3/21/2023

धीमी आंच पर पकी व्यवस्था विरोधी कविताएं

पुस्तक समीक्षा -डॉ.अभिज्ञात --- काव्य संग्रह : इश्तिहार का आदमी/ लेखक: अमरदीप कुलश्रेष्ठ/प्रकाशकः उदंत मरुतृण प्रकाशन, म.स.46/2/2, 15नापितपाड़ा मेनरोड, विधानपल्ली, बैरकपुर, पो.नोनाचंदनपुकुर, कोलकाता-700122, मूल्य-150 रुपये --------- अमरदीप कुलश्रेष्ठ पाठक को व्याकुल करने वाली और अवसाद से भर देने वाली कविताएं लिखते हैं। ‘इश्तिहार का आदमी’ संग्रह की कविताएं प्रतिरोध की धीमी आंच पर पकी आवेगहीन और आवेशहीन सुचिंतित कविताएं हैं। इन्हें क्रोध और नफरत की अभिव्यक्ति कहकर खारिज नहीं किया जा सकता, बल्कि ये समय की विसंगतियों की तल्ख समीक्षाएं हैं। किसी खास घटना पर केन्द्रित न होकर ये समूचे परिवेश को अपनी परिधि में समेटे हुए हैं। हर अगले क्षण कुछ ऐसा घटता है, जहां स्थितियों के आगे बौद्धिक व्यक्ति घुटने टेकने को विवश नज़र आती है। ज़्यादातर कविताएं लम्बी हैं और यह अपनी बनावट व बुनावट में भी मुक्तिबोध की याद दिलाती हैं। विषयवस्तु के साम्य के कारण ऐसा है और निजी परिवेशगत परिस्थितियों के कारण भी क्योंकि दोनों के यहां अध्यात्म और प्रखर बौद्धिकता का एक साथ मेल है। लम्बी कविताओं वे लिखते हैं जिनके लिए कोई खास पल विशेष अर्थ नहीं रखता, जो समूचे परिदृश्य पर कुछ कहना चाहते हों। इसलिए ज्यादातर कविताएं सीधे देश के तत्कालीन कर्णधारों को सम्बोधित होना स्वाभाविक है। कवि ने काव्य के सौन्दर्यगत प्रतिमानों को तरजीह नहीं दी है। रघुवीर सहाय, असद जैदी इसी तरह के काव्यास्वाद विरोधी कवि रहे हैं। हालांकि यह कविताएं धूमिल, राजकमल चौधरी और लीलाधर जगूड़ी की तरह व्यवस्था के कसैले आस्वाद पर चोट पहुंचाने वाली हैं किन्तु वैसी आक्रामकता नहीं रखतीं अपितु समूचे परिवेश पर अहिस्ता- अहिस्ता चोट करती हैं। हथौड़े से नहीं नहीं बल्कि छेनी से। यह कविताएं ठंडे लोहे से हमला करने वाली हैं। कहीं से कविता पढ़ना शुरू करें आपको वही रस मिलेगा जो क्रम से पढ़ने में। यह कविताएं धीरे-धीरे अपने प्रभाव में लेती हैं। पहले आपका आस्वाद तैयार करती हैं। एक बार का पाठ पर्याप्त नहीं। दूसरे पाठ से वे अर्थ को खोलना शुरू करती हैं। इस तरह के पाठ की मांग त्रिलोचन की कविताएं भी करती हैं। अमरदीप की रचनाओं का कैनवास बहुत बड़ा है। अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम का अंतरबाह्य प्रभाव इनमें स्पष्ट लक्षित है। अमरदीप की काव्य-यात्रा विचार को अनुभव में तब्दील करते जाने की है और परवर्ती कविताओं में अनुभूति को संवेदना से भी लैस करते दिखायी देते हैं। उनके रचना विकास के दो स्तर इस संग्रह में हैं। यह सुखद है कि रचनाकार का विकास क्रम भी दिखा, कदमताल नहीं। बाद की कविताओं में संवेदनपरकता है। ऐसी कविताओं में ‘काश थकान एक मौसम होती’, ‘दूसरे शहर में’ आदि शामिल हैं। ‘पानी और जद्दोजहद’ और ‘धुनिया’ आदि कविताओं में उन्होंने समूचा दृश्य उपस्थित किया हैं, जो किसी टिप्पणी के बगैर भी काव्य का सृजन करता है। यह कविताएं रचनाकार की सौंदर्य दृष्टि के पुख्ता प्रमाण हैं। इन कविताओं में विचार को संवेदना से जोड़ने का कौशल दिखायी देता है। कविता ने अपनी रचनागत मूल प्रतिज्ञाओं को ‘क्या कहते हो भइ’ कविता में चुपके से रेखांकित कर दिया है इसलिए यह स्पष्ट है कि उनकी रचनाओं जो कुछ है वह अनायास नहीं, बल्कि सुचिंतित है। अमरदीप कुलश्रेष्ठ ने अपने पिछले काव्य-संग्रह ‘बात वो नहीं है’ के बाद अपनी काव्य-यात्रा को जिस सोपान तक पहुंचाया वह इस बात का संकेत है कि उनकी दृष्टि उत्तरोत्तर विकसित होती चली आयी है। उनके पास कहने को अभी बहुत कुछ है। उनकी काव्य-दिशा की बानगी देखें-‘हमारा कोई हाथ नहीं है इस पागल यज्ञ में/भले हम कुछ कर न सके इसके खिलाफ।’ जो कवि अव्यवस्था का साक्षी होने भर से अपने को दोषमुक्त न मानता हो, उसमें संभावना तो होगी ही।

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