9/21/2023

डॉ.कुसुम खेमानी के 80 वें जन्मदिन पर

डॉ. कुसुम खेमानी की 80 वर्षपूर्ति पर साहित्यिक अभिनंदन कोलकाता 19 सितंबर, 21.09.2023 आज भारतीय भाषा परिषद के सभाकक्ष में वरिष्ठ कथाकार और परषिद की अध्यक्ष डॉ. कुसुम खेमानी का लेखकों और शिक्षाविदों द्वारा आत्मीय अभिनंदन किया गया। डॉ. कुसुम खेमानी ने अपने उपन्यास ‘लावण्य देवी’ से देश में चर्चित हुईं। भारतीय भाषा परिषद की वे प्राणवायु हैं। श्री प्रदीप चोपड़ ने कहा कि कुसुम खेमानी जी एक कर्मठ और दूरदृष्टि से संपन्न व्यक्तित्व हैं। उनके प्रयासों से भारतीय भाषा परिषद आज एक प्रतिष्ठित राष्ट्री संस्था हैं। डॉ. शंभुनाथ ने कहा कि डॉ.कुसुम खेमानी ने दुनिया के देशों की यात्रा की है और अपने अनुभवों से वे परिषद का कुशल संचालन कर रही हैं। उनकी सामाजिक और साहित्यिक शक्रियता संस्कृति के क्षेत्र में एक अनोखा उदाहरण है। उन्होंने कोलकाता के हिंदी जगत की दीप्तमान बना रखा है। सबसे पहले सुधा झुनझुनवाला और राजश्री शुक्ला ने संस्कृत श्लोक गाकर कुसुम जी को बधाई दी। परिषद के वित्त मंत्री घनश्याम सुगला ने कहा कि कुसुम जी के बाताए राह पर आज भी परिषद चल रही है। बिमला पोद्दार ने कहा कि कुसुम जी ने हमेशा जीवन में हिम्मत बढ़ाया है। कवि अभिज्ञात ने कहा कि कोलकाता को साहित्यकार याद करे और कुसुम जी को याद न करे, ऐसा हो नहीं सकता। वे नारी सशक्तिकरण पर लगातार लिखती रही हैं। रिटायर्ड कर्नल नरेंद्र सिंह ने कहा कि उनके साथ पिछले 40 वर्षों का संबंध रहा है। उनके साथ काम करना हमेशा प्रेरणास्पद रहा है। गीता दूबे ने उन्हें शतायु होने की कामाना दी। अल्पना नायक ने कहा कि कुसुम दीदी लंबे अर्से से हमारे अंदर छाई हुई हैं। वे हम महिलाओं के लिए गौरव हैं। अवधेश प्रसाद सिंह ने उन्हें मोहक व्यक्तित्व का स्वामी बताया। आई पी टांटिया ने कहा कि कुसुम दीदी से इतना प्रेम और स्नेह मिला जितना कि अपनी सगी बहन से भी नहीं मिलता। मंजु श्रीवास्तव, मंजु श्रीवास्तव, सेराज खान बातिश, राजश्रीशुक्ला, मधु सिंह ने भी कुसुम जी को 80 वर्ष पूरे होने पर बधाई दी। परिषद से सभी कर्मचारियों ने भी उन्हें बधाई दी। अंत में डॉ.कुसुम खेमानी ने सबके प्रति आभार प्रकट किया।

3/27/2023

मुझे विपुला नहीं बनना का लोकार्पण

साभारः युगवार्ता, फरवरी 2023

ज़रा सा नास्टेल्जिया, लोकार्पण समाचार, राष्ट्र समाज

कुछ दुःख कुछ चुप्पियां कविता संग्रह की समीक्षाः मुकुंद

साभारः युगवार्ता

ज़रा सा नास्टेल्जिया के बारे में डॉ.विजय बहादुर सिंह की राय

साभारः जनसंदेश टाइम्स

3/21/2023

धीमी आंच पर पकी व्यवस्था विरोधी कविताएं

पुस्तक समीक्षा -डॉ.अभिज्ञात --- काव्य संग्रह : इश्तिहार का आदमी/ लेखक: अमरदीप कुलश्रेष्ठ/प्रकाशकः उदंत मरुतृण प्रकाशन, म.स.46/2/2, 15नापितपाड़ा मेनरोड, विधानपल्ली, बैरकपुर, पो.नोनाचंदनपुकुर, कोलकाता-700122, मूल्य-150 रुपये --------- अमरदीप कुलश्रेष्ठ पाठक को व्याकुल करने वाली और अवसाद से भर देने वाली कविताएं लिखते हैं। ‘इश्तिहार का आदमी’ संग्रह की कविताएं प्रतिरोध की धीमी आंच पर पकी आवेगहीन और आवेशहीन सुचिंतित कविताएं हैं। इन्हें क्रोध और नफरत की अभिव्यक्ति कहकर खारिज नहीं किया जा सकता, बल्कि ये समय की विसंगतियों की तल्ख समीक्षाएं हैं। किसी खास घटना पर केन्द्रित न होकर ये समूचे परिवेश को अपनी परिधि में समेटे हुए हैं। हर अगले क्षण कुछ ऐसा घटता है, जहां स्थितियों के आगे बौद्धिक व्यक्ति घुटने टेकने को विवश नज़र आती है। ज़्यादातर कविताएं लम्बी हैं और यह अपनी बनावट व बुनावट में भी मुक्तिबोध की याद दिलाती हैं। विषयवस्तु के साम्य के कारण ऐसा है और निजी परिवेशगत परिस्थितियों के कारण भी क्योंकि दोनों के यहां अध्यात्म और प्रखर बौद्धिकता का एक साथ मेल है। लम्बी कविताओं वे लिखते हैं जिनके लिए कोई खास पल विशेष अर्थ नहीं रखता, जो समूचे परिदृश्य पर कुछ कहना चाहते हों। इसलिए ज्यादातर कविताएं सीधे देश के तत्कालीन कर्णधारों को सम्बोधित होना स्वाभाविक है। कवि ने काव्य के सौन्दर्यगत प्रतिमानों को तरजीह नहीं दी है। रघुवीर सहाय, असद जैदी इसी तरह के काव्यास्वाद विरोधी कवि रहे हैं। हालांकि यह कविताएं धूमिल, राजकमल चौधरी और लीलाधर जगूड़ी की तरह व्यवस्था के कसैले आस्वाद पर चोट पहुंचाने वाली हैं किन्तु वैसी आक्रामकता नहीं रखतीं अपितु समूचे परिवेश पर अहिस्ता- अहिस्ता चोट करती हैं। हथौड़े से नहीं नहीं बल्कि छेनी से। यह कविताएं ठंडे लोहे से हमला करने वाली हैं। कहीं से कविता पढ़ना शुरू करें आपको वही रस मिलेगा जो क्रम से पढ़ने में। यह कविताएं धीरे-धीरे अपने प्रभाव में लेती हैं। पहले आपका आस्वाद तैयार करती हैं। एक बार का पाठ पर्याप्त नहीं। दूसरे पाठ से वे अर्थ को खोलना शुरू करती हैं। इस तरह के पाठ की मांग त्रिलोचन की कविताएं भी करती हैं। अमरदीप की रचनाओं का कैनवास बहुत बड़ा है। अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम का अंतरबाह्य प्रभाव इनमें स्पष्ट लक्षित है। अमरदीप की काव्य-यात्रा विचार को अनुभव में तब्दील करते जाने की है और परवर्ती कविताओं में अनुभूति को संवेदना से भी लैस करते दिखायी देते हैं। उनके रचना विकास के दो स्तर इस संग्रह में हैं। यह सुखद है कि रचनाकार का विकास क्रम भी दिखा, कदमताल नहीं। बाद की कविताओं में संवेदनपरकता है। ऐसी कविताओं में ‘काश थकान एक मौसम होती’, ‘दूसरे शहर में’ आदि शामिल हैं। ‘पानी और जद्दोजहद’ और ‘धुनिया’ आदि कविताओं में उन्होंने समूचा दृश्य उपस्थित किया हैं, जो किसी टिप्पणी के बगैर भी काव्य का सृजन करता है। यह कविताएं रचनाकार की सौंदर्य दृष्टि के पुख्ता प्रमाण हैं। इन कविताओं में विचार को संवेदना से जोड़ने का कौशल दिखायी देता है। कविता ने अपनी रचनागत मूल प्रतिज्ञाओं को ‘क्या कहते हो भइ’ कविता में चुपके से रेखांकित कर दिया है इसलिए यह स्पष्ट है कि उनकी रचनाओं जो कुछ है वह अनायास नहीं, बल्कि सुचिंतित है। अमरदीप कुलश्रेष्ठ ने अपने पिछले काव्य-संग्रह ‘बात वो नहीं है’ के बाद अपनी काव्य-यात्रा को जिस सोपान तक पहुंचाया वह इस बात का संकेत है कि उनकी दृष्टि उत्तरोत्तर विकसित होती चली आयी है। उनके पास कहने को अभी बहुत कुछ है। उनकी काव्य-दिशा की बानगी देखें-‘हमारा कोई हाथ नहीं है इस पागल यज्ञ में/भले हम कुछ कर न सके इसके खिलाफ।’ जो कवि अव्यवस्था का साक्षी होने भर से अपने को दोषमुक्त न मानता हो, उसमें संभावना तो होगी ही।

इस महत्वपूर्ण ग्रंथ में मेरी छोटी सी भूमिका भी

इस काव्य-कृति में रामकथा के सुंदरकाण्ड का घटनाक्रम या कथानक का सिलसिलेवार वर्णन भर नहीं है और ना ही केवल लंकापुरी के वैभव का चित्रण बल्कि, इसकी हर चौथी-छठवीं पंक्ति कथासूत्र के सहारे गहरे निहितार्थों की ओर पाठकों को ले जाती है। सूत्र वाक्यों में जीवन के ऐसे गहन संदेश हैं, जो आज के लोगों के लिए बेहद प्रासंगिक हैं। इस कृति में कई ऐसे प्रस्थान बिन्दु हैं, जहां भारतीय जीवन दर्शन की गहनता का अनुभव प्राप्त किया जा सकता है। जगह-जगह ऐसी सूक्तियां हैं, जिनमें उदात्त जीवन के मंत्र निहित हैं। इस कृति की विशेषता यह भी है कि इसमें इकहरापन या एकांगिता नहीं है। रामकथा के खलनायक रावण के व्यक्तित्व के वर्णन में केवल उसकी कमियों का उल्लेख नहीं है, बल्कि यह बताया गया है कि कई उपलब्धियों के बावजूद क्यों उसके विराट् व्यक्तित्व का ह्रास हुआ। इस काव्य-कृति में कई ऐसे स्थल हैं जहां आचार-व्यवहार में मर्यादाओं पर विशेष जोर दिया गया है, चाहे वह सीता जी के संदर्भ में आया हो या रावण दरबार में विभीषण के परामर्श और उसके पालन के संदर्भ में। विश्वास है इस कृति को पढ़ते हुए रामकथा के कुछ अनउद्घाटित पहलुओं का संज्ञान पाठकों को मिलेगा। –डॉ.अभिज्ञात

5/22/2022

‘बेलाशेषे’ के बाद ‘बेलाशुरू’ के इतिहास रचने की उम्मीद

-डॉ.अभिज्ञात फिल्म निर्माता कंपनी विंडोज प्रोडक्शन के बैनरतले नंदिता राय और शिवप्रसाद मुखर्जी के निर्देशन में बांग्ला फिल्म 'बेलाशुरू' 20 मई 2022 को रिलीज होने जा रही है। नंदिता राय और शिवप्रसाद मुखर्जी की पहली फिल्म 'इच्छे' 2011 में रिलीज हुई थी। उसके बाद 'हैलो मेमसाहेब' 'एक्सीडेंट','मुक्तधारा', 'अलीक सुख', 'रामधनु','बेलाशेषे', 'हामी', 'प्राक्तन', 'पोस्तो', 'कंठ', 'गोत्र' जैसी हिट फिल्में निर्देशकों की इस जोड़ी ने दीं। 'मुक्तधारा' के लिए सर्वश्रेष्ठ फिल्म का और 'अलीक सुख' को सर्वश्रेष्ठ निर्देशन का फिल्मफेयर अवार्ड (ईस्ट) मिल चुका है। 'इच्छे' को इंडियन पैनोरमा फिल्म फेस्टिवल,'एक्सीडेंट' को इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ केरल और 'अलीक सुख' को कान फिल्म फेस्टिवल में दिखाया गया। द इंडियन फिल्म आर्काइव ऑफ इंडिया ने 'इच्छे' को अपने सांस्कृतिक और शैक्षणिक अंग का हिस्सा बनाया है। 'इच्छे', 'मुक्तधारा' और 'रामधनु' को विश्वभारती यूनिवर्सिटी के बीएड पाठ्यक्रम में शामिल किया है। 'इच्छे' और 'मुक्तधारा' को महिलाओं के कानूनी और मनोवैज्ञानिक समस्याओं के पाठ्यक्रम के सर्टीफिकेट पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। बंगाल में जब कोई तलाक लेने जाता है तो कोर्ट की ओर से सुझाव दिया जाता है कि एक बार 'बेलेशेषे' जरूर देख लीजिए। 'बेलाशेषे' में शादी के पचास वर्षों बाद, अपनी तीन बेटियों और एक बेटे की परवरिश करने के बाद, विश्वनाथ अपनी पत्नी आरती को तलाक देने का फ़ैसला करता है। उसे लगता है कि उसकी शादीशुदा जिन्दगी नीरस हो चुकी है। यह एक बंगाली परिवार की कहानी है, जो परिवार के कई ऐसे मुद्दों को उठाती है, जिनसे हमारा सामना रोज होता है, पर हम उन पर ध्यान नहीं देते और हमारे जीवन से उल्लास उसके चलते खो जाता है। जीवन में सामान्य तौर पर सब ठीकठाक चल रहे परिवार में तब हड़कंप मच जाता है, जब वृद्धावस्था में विश्वनाथ आरती से तलाक मांगता है। आने जा रही फिल्म 'बेलाशुरू' 2015 में आयी 'बेलाशेषे' की सिक्वल नहीं है लेकिन बेलाशेषे के प्रमुख पात्रों के जीवन का घटनाक्रम इसमें आगे बढ़ता है। यह कहानी दमदम में रहने वाले एक परिवार की सच्ची कहानी पर आधारित है। पवित्रचित्त नंदी और गीता नंदी दमदम के थे, दोनों कोविड के दौर के पहले गुजर गये। यह भी इक्तफाक है कि फिल्म में दोनों प्रमुख पात्रों की भूमिका निभाने वाले कलाकार सौमित्र चटर्जी और स्वातिलेखा सेनगुप्ता अब नहीं रहे। दोनों फिल्मों के मुख्य किरदार एक ही हैं। बेलाशुरू की कहानी एक स्वतंत्र कहानी है इसलिए दोनों का मुख्य किरदारों का सरनेम बदलकर मजुमदार से सरकार हो गया है। बदलते वक्त के साथ उनकी कहानियां बदल गयी हैं। बेलाशुरू में प्यार के विभिन्न रूपों को दर्शाया गया है। विश्वनाथ परिवार की जिम्मेदारियों को तो समझता है मगर अपनी भावनाओं और इच्छाओं की भी कद्र करता है और अपनी पत्नी आरती से तलाक मांगता है। लेकिन बेलाशुरू के ट्रेलर और गीतों को देखकर लगता है कि अगली फिल्म में विश्वनाथ अब आरती की देखभाल को अधिक तरजीह दे रहा है। अब पूरे परिवार को समय देने के बदले अपनी पत्नी और अपने प्रिय लोगों को अधिक समय दे रहा है। यहां आरती और विश्वनाथ के प्रेम की विलक्षण गहराई का देखने को मिल सकती है। आरती एक मध्यवर्गीय परिवार की ऐसी महिला है, जिसका पूरा संसार केवल उसका परिवार है। बेलाशेषे में उसका भावुक संवाद लोगों के दिल में अमिट छाप छोड़ जाता है, जब वह अपने पति विश्वनाथ से कहती है कि 'मैं भगवान से मनाती हूं कि वह आपको मुझसे पहले बुला ले क्योंकि मैं तो आपके बिना जी लूंगी लेकिन आप वृद्धावस्था में मेरी देखभाल के बिना नहीं रह पायेंगे।' विश्वनाथ की बड़ी बेटी की भूमिका अपराजिता आध्या और दामाद बरीन की भूमिका खराज मुखर्जी ने निभाई है। वे दोनों एक खुशहाल जोड़े के रूप में न सिर्फ प्रभावित करते हैं। मलयश्री उर्फ मिली की भूमिका रितुपर्णा सेनगुप्ता ने निभाई है। मिली अपने विवाहित जीवन से खुश नहीं है और पति बिजन (सुजोय प्रसाद चटर्जी) से अलग एक अन्य व्यक्ति के प्रेम में है। बेलाशुरू में मिली महसूस करती है कि एक उम्र के बाद जब दैहिक आकर्षण खत्म हो जाता है तो दोस्ती और प्रेम ही अंत तक साथ रहता है। फिल्म में पिऊ की भूमिका मोनामी घोष ने निभाई है, जो परिवार की सबसे छोटी और प्यारी सदस्या है। बेलाशेषे में पिऊ और पलाश (अनिंद्य चटर्जी) ने प्रेममय युवा जोड़े की भूमिका निभाई है। बेलाशुरू में दोनों ने आधुनिक दौर में वैवाहिक जीवन में प्रेम की स्थिति को दर्शाया है। साभार-सन्मार्ग

5/21/2022

भरोसेमंद हो तो लोकल ही इंटरनेशनल सिनेमा: शिवप्रसाद मुखर्जी

20 मई को रिलीज होने जा रही बांग्ला फिल्म 'बेलाशुरू' में है विवाह के सात संकल्पों की बात 'मार्केट को फॉलो मत कीजिए, मार्केट को फॉलो करने दीजिए' बांग्ला सिनेमा के महत्वपूर्ण अभिनेता और फिल्म निर्देशक शिवप्रसाद मुखर्जी ने नंदिता राय साथ मिलकर एक दर्जन से अधिक बांग्ला फिल्में बनायी हैं। सौमित्र चटर्जी और स्वातिलेखा सेनगुप्ता अभिनीत उनकी फिल्म 'बेलाशुरू' 20 मई को रिलीज होने जा रही है। प्रस्तुत है इस मौके पर शिवप्रसाद मुखर्जी से उनके निर्देशन में बनी फिल्मों से जुड़े विविध पहलुओं पर की गयी बातचीत के अंशः दो-दो व्यक्तियों द्वारा निर्देशन की खूबियों की चर्चा करते हुए वे कहते हैं-'फिल्म पहले डायरेक्टर के मन में सपने की तरह होती है, जिसे साकार रूप दिया जाता है। एक सपने को दो लोग कैसे मिलकर उसी तरह पूरा करते हैं जैसे परिवार में होता है। परिवार दो लोगों से बनता है और दो लोगों का लक्ष्य एक हो जाता है। दो लोगों का सपना एक हो जाता है। हमारा सिनेमाम नंदिता राय और शिवप्रसाद मुखर्जी के सिनेमा का एक परिवार है। हम दोनों में उम्र का लगभग बीस साल का फासला है, यह फासला हमारे लिए फायदेमंद साबित हुआ। हम अलग-अलग पीढ़ियों को करीब से समझते हैं, इसलिए हमारी फिल्में अलग-अलग उम्र के लोगों की भावनाओं को सही ढंग से चित्रित कर पाती हैं। हम अलग-अलग उम्र से जुड़े संदर्भों को गहराई से पेश कर पाते हैं। हमारी पहली फिल्म से लेकर हमारी भावी फिल्म सबमें आपको इसका कदम-कदम पर अहसास होगा कि अलग-अलग पीढ़ियों के नजरिये को हमने वास्तविक परिप्रेक्ष्य में रखकर पेश किया है।' एक अन्य सवाल के जवाब में वे कहते हैं-'फिल्मों की एक दुनिया वह है, जहां घर-परिवार, मित्र, पास-पड़ोस है, दूसरी ओर फेंटेसी है, कल्पना है, चमत्कार है, मारधाड़ और हिंसा है, दूसरी दुनिया और एलियन हैं, दोनों के बीच फिल्मकार को तय करना होता है कि वह कौन सा रास्ता अपनाये। दोनों की तरह की फिल्में भारत में बन रही हैं और दोनों तरह की फिल्मों के दर्शक भी हैं। मैं और दीदी (नंदिता राय) मानते है कि आज का दौर विषयवस्तु को लेकर फिल्में बनाने का है। हमारी नजर में कंटेंट क्या है यह दर्शकों को लिए खास होता है। कंटेंट के साथ न्याय होना चाहिए। उसको गहराई के साथ पेश करने की जरूरत है। हर तरह की रुचि वाले दर्शक हैं। यह जरूरी नहीं है कि सिर्फ चमक दमक वाली या बड़े बजट की फिल्में ही चलती हैं। हमारी नजर में जो जितना लोकल होगा उतना ही इंटरनेशनल होगा। बशर्ते वह भरोसेमंद हो। कई बार एक छोटी फिल्म भी बड़ा कमाल कर देती है। स्त्री, विकी डोनर, जुरासिक पार्क अलग-अलग तरह की फिल्में हैं। हर तरह की फिल्मों के लिए जगह है। जिस फिल्म में चार सौ करोड़ लागत आयी है, उसे हजार करोड़ कमाना होगा। हजार करोड़ कमायेंगे तभी निर्माता को उसकी लागत मिलेगी क्योंकि उसे चालीस प्रतिशत ही मिलता है। उसकी जगह एक किसी ने पांच करोड़ में फिल्म बनायी और उसे मिल गये सौ करोड़ मिल गये तो यह भी एक खास तरह का मुनाफे का हिसाब है। दोनों तरह के परसेप्शन है। पथेर पांचाली को ऑस्कर मिला है, उसे भी सबने देखा है और दूसरी ओर ईरान की फिल्म ‘सन चिल्ड्रन’ है, उसे भी सबने देखा। तो ऐसा कुछ नहीं है कि आपको यही बनाना होगा। फिल्म आपके दिल में है। कुल मिलाकर हमारा मानना है कि-आपके अंदर जो सपना है उसका पीछा कीजिए, उसे पूरा करने की कोशिश की कीजिए, इसका पीछा मत कीजिए कि बाजार में क्या चल रहा है या फिल्म समीक्षक क्या कह रहे हैं। वह फिल्म बनानी चाहिए जो आपके अंदर की आवाज हो। हमने इसी सूत्र पर हर फिल्म बनायी। जो विषय अंदर से लगा कि अच्छा लग रहा है, उसे बनाया। हमारी स्पष्ट राय है-मार्केट को फॉलो मत कीजिए, मार्केट को आपको फॉलो करने दीजिए।' कोरोना काल के फिल्मों की दुनिया पर असर के बारे में वे कहते हैं-'कोरोना काल ने कलाकारों के अंदर के काफी कुछ अतिरिक्त भर दिया है। इस ढाई साल की अवधि में सोचने का काफी मिला। दिमाग में इतनी कहानियों ने जन्म लिया कि लगता है उस पर दस साल तक फिल्में बनती रह सकती हैं। अब तो हड़बड़ी लगती है कि जल्द से जल्द कहानियों पर फिल्में आ जायें। जो गतिरोध था वह तीव्र गति पकड़ना चाहता है।' अपनी कहानियों के प्लाट चुनने के संदर्भ में वे कहते हैं-'मैं और दीदी यह मानते हैं कि अपने चारों तरफ ठीक से देखने की जरूरत है। यदि आस-पास की दुनिया ठीक से देख ली जाये तो संभवतः पूरी दुनिया देख लेने जैसा ही है। कहा जाता है कि गणेशजी को दुनिया की परिक्रमा करने को कहा गया तो उन्होंने अपनी माता के चक्कर लगाये थे। मैं अपनी बात करूं तो मेरी मां 85 साल की है। उनके सामने बैठता हूं तो एक कहानी मेरे सामने उभरती है। मेरे घर में काम करने वाली मासी आती है, उसके बात करता हूं तो एक कहानी मिल जाती है। पाकिस्तान के 85 साल की बुजुर्ग की समस्या उठाइये तो वह भारत के एक बुजुर्ग की भी समस्या दिखायी देगी। पूरी दुनिया में एक सी कहानी सबकी है। 'बेलाशुरू' टूटे परिवार की कहानी है। सिर्फ कोलकाता या भारत की समस्या नहीं है, बल्कि सारी दुनिया की समस्या है। आज के दिन हम लिव इन रिलेशन में जा रहे हैं। लगता है कि हममें प्रतिबद्धता की कमी है। 'बेलाशुरू' में हमने परिवार के टूटते जाने की समस्या को उठाया है। एक साल भी पूरा होता और शादी टूटने की स्थिति में पहुंच जाती है। लाइफ फास्ट हो गयी है। युवा यह देखकर आश्चर्य करते हैं कि कैसे दो लोगों ने एक दूसरे के साथ पचास साल बिताये। मैं जब घर में देखता हूं कि मेरी मां पापा का जूता साफ कर हर दिन रखती हैं। चश्मा साफ कर रखती हैं और विश्वास करती हैं कि वे अभी भी हैं। जबकि मेरे पापा उस समय गुजर गये, जब मैं इक्कीस साल का था। यही है वह प्रेम है, जिसे शाहरुख खान-एकतरफा प्यार कहते हैं। युवा यही ढूंढ रहा है। कहानी हमारे घर में है। हम घर को नहीं देख रहे हम बाहर जा रहे हैं। यही 'बेलाशेषे' में सभी को पसंद आया था। सभी को लगा कि अरे यह तो हमारे घर की कहानी है।' अपनी फिल्मों की खूबियों को शिवप्रसाद मुखर्जी महेश भट्ट के शब्दों में वे बयान करते हैं। वे बताते हैं-'जब 'बेलाशेषे' रिलीज हुई थी, महेश भट्ट ने देखा था। उन्हीं दिनों 'बाजीराव मस्तानी' भी रिलीज हुई थी। महेश जी ने कहा-दो तरह की फिल्म होती हैं। एक जो तन कर खड़ी हैं और कहती हैं देखो, इस फिल्म में यह है वह है, तमाम चमक-दमक है और एक कहानी आपकी है। मुंबई के एक चाल की तरह की तरह। बाहर की दुनिया का सब कुछ सबको मालूम होता है किन्तु चाल के अंदर जब जायेंगे तो पता चलेगा कि घर के अंदर घर और फिर घर के अंदर घर हैं। चाल में कितने आदमी हैं, कितने रिलेशनशिप हैं। अचानक लगेगा कि इतना कुछ है। यह बहुत बड़ा है। आपके फिल्म की कहानी ऐसी ही है।' वेबसीरीज के निर्माण और निर्देशन के सम्बंध में वे कहते हैं-'वेबसीरिज अभी किया नहीं। उसका भी एक साइंस है, उसे अभी समझा नहीं, समझ पाये तो बनायेंगे।' फिल्म से मिले पुरस्कारों के सम्बंध में वे कहते हैं-'सबसे बड़ा एवार्ड मिला है दर्शकों का प्रेम। 'बेलाशेषे' ऐसी फिल्म रहे जिसे कोलकाता के मारवाड़ी, पंजाबी, सिन्धी, गुजराती, मलयाली, मराठी आदि गैर बंगाली समुदाय के लोगों ने देखी। यह अब तक का रिकार्ड रहा है।' 'बेलाशुरू' की सबसे खास बात के सवाल पर वे कहते हैं-'बेलाशुरू में सिर्फ प्यार है। कोणार्क के सूर्य मंदिर का भी सीन है और वहां का संवाद दिल को छूने वाला होगा। सूर्य के सात रंग हैं। सूर्यदेव के सात घोड़े हैं। शादी के सात फेरे होते हैं। हर फेरा एक संकल्प है। फिल्म में शादी के सातों संकल्पों की बात है।'-डॉ.अभिज्ञात साभारः सन्मार्ग

फिल्म निर्देशकों ने मेरे अंदर से निकाला है एक और कलाकार: ऋतुपर्णा सेनगुप्ता

'बेलाशुरू' में बेटी व पिता के बीच भावुक दृश्य छोड़ेगा अमिट छाप कोलकाता: ऋतुपर्णा सेनगुप्ता ने पिछले ढाई दशकों में हिन्दी और बांग्ला फिल्मों में अपने बेहतरीन अभिनय के बल पर अपनी एक खास पहचान बनायी है। उनकी फिल्मों ने बॉक्स ऑफिस पर अपनी सफलता के झंडे गाड़े हैं। वे बांग्ला की सबसे सफल अभिनेत्रियों में से एक हैं। इस अभिनेत्री ने बांग्ला फिल्म श्वेत पत्थरेर थाला (1992) के साथ बड़े पर्दे पर शुरुआत की थी और उन्होंने स्टारडम की राह पकड़ ली। बॉलीवुड में उन्होंने पार्थो घोष की फिल्म तीसरा कौन (1994) के साथ कदम रखा था। वे बांग्लादेश की फिल्मों की भी स्टार हैं। विंडोज प्रोडक्शन की आज 20 मई को रिलीज होने जा रही नंदिता राय और शिवप्रसाद मुखर्जी निर्देशित फिल्म 'बेलाशुरू' में उन्होंने एक प्रमुख किरदार मिली की भूमिका निभाई है। 'बेलाशेषे' में भी उनकी मिली की ही भूमिका थी। प्रस्तुत है इस अवसर पर ऋतुपर्णा सेनगुप्ता से की गयी बातचीत का एक अंश: सिनेमा जगत में 25 साल में आये बदलाव के सम्बंध में वे कहती है कि मैं तमाम बदलाव की साक्षी रही और मैंने इससे बहुत कुछ सीखा। हर बदलाव को एक चुनौती की तरह लिया। यह एक आमूलचूल रूपांतरण है। मैं जिस अभिनय की दुनिया में कदम रखा था वह अब एकदम बदल चुका है। उस समय की फिल्मों कार्यप्रणाली पूरी तरह से अलग थी। व्यावसायिक तौर-तरीके अलग थे। फिल्म डायरेक्टरों की सोच एकदम अलग थी। सब्जेक्ट मैटर्स अलग थे। माहौल एकदम अलग था। जब मैंने अभिनय शुरू किया मैं बस कॉलेज से निकली ही थी। उस समय मुझे फिल्म इंडस्ट्री के बारे में कुछ पता नहीं था क्योंकि मैं फिल्म इंडस्ट्री की थी ही नहीं। मेरे परिवार में से भी कोई फिल्मों से जुड़ा नहीं था। मैंने काम करते-करते सीखा। मेरा सौभाग्य यह रहा कि मैंने कई बेहतरीन डायरेक्टर्स के साथ काम किया। मैं हमेशा एक डाटरेक्टर्स एक्टर रही। यह पूछने पर कि क्या आपको कभी यह नहीं लगा कि अमुक किरदार को इस तरह निभाना चाहिए लेकिन डायरेक्टर तो कुछ और कह रहे हैं, वे कहती हैं-'हां मुझे कभी-कभी लगता है कि इस करेक्टर को हम ऐसे भी कर सकते हैं, लेकिन इस मामले में मैं डायरेक्टर से हमेशा सलाह लेती हूं क्योंकि डायरेक्टर उस करेक्टर को मुझसे ज्यादा जानते हैं क्योंकि उन्होंने उस करेक्टर की सृष्टि की। स्टारडम के किसी किरदार को निभाने में बाधक बनने के सवाल पर वे कहती हैं-'यह सवाल मुझ पर लागू होता है। मैं व्यवसायिक सिनेमा का हिस्सा हूं। मैं बहुत ग्लैमर के माहौल से जोड़कर देखा जाता है। मुझे कभी-कभी लगता था कि स्टारडम में मैं खो जाऊंगी। बस एक स्टार बनकर रह जाऊंगी। यह बात कुछ डायरेक्टरों के मन में भी आयी कि ऋतिपर्णा बहुत ग्लैमरस है, अमुर रोल उस पर सूट नहीं करेगा। 'परमितार एक दिन' में मेरे साथ यही हुआ। बेहतरीन अदाकारा अर्पना सेन ने इस पिल्म को निर्देशित किया है। उन्होंने मुझे मेकओवर करके देखा लेकिन फिर कहा कि 'बहुत ग्लैमरस लग रही हो। तुमसे यह नहीं होगा' लेकिन बाद में मुझे में कहा कि यह तुम्हीं को करना पड़ेगा। और फिर यह बात चल पड़ी कि 'यदि हम गाइडेंस दें तो ऋतु कर सकती है।' इसीलिए ऋतुपर्णो घोष, अपर्णा सेन, राजा सेन, बुद्धदेव दासगुप्ता, तरुण मजूमदार आदि ने मेरे साथ काम किया और ऋतुपर्णा के अंदर एक और कलाकार को निकाला। नया डायरेक्टर आता है तो यह चुनौती होती है कि कलाकार उसे स्वीकार करेगा कि नहीं। आज जिस विंडोज प्रोडक्शन को हम देख रहे हैं उसका माहौल और महल एक दिन में नहीं बना है। उसकी पहली फिल्म को मैंने ही स्वीकार किया था और मैंने विश्वास रखा था कि यह डायरेक्टर जरूर कुछ खास करेगा। लीक से हटकर विंडोज फिल्म बनाती है मगर वह आफबीट फिल्म नहीं है। उसकी हर फिल्म हिट होती है। मैंने जिस भी डायरेक्टर को चुना वह व्यावसायिक तौर पर सफल रहा है। अपने डायरेक्टर बनने की संभावना पर वे कहती हैं 'मुझे अभी अभिनय की दुनिया में बहुत काम करना है इसलिए अभी उस दिशा में नहीं सोचा। मुझे बहुत सारे किरदार निभाने हैं।' फिल्मों के रिमेक पर वह कहती हैं 'ओरिजनल को बेहतर मानती हूं क्योंकि उसकी कापी नहीं हो सकती। पहला बेस्ट होता है। जो लोगों को जेहन में बैठ जाता है। रेखा जी ने जब उमराव जान किया था तो उमराव जान की छवि लोगों के मन में बैठ गयी। ऐश्वर्या जी ने बहुत अच्छा किया किन्तु सब कहते हैं कि रेखा जी का अच्छा है। अभी मैं दत्ता कर रही हूं वह शरतचंद्र के नावेल पर है, जो सुचित्रा सेन ने किया था। उसी का वर्जन हम आज कर रहे हैं। लेकिन मैं जानती हूं कि तुलना होगी और निश्चित तौर पर सुचित्रा सेन को ही लोग बेहतर कहेंगे। वे लीजेंड हैं। फिर भी मेरी यह कोशिश रहेगी कि अपना बेस्ट दे सकूं।' दर्शकों की प्रतिक्रिया पर वे कहती हैं-'लोगों के देखने का अपना अंदाज है। कई बार तो वे सिर पर बिठा लेते हैं और कई बार तो ट्रोल करते हैं। कई बार लगा कि रो लूं। फिर भी दर्शकों से मुझे प्यार है।' 'सौमित्र दा सिनेमा जगत के भगवान': 'बेलाशुरू' और 'बेलाशेषे' में प्रमुख भूमिका निभाने वाले सौमित्र चटर्जी से अपने लम्बे सम्बंधों को बारे में ऋतुपर्णा कहती है कि वे बड़े पर्दे पर अक्सर मेरे पिता की भूमिका में रहे। मेरे पूरे फिल्मी करियर में लगभग हर दूसरी फिल्म में वे मेरे साथ थे। उनसे मैंने और पूरे सिनेमा जगत ने बहुत कुछ सीखा है। यह उनकी आखिरी फिल्म है। मैं खुशनसीब हूं कि उन्होंने सचमुच पिता जैसा ही प्यार मुझे वास्तविक जिन्दगी में भी दिया। वे मेरी नजर में सिनेमा जगत के भगवान हैं। उनका अनंत योगदान है। इस फिल्म में मैं उनकी बेटी मिली बनी हूं। पिता और बेटी के रिश्ते पर यह फिल्म बेहद संवेदनशील ढंग से प्रभाव छोड़ेगी। मेरी विश्वास है यह सीन भारतीय सिनेमा में याद किया जायेगा। फिल्मकार नंदिता राय और शिवप्रसाद मुखर्जी ने इतने प्यारे ढंग से संयुक्त परिवार के रिश्तों को इस फिल्म में पिराया है कि एकल परिवार यह महसूस करने लगेगा कि उसने क्या खोया है। हम कितने स्वार्थी हो गये हैं। परिवार का साथ क्या होता है यह फिल्म हमें याद दिलायेगी। फिल्म में परिवार के मुखिया सौमित्र चटर्जी और स्वातिलेखा सेनगुप्ता हैं। स्वातिलेखा आंटी की भी यह आखिरी फिल्म है। फिल्म में अपनी भूमिका के बारे में वे कहती है कि मिली का किरदार मैंने निभाया है। उसका पूरा नाम मालश्री है, जो शास्त्रीय संगीत के एक राग के नाम पर है, जो सुबह का राग है। इस फिल्म में संगीत का बहुत खूबसूरत प्रयोग है। मिली का चरित्र बहुत दिलचस्प है। मुझे लगता है कि हर घर में शायद एक मिली है। जिसे आप पहचान लेंगे। यह फिल्म लोगों के देखने के नजरिया बदल देगी। -डॉ.अभिज्ञात

आम आदमी व रिश्तों का तानाबाना है हमारी सफलता का मंत्र : नंदिता राय

-डॉ.अभिज्ञात 20 को रिलीज होगी पारिवारिक अटूट रिश्ते पर बनी फिल्म-‘बेलाशुरू’ कोलकाताः नंदिता राय ने शिवप्रसाद मुखर्जी के साथ मिलकर एक दर्जन से अधिक बांग्ला फिल्में बनायी हैं। उनकी पहली फिल्म ‘इच्छे’ 2011 में आयी थी। उनकी अगली फिल्म फिल्म ‘बेलाशुरू’ 20 मई को रिलीज होने जा रही है। इस मौके पर की गयी एक बातचीत में नंदिता राय कहती हैं-‘पहले फिल्म बनायी थी ‘बेलाशेषे’। अब बनायी है ‘बेलेशुरू’। ‘बेलेशुरू’ में लीड रोल सौमित्र चटर्जी और स्वातिलेखा सेनगुप्ता का है। दोनों कलाकार अब नहीं रहे। इस लिहाज से यह फिल्म ऐतिहासिक हो उठी है क्योंकि इन दोनों महत्वपूर्ण कलाकारों की यह अंतिम फिल्म है। ‘बेलाशेषे’ सात साल पहले बनायी थी। ‘बेलाशेषे’ में जो परिवार था उसी की बाद की कहानी है। यह सिक्वल है मगर कहानी बिल्कुल अलग है। इसे अलग फिल्म ही माना जाये। एक परिवार की जो बातें आधी बेलाशेषे में छूट गयी थीं वे इस फिल्म में आकर पूरी हुई हैं। जो ‘बेलाशेषे’ में चरित्र हैैं, वही चरित्र इसमें भी हैं। ”हमारी फिल्मों में दर्शकों को पुरुष और स्त्री दोनों के नजरिये का संगम दिखायी देता है। यह वेहद जरूरी होता है। हमारी फिल्में दोनों के नजरिये से पूर्ण लगती हैं और स्त्री-पुरुष दोनों को पसंद आती हैं।” वही ‘विश्वनाथ मजुमदार’ हैं, बस इसमें उनका सरनेम बदला है, उनका नाम हो गया है-‘विश्वनाथ सरकार’। उसे फिल्म में मां का नाम था ‘आरती मजुमदार’ इसमें नाम है ‘आरती सरकार’। बच्चे जो थे, वही सारे चरित्र हैं। बस इतना सम्पर्क है कि एक कहानी से फिल्म आगे बढ़ती है और दूसरे में प्रवेश करती है।’ दोनों की लेखिका खुद नंदिता हैं। उन्होंने जितनी भी ‍फिल्में निर्देशित की हैं ‍उनमें से ज्यादातर की कहानियां खुद लिखी हैं। हालांकि सिर्फ फिल्मों के लिए ही लिखती हैं। वे स्वतंत्र लेखिका नहीं हैं अर्थात कोई उपन्यास या कहानियों के तौर पर उनकी कृतियां नहीं आयी हैं। पहली फिल्म सन 2008 में आयी थी-‘इच्छे’। कहानी लेखन और फिल्म निर्देशन की शुरूआत इसी फिल्म से की थी। वे कहती हैं-‘यह फिल्म शिवप्रसाद मुखर्जी और मैंने साथ मिलकर बनायी थी। दोनों की पार्टनरशिप उस समय से अब तक जारी है।’ दो-दो व्यक्ति फिल्म निर्देशक होने पर भी किसी तरह का कामकाज में गतिरोध पर उन्होंने कहा कि ‘हममें तालमेल रहता है। काम शुरू करने से पहले ही हम आपस में खूब चर्चा करते हैं फिर उसका अंतिम रूप तय होता है। शिवप्रसाद कांसेप्ट देते हैं तो मैं उसकी पटकथा तैयार करती हूं और वे डॉयलाग लिखते हैं। जब हम फिल्म बनाने जाते हैं तो उसका खाका हमारे दिमाग में एकदम साफ होता है कि हम क्या करने वाले हैं। हमने कामकाज की देखरेख के लिए अलग-अलग विभाग बांट लिये हैं। कभी मन में यह खयाल नहीं आया कि मैं अकेले ही ‍फिल्म बनाऊं। सिनेमा की दुनिया में हम-एक दूसरे के पूरक हैं। हमारी फिल्मों में दर्शकों को पुरुष और स्त्री दोनों के नजरिये का संगम दिखायी देता है। यह बेहद जरूरी होता है। हमारी फिल्में दोनों के नजरिये से पूर्ण लगती हैं और स्त्री-पुरुष दोनों को पसंद आती हैं।’ फिल्म ‘बेलाशुरू’ के बारे में वे कहती हैं कि इसे फिल्माने में हमें बहुत मजा आया था। और अब जबकि इसके दोनों प्रमुख अभिनेता अब दुनिया में नहीं है तो इसकी मोहकता बढ़ गयी है यह फिल्म हमारे लिए बहुत ही नास्टेल्जिक है। फिल्म के रिलीज में विलम्ब की चर्चा करते हुए वे कहती हैं-‘फिल्म कोविड के दौर से पहले ही रेडी हो गयी थी। हम मई में इसे रिलीज करने वाले थे किन्तु मार्च में लॉकडाउन घोषित हो गया। इसलिए रिलीज नहीं कर पाये। अब जाकर हम इसे रिलीज करने जा रहे हैं। हमारी सबसे अधिक चलने वाली फिल्म रही ‘बेलाशेषे’। इस फिल्म ने 227 दिन तक एक मल्टीप्लैक्स में लगातार चलने और 250 दिन तक सिंगल थिएटर में चलने का रिकार्ड बनाया है। चूंकि यह नयी फिल्म इसकी सिक्वील है तो हमारी उम्मीदें और बढ़ गयी हैं कि यह और अधिक चलेगी। अपनी फिल्मों पर बाजार के दबाव को नकारते हुए वे कहती हैं-‘हम बाजार का ध्यान में रखते हुए फिल्म नहीं बनाते। दिल जो चाहता है, जो कहानियां हमें कहनी हैं वही हम बनाते हैं। हम आर्ट फिल्म और कमर्शियल फिल्म का बंटवारा नहीं मानते। हमारी हर फिल्म कमर्शियली हिट रही। हमने शायद कमर्शियल फिल्म की परिभाषा बदल दी है।’ अपनी सफलता के राज पर वे कहती हैं-‘हमारी फिल्म देखकर आम आदमी कहता है कि फिल्म में जो कुछ दिखाया जा रहा है वह हमारी जानी-पहचानी दुनिया है। अरे यह तो मैं ही लग रहा हूं। यह तो मेरी फिल्म है। हम चाहते भी यही हैं कि हम ऐसी फिल्में बनायें कि उसे आम जनता अपना माने। उसमें अपने को देखे। कला के नाम पर अंधेरे को दिखाने वाली और सिर के ऊपर से चली जाने वाली फिल्में मैं नहीं बनाती। मेरी कहानियां आम लोगों के पास से आती हैं। मैं उनकी कहानियां लिखती हूं। हालांकि मेरी कहानियों में थोड़ा मैसेज तो होता है, जो उन्हें छूता है। और उन्हें लगता है कि जो कहा गया है वैसा भी हो सकता है। थोड़ी सी फिलासफी होती है। सामाजिक मैसेज होता है। सौमित्र दा, खराज मुखर्जी मैंने अपने अपनी ‍फिल्मों में रिपीट किया है क्योंकि वे बहुमुखी कलाकार हैं। शिवप्रसाद ने भी कई फिल्मों में काम किया है। वे अभिनेता पहले हैं, निर्देशक बाद में हैं। अपने पसंदीदा फिल्मकारों के बारे में वे कहती हैं-‘राजू हिरानी की फिल्में मुझे बहुत पसंद हैं। हिन्दी फिल्मकारों में राजीव राय को बहुत पसंद करती हूं। हिन्दी सिनेमा में नंदिता राय अपनी बांग्ला फिल्म ‘पोस्तो’ के हिन्दी रिमेक ‘शास्त्री वर्सेस शास्त्री’ के जरिये कदम रखने की तैयारी में हैं। इसमें मुख्य भूमिका परेश रावेल की है। बांग्ला में सौमित्र चटर्जी ने वह रोल किया है। यह फिल्म इस साल के अंत में या अगले साल रिलीज हो सकती है। अपनी फिल्मों की खूबी को रेखांकित करते हुए कहती हैं कि बेलाशेषे को बहुत प्यार मिला है। बेलाशुरू में भी यह देखने को मिल सकता है। यह पारिवारिक अटूट रिश्ते की बेहतरीन प्रेम कहानी है। कोरोना काल के बाद समाज में रिश्तों में बदलाव आया है। यह महसूस किया गया है कि यह दूर जाने का समय नहीं है। परिवार फिर बहुत महत्वपूर्ण हो उठा है। मेरी सारी फिल्में रिश्तों के तानेबाने की फिल्में है। मेरी फिल्में आठ से अस्सी साल के लोग एक साथ बैठकर देख सकते हैं। और अंत में वे कहती हैं कि ‘मैं संगीत को महत्व देती हूं। मेरी हर फिल्म के गाने हिट रहे हैं। साभारः सन्मार्ग

फिल्म बेलाशेषे के बाद अब बेलाशुरू

फिल्म बेलाशेषे के बाद अब बेलाशुरू। साभारः सन्मार्ग