं के ख़िलाफ चुपचाप
- सरापता हूं
- भग्न नीड़ के आर पार
- एक अदहन हमारे अन्दर
- खुशी ठहरती है कितनी देर
- मनुष्य और मत्स्यकन्या
- बीसवीं सदी की आख़िरी दहाई
- कुछ दुःख, कुछ चुप्पियां
- टिप टिप बरसा पानी
- मुझे विपुला नहीं बनना
- ज़रा सा नास्टेल्जिया
- कालजयी कहानियांः ममता कालिया
- कालजयी कहानियांः मृदुला गर्ग
9/03/2024
9/02/2024
5/07/2024
4/21/2024
अभिज्ञात के उपन्यास टिप टिप बरसा पानी की समीक्षा
पुस्तक समीक्षा
एक सतरंगी प्रेम कथा
-अनु नेवटिया
***
पुस्तक - टिप टिप बरसा पानी
लेखक -अभिज्ञात
प्रकाशन- आनन्द प्रकाशन, 176/178 रवीन्द्र सरणी, कोलकाता-7
प्रकाशन-2024
मूल्य-225-/-
****
कहते हैं कि कविता तब सफल मानों जब उसे महसूस किया जा सके और कहानी तब, जब वह दृश्यात्मक लगने लगे। ऐसी ही एक कहानी से सरोकार हुआ डॉ. अभिज्ञात के उपन्यास ‘टिप टिप बरसा पानी’ को पढ़ने के दौरान।
किसी भी कहानी का शीर्षक उसके विषय वस्तु के बारे में बहुत कुछ कह जाता है और 'टिप टिप बरसा पानी' तो फिर आपको उस रूमानियत में ले जाता है जिसमें नायक और नायिका बारिश में गाना गा रहे हैं, जी हाँ यह उपन्यास भी ऐसी ही एक प्रेम कहानी है। किन्तु एकविध प्रेम कहानी न होकर ये आज के युवाओं द्वारा महसूस किए जाने वाले मिश्रित भावनाओं की कहानी है और यही बात इस उपन्यास को पाठकों के लिए और अधिक रुचिकर और दिलचस्प बनाती है। अगर हम पहले की प्रेम कहानियों की बात करें तो उनमें खलनायक घरवाले या समाज होते थे पर आज के युग में स्वयं का असमंजस ही प्रेम के रास्ते में सबसे बड़ा पत्थर साबित होता है।
यह उपन्यास विशेषकर प्रेम को लेकर युवाओं की मनोस्थिति, कोमल भावनाएं, नासमझी और अंतर्द्वंद को उजागर करता है। उपन्यास चौदह खण्डों में बांटा गया है और न सिर्फ इस उपन्यास का शीर्षक अपितु इन खण्डों के शीर्षक भी आकर्षक हैं जैसे "लहंगा पड़ेगा बड़ा महंगा" , "दोई नैना मत खाईयो, पिया मिलन की आस" आदि। हर खण्ड एक नयी रंगभूमि सा प्रतीत होता है, जैसे इंटरवल के बाद सिनेमा में एक अलग मोड़ आ गया हो।
उपन्यास का मुख्य चरित्र और इस प्रेम कहानी की नायिका है 'रम्या'। कथानक में प्रेम सम्बंधित अपेक्षाओं की पृष्ठभूमि है। मुख्य किरदार आज के ज़माने की युवती है जो पढ़ी लिखी है, आत्मनिर्भर है, अपने भविष्य और कैरियर के प्रति निष्ठावान है पर इसके बावजूद अपने व्यक्तित्व जीवन में अपनी पसंद और चाहत को लेकर अस्पष्ट है, क्योंकि उम्र और अनुभव दोनों कम है, वहीं नायक ‘अनिमेष’ एक उम्रदराज, अनुभवशील व्यक्ति है। जहाँ रम्या छोटी छोटी चीज़ों के बारे में अधिक सोचती है, तनाव में आ जाती है वहीं अनिमेष बड़ी से बड़ी फ़िक्र को भी हवा में उड़ाकर अपनी ही मौज में रहता है। इनके साथ ही अन्य किरदार समय समय पर कहानी को एक नया मोड़ देते हैं और आगे पढ़ने की उत्सुकता जगाते हैं। जिस सरलता और बारीकी से पात्रों का वर्णन डॉ. अभिज्ञात ने किया है, कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी की हर एक किरदार जाना पहचाना सा लगता है।
मुख्य कथानक के साथ डॉ. अभिज्ञात ने जिस खूबसूरती और दिलचस्प तरीके से अन्य घटनाओं को जोड़ा है, उसमें एक सुखद ज़ायका है, कहीं कोई रुकावट या बोरियत नहीं है। एक ऐसी प्रेम कहानी को पढ़ना वाकई दिलचस्प लगा जिसकी चर्चा गैंगटॉक की वादियों से लेकर अमेरिका की ऊँची इमारतों तक है। संवाद सरल और सहज हैं जो पाठक को कहानी से जोड़े रखता है, शब्दों की अनावश्यक नक्काशी नहीं है जो वास्तविकता से दूर ले जाती हो।
यह उपन्यास केवल प्रेम से जुडी अपेक्षाएं ही नहीं महत्वाकांक्षाओं पर भी प्रकाश डालता है। यहाँ प्रेम कभी एक कोमल एहसास है, कभी पाने की ज़िद्द, कभी प्रतीक्षा तो कभी एक मौन त्याग। कथानक इन्हीं उचित- अनुचित, बोध और अबोध भावनाओं के बीच आवाजाही करता है और फिर धीरे धीरे एक-एक परत खुलती जाती है, तब दिल और दिमाग के बीच के अंतर्द्वंद का चश्मा भी साफ़ हो जाता है। उपन्यास का आखरी पन्ना एक सुखांत है जहाँ प्रेम किसी भी बंधन, उम्र और उम्मीदों से परे हैं, जिससे कोई कितना भी दूर जाए, कितना भी नज़रअंदाज़ करे, उसे लौटकर आना यहीं है।
ईमेल - anunewatia1@gmail.com
4/07/2024
3/16/2024
क्या लेखक अंडा सेने वाली मुर्गी है?
-डॉ.अभिज्ञात
साभारः नवभारत,भोपाल, 17.03.2024
जल्दबाजी में किया गया लेखन क्या घटिया होता है..यह प्रश्न दिमाग मैं कौंध रहा है। खूब सोच समझकर किये गये लेखन का क्या अर्थ होता है? क्या यह सोचना कि हमारे लिखने से क्या फायदा होगा, कौन प्रभावित होता, किसके हित में होगा, इस लिखे से कहीं कोई व्यक्तिगत क्षति तो नहीं होगी, ऐसा क्या लिखूं कि क्रांतिकारी भी बना रहूं और सम्मान भी मिले। इतना समय लिखने में ले लूं कि उसकी प्रासंगिकता खो जाये और नाम भी होता रहे कि उस दौर पर कितना मानीखेज और संगीन लिखा था.. लिखे से कौन खुश या नाराज होगा...यह तोल-तोल कर लिखा गया क्या लेखन है..? क्या कालजयी, महान और शाश्वत जैसा कुछ लिख पाने की आकांक्षा में मैं अपने उस लेखन को स्थगित रखूं, जो मेरे और मेरे जैसे तमाम छोटे-मोटे मामूली लोगों की मामूली चाहतों, खुशियों, दुःख-दर्द को तुरत -फुरत में व्यक्त करता है। मैं तो बस उस कौंध को पकड़ जल्द से जल्द लिपिबद्ध करना चाहता हूं. जो विलम्ब होते ही कहीं खो जाती है..शायद वहीं लौट जाती होगी जहां से वह आयी। कई बार बाथरूम में उपजा खयाल बाथरूम से बाहर निकलते ही कहीं गुम हो जाता है और लाख कोशिश करो फिर नहीं मिलता। कई बार सोते समय आया विचार बिस्तर छोड़कर लिपिबद्ध करने उठो तो वह हवा हो गया.. कभी तनहाई में तो कभी भीड़ में, कभी किसी से बातचीत के दौरान कोई बात टकराती है तो सहसा एक कौंध उठती है.. कभी कहानी के रूप में कभी शेर या कविता के रूप में। कौंध से बनी कहानी के अंगों को सजाने- संवारने के क्रम में उपन्यास बन जाये तो क्या कहने।
याद करने बैठता हूं कि क्या यह केवल मेरे साथ होता है या और साहित्यिक लोगों के साथ भी। क्या मैं कुछेक न लिखने का कारण की कैफियत देने वालों की बात मानते हुए अपने किसी ठूंठ खयाल को अंडा समझकर लम्बे अरसे तक सेता रहूं कि कुछ उसमें से फूटकर किसी महान साहित्यिक कृति का चूजा निकलेगा.. आलोचक डॉ.नामवर सिंह के बारे में पढ़ा था उन्होंने अपनी ‘छायावाद' पुस्तक 10 दिन में ‘कविता के नए प्रतिमान’ 21 दिन में और ‘दूसरी परम्परा की खोज’10 दिन में लिखी थी। क्या जल्दबाजी के कारण उनकी रचनात्मकता प्रभावित हुई। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर याद करता हूं उपन्यासों के संदर्भ में तो सुना था कि जॉन बॉयन ने 'द बॉय इन द स्ट्राइप्ड पजामा' उपन्यास ढाई दिन में और रॉबर्ट लुई स्टीवेंसन ने 'स्ट्रेंज केस ऑफ डॉ.जेक़ेब एंड मिस्टर हाइड' तीन दिन में लिखा था। हालांकि स्टीवेंसन की पत्नी को यह उपन्यास पसंद नहीं आया तो पाण्डुलिपि जला दी। उसे फिर से लिखा तीन दिन में। कुल छह दिन में उपन्यास तैयार। एंथोनी बर्गेस ने 'ए क्लॉकवर्क ऑरेंज' और आर्थर कॉनन डॉयल ने 'ए स्टडी इन स्कारलेट' तीन-तीन सप्ताह में लिखे। दोस्तोयेव्स्की ने 'द गैम्बलर' उपन्यास 26 दिन में लिखा था। इस बीच वे ‘क्राइम एंड पनिश्मेंट’ भी लिख रहे थे। क्या यह सब कृतियां कम जिम्मेदारी के साथ लिखी गयीं..जी नहीं सृजन एक आग है, भड़कती है तो तेजी से फैलती है।
आर्थिक तंगी और शराब की लत से मजबूर होने के दौर में मंटो से शराब के पैसे के लिए कई अखबारों के सम्पादकों ने उनसे अपने दफ्तर में बिठाकर कहानियां लिखवाईं। अखबारों के दफ्तर में 20 दिन में उन्होंने 20 कहानियां लिखी थीं और उसी समय पैसे दिये थे ताकि वे उससे शराब खरीद सकें। वे कहानियां बेहतरीन मानी गयीं। मंटो ने अपनी केवल 42 साल 8 महीने की जिन्दगी और 19 साल के साहित्यिक जीवन में एक उपन्यास, 230 कहानियां जो 22 कहानी संग्रहों में हैं, 67 रेडियो नाटक, 22 शब्द चित्र और 70 लेख लिखे। कई फिल्मों की कहानियां और पटकथाएं भी।
अंदर कुछ नहीं है तो इन्तज़ार कीजिए लेकिन जब कोई रचना अंदर से फूटेगी तो वह वक्त नहीं लेगी। हां काट-छांट जिन्दगी भर करते रहिए किसने रोका है। लगातार लिखते रहने का बस एक ही रास्ता है दुनिया के हो जाओ। उसके दुःख-दर्द में रम जाओ। दूसरों की खुशी में भी खुश होना सीखो..दूसरों से जुड़ोगे तो उन्हें समझोगे और समझोगे तो दूसरों को दुख भी मथेंगे, दूसरों की खुशी में भी प्रफुल्लता महसूस होगी.और लिखे बिना रह नहीं पाओगे..पाओगे इतना कुछ है लिखने को। बनावट तो लिखनी नहीं है कि सोचना पड़े। भाषा पर पकड़ और रवानी होनी चाहिए। भाषा से खेलना आना चाहिए। यह तो किसी भी लेखक की पहली शर्त होती है। संकेतों में कहना तभी आयेगा, जब शब्दों से खेलना आ जाये। मैं बहुत कम समय के लिए बांग्ला साहित्यकार महाश्वेता देवी के करीब रहा..उस दौरान उन्हें मां कहने लगा था। उनका जीवन देखा तो पाया कि तमाम आदिवासी समुदाय के लोगों के मुकदमों की फाइलें उनके यहां पड़ी हैं। उनकी समस्याएं वे सुन रही हैं..उनके दुख सुख को समझ रही हैं तो उनके पास न कथाओं की कमी थी और ना ही कुछ सोचने की फुर्सत..उन्हें तो बस अपने आस -पास से लोगों का दुःख दर्द लिखना था..विश्राम कैसा..उनके पास किसी वायवीय अंडे पर बैठकर उसमें से फूटकर निकलने वाले चूजे का इन्तजार करने की फुर्सत नहीं थी..।
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2/01/2024
काव्य-संध्या ने रसिक श्रोताओं का मन मोहा
कोलकाताः भारतीय भाषा परिषद और गोरखपुर की संस्था स्नेहिल काव्य धार द्वारा 31 जनवरी 2024 की शाम एक काव्य संध्या का आयोजन किया गया। स्नेहिल काव्य धार की संस्थापिका सरोज अग्रवाल तथा रेखा ड्रोलिया ने कार्यक्रम का संचालन किया व अपनी कविताएं भी सुनायीं। कार्यक्रम की अध्यक्षता सुरेश चौधरी ने की, जिसमें मुख्य अतिथि थीं कवयित्री विद्धा भंडारी। दुर्गा व्यास, रमा केडिया, डॉ.अभिज्ञात, सविता पोद्दार, डॉ.गीता दुबे, नीता अनामिका, अर्पणा अंजन, राज्यवर्धन, सेराज खान बातिश ने अपने गीतों, गजलों और मुक्तछंद की कविताओं से उपस्थित श्रोताओं का मन मोह लिया। कार्यक्रम की संयोजक विमला पोद्दार ने अपने उद्घाटन संबोधन में गोरखपुर से आई संस्था का स्वागत किया। कार्यक्रम में भारतीय भाषा परिषद के निदेशक और विख्यात आलोचक डॉ.शंभुनाथ विशेष तौर पर उपस्थित थे।
1/28/2024
कालजयी कहानियांः ममता कालिया
कालजयी कहानियांः ममता कालिया।।
सम्पादकः अभिज्ञात।।
प्रकाशकः आनंद प्रकाशन
176/178 रवीन्द्र सरणी, कोलकाता-700007 ।।
प्रकाशन वर्ष 2024 मूल्य -300 रुपये
कालजयी कहानियांः मृदुला गर्ग
कालजयी कहानियांः मृदला गर्ग।।
सम्पादकः अभिज्ञात।।
प्रकाशकः आनंद प्रकाशन
176/178 रवीन्द्र सरणी, कोलकाता-700007 ।।
प्रकाशन वर्ष 2024 मूल्य -300 रुपये
ज़रा सा नास्टेल्जिया
ज़रा सा नास्टेल्जिया।।
अभिज्ञात।।
कविता संग्रह।।
लोकोदय प्रकाशन, 6544 शंकर पुरी, छितवापुर रोड, लखनऊ-226001।। प्रकाशन वर्ष-2020 मूल्य-175 रुपये
मुझे विपुला नहीं बनना
मुझे विपुला नहीं बनना ।।
अभिज्ञात।।
कहानी संग्रह।।
लोकोदय प्रकाशन, 6544 शंकर पुरी, छितवापुर रोड, लखनऊ-226001।।
प्रकाशन वर्ष-2023 मूल्य-170 रुपये
टिप टिप बरसा पानी
टिप टिप बरसा पानी ।।
अभिज्ञात (उपन्यास) ।।
प्रकाशकः आनंद प्रकाशन
176/178 रवीन्द्र सरणी, कोलकाता-700007 ।।
प्रकाशन वर्ष 2024 मूल्य -225 रुपये
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