अपने गीतों से लोगों के मन पर गहरी छाप छोड़ने वाले और मधुशाला, मधुबाला और मधुकलश से जीते जी लिजेंड बन जाने वाले गीतकार डॉ.हरिवंशराय बच्चन से मेरा उस उम्र में ही परिचय हो गया था जब मैं साहित्य की उनकी हैसियत को न तो समझ सकता था और ना ही मेरी कोई अपनी पहचान ही थी। मुझमें बस साहित्य रचने की ललक थी और लिखना सीख रहा था। अपने पिता से उनकी खूब चर्चा सुनी थी और उन्हीं से मिलते जुलते लहजे में अपने पिता से 'मधुशाला' और 'मधुबाला'के गीत सुने थे। एकाएक बच्चन जी को पत्र लिखने की सूझी और मुझे हैरत हुई कि उनका ज़वाब भी मिला। यह 1982-83 की बात है मैं उस समय संभवतः कक्षा 11 वीं का छात्र था। फिर से उनसे पत्रों का सिलसिला चल निकला और पत्रव्यवहार का सिलसिला चार-पांच साल तब तक चला जब तक उनकी हस्तलिपि वाले पत्र मुझे मिलते रहे जो सोपान, नयी दिल्ली और प्रतीक्षा, मुंबई के पते से होते थे और मुझे पहले तुमसर-महाराष्ट्र में और बाद में मेरे गांव कम्हरियां,आजमगढ़, उत्तर प्रदेश के पते पर मिलते जब जहां मैं होता। कुछ दिनों बाद उनके टाइप किये हुए पत्र आने लगे और वह ग्लैमर ख़त्म हो गया जो उनकी हस्तलिपि को समझने की कोशिश से जुड़ा था और मेरी ज़िन्दगी में भी इतने बदलाव आये कि कई बार पुराने सम्पर्क टूटे-बिखरे। उन दिनों मैं अपने दोस्तों का दिये गये उपनाम 'हृदय बेमिसाल' के नाम से लिखता था और मैंने बच्चन जी से गुजारिश की थी वे मुझे एक अच्छा सा उपनाम दें। और उन्होंने मुझे उपनाम दिया 'अभिज्ञात' साथ में यह भी लिखा था कि 'जब मेरा अभ्यास का लेखन ख़त्म हो जाये तो मैं अभिज्ञात उपनाम अपनाऊं।' और मैंने यही किया नामकरण के अरसे बाद 1991 के आसपास जब मेरा पहला कविता संग्रह 'एक अदहन हमारे अन्दर आया' तो मैंने विधिवत साहित्य में 'अभिज्ञात' उपनाम को अपनाया। इसके कुछ माह पूर्व ही मेरी कहानी 'बुझ्झन' का नाट्य रूपांतर भारतीय भाषा परिषद में किया गया था और पहली बार मैंने इस नाम का इस्तेमाल किया था। यह बात दीगर है कि मैंने अपने नामकरण के सम्बंध में बच्चन जी का उल्लेख अब तक नहीं किया है। वह पत्र दरअसल अब नहीं मिल रहा है जिसमें उन्होंने यह नाम मुझे दिया था। बच्चन जी के कुछ ही पत्र अब मेरे पास हैं। पहले मैं इस तरह के पत्रों के महत्त्व को भी नहीं समझता था और वे लापरवाही रखे सहेजे जाते थे और एक शहर से दूसरे शहर जाने में कई चीज़ें पीछे छूटीं, नष्ट हुई और क्षतिग्रस्त हुई। कुछ हमेशा के लिए खो गयीं तो कुछ के फिर से यकायक मिल जाने की उम्मीद बची है किताबों के मेरे उस ढेर में जिससे लड़कर मैं कई बार हार जाता हूं। फिर भी यह सौभाग्य है कि उनके दस पत्र मेरे पास हैं किसी तरह महफूज़ रह गये हैं और एक तस्वीर भी जिस पर उन्होंने यह लिखकर भेजा है कि 'मेरी असली तस्वीर मेरी रचनाओं में है।' फिलहाल कल 18 जनवरी को उनकी पुण्य तिथि थी। इस अवसर पर उनकी ऋण मैं अपने ब्लाग में स्वीकार करता हूं। और वादा करता हूं कि जल्द ही उनके पत्रों के प्रकाशन की कहीं व्यवस्था करता हूं कि या वे मेरे ब्लाग पर होंगे।
पुस्तकों का प्रकाशन विवरण
- लेखकों के पत्र
- कहानी
- तीसरी बीवी
- कला बाज़ार
- दी हुई नींद
- वह हथेली
- अनचाहे दरवाज़े पर
- आवारा हवाओं के ख़िलाफ चुपचाप
- सरापता हूं
- भग्न नीड़ के आर पार
- एक अदहन हमारे अन्दर
- खुशी ठहरती है कितनी देर
- मनुष्य और मत्स्यकन्या
- बीसवीं सदी की आख़िरी दहाई
- कुछ दुःख, कुछ चुप्पियां
- टिप टिप बरसा पानी
- मुझे विपुला नहीं बनना
- ज़रा सा नास्टेल्जिया
- कालजयी कहानियांः ममता कालिया
- कालजयी कहानियांः मृदुला गर्ग
1/18/2009
डॉ.हरिवंश राय बच्चन ने दिया था मुझे अभिज्ञात उपनाम
अपने गीतों से लोगों के मन पर गहरी छाप छोड़ने वाले और मधुशाला, मधुबाला और मधुकलश से जीते जी लिजेंड बन जाने वाले गीतकार डॉ.हरिवंशराय बच्चन से मेरा उस उम्र में ही परिचय हो गया था जब मैं साहित्य की उनकी हैसियत को न तो समझ सकता था और ना ही मेरी कोई अपनी पहचान ही थी। मुझमें बस साहित्य रचने की ललक थी और लिखना सीख रहा था। अपने पिता से उनकी खूब चर्चा सुनी थी और उन्हीं से मिलते जुलते लहजे में अपने पिता से 'मधुशाला' और 'मधुबाला'के गीत सुने थे। एकाएक बच्चन जी को पत्र लिखने की सूझी और मुझे हैरत हुई कि उनका ज़वाब भी मिला। यह 1982-83 की बात है मैं उस समय संभवतः कक्षा 11 वीं का छात्र था। फिर से उनसे पत्रों का सिलसिला चल निकला और पत्रव्यवहार का सिलसिला चार-पांच साल तब तक चला जब तक उनकी हस्तलिपि वाले पत्र मुझे मिलते रहे जो सोपान, नयी दिल्ली और प्रतीक्षा, मुंबई के पते से होते थे और मुझे पहले तुमसर-महाराष्ट्र में और बाद में मेरे गांव कम्हरियां,आजमगढ़, उत्तर प्रदेश के पते पर मिलते जब जहां मैं होता। कुछ दिनों बाद उनके टाइप किये हुए पत्र आने लगे और वह ग्लैमर ख़त्म हो गया जो उनकी हस्तलिपि को समझने की कोशिश से जुड़ा था और मेरी ज़िन्दगी में भी इतने बदलाव आये कि कई बार पुराने सम्पर्क टूटे-बिखरे। उन दिनों मैं अपने दोस्तों का दिये गये उपनाम 'हृदय बेमिसाल' के नाम से लिखता था और मैंने बच्चन जी से गुजारिश की थी वे मुझे एक अच्छा सा उपनाम दें। और उन्होंने मुझे उपनाम दिया 'अभिज्ञात' साथ में यह भी लिखा था कि 'जब मेरा अभ्यास का लेखन ख़त्म हो जाये तो मैं अभिज्ञात उपनाम अपनाऊं।' और मैंने यही किया नामकरण के अरसे बाद 1991 के आसपास जब मेरा पहला कविता संग्रह 'एक अदहन हमारे अन्दर आया' तो मैंने विधिवत साहित्य में 'अभिज्ञात' उपनाम को अपनाया। इसके कुछ माह पूर्व ही मेरी कहानी 'बुझ्झन' का नाट्य रूपांतर भारतीय भाषा परिषद में किया गया था और पहली बार मैंने इस नाम का इस्तेमाल किया था। यह बात दीगर है कि मैंने अपने नामकरण के सम्बंध में बच्चन जी का उल्लेख अब तक नहीं किया है। वह पत्र दरअसल अब नहीं मिल रहा है जिसमें उन्होंने यह नाम मुझे दिया था। बच्चन जी के कुछ ही पत्र अब मेरे पास हैं। पहले मैं इस तरह के पत्रों के महत्त्व को भी नहीं समझता था और वे लापरवाही रखे सहेजे जाते थे और एक शहर से दूसरे शहर जाने में कई चीज़ें पीछे छूटीं, नष्ट हुई और क्षतिग्रस्त हुई। कुछ हमेशा के लिए खो गयीं तो कुछ के फिर से यकायक मिल जाने की उम्मीद बची है किताबों के मेरे उस ढेर में जिससे लड़कर मैं कई बार हार जाता हूं। फिर भी यह सौभाग्य है कि उनके दस पत्र मेरे पास हैं किसी तरह महफूज़ रह गये हैं और एक तस्वीर भी जिस पर उन्होंने यह लिखकर भेजा है कि 'मेरी असली तस्वीर मेरी रचनाओं में है।' फिलहाल कल 18 जनवरी को उनकी पुण्य तिथि थी। इस अवसर पर उनकी ऋण मैं अपने ब्लाग में स्वीकार करता हूं। और वादा करता हूं कि जल्द ही उनके पत्रों के प्रकाशन की कहीं व्यवस्था करता हूं कि या वे मेरे ब्लाग पर होंगे।
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