12/28/2009

द्वितीय शरण

कहानी-जयकृष्ण कयाल
रेडियो नाट्य रूपांतर-शम्स उन नाहर
-बांग्ला से अनुवाद-डॉ.अभिज्ञात
(सुबह की बेला। हंस-मुरगी की आवाज़ें। बर्तन की आवाज़ें। छिबास खा रहा है।)
छिबास-(खाते-खाते) सोचकर देख रे हिमानी, तीन दिन में तू अपने माइके से जाकर लौट सकती है। महल से लौटने में कम से कम तीन दिन लग जायेंगे।
हिमानी-उल्टा सीधा मत बको। हंस-मुरगी-बकरी है घर में, उनको क्या साथ ले जाऊं?
छिबास-यह सही है। खाना-पीना तैयार कर दो।
हिमानी-हूं। सुनो सावधान रहना। दीनू काका की बात मानकर चलना। समय पर खा लेना।
छिबास (पानी पीकर, हाथ धोता है )- महल जाने पर तुम्हें बहुत चिन्ता होती होगी ना?
हिमानी-तुम कुछ नहीं समझते। तुम्हें छोड़कर रहने से-
छिबास-जानता हूं-जानता हूं।(प्रेम की भंगिमा) तुम समझती हो मुझे कैसी तकलीफ़ होती है? मेरी पत्नी..हिमानी
हिमानी-हूं। जल्दी लौटना।
छिबास-सावधान रहना।
(कुछ लोगों की बातचीत की आवाजें)
दिनतारन (पुकारता है)- कहां हो छिबास, तैयार हो गये?
हिमानी-छोड़ो-छोड़ो। वे आगे गये, निकल पड़ो।
छिबास-ऊं हूं हूं।
सनातन-ओ छिबास, सुना?
छिबास-हो गया। निकल रहा हूं। (दृढढ से पास आकर) तुम दोनों? और लोग?
दिनतारन-सब का मतलब कैलाश और निरंजन। नाव में। तुम्हें देर होती देख बुलाने आया था।
छिबास-चलो काका, चलो।
सनातन-चलो-चलो-
दिनतारन-आओ। अभी बनबीबी मां की पूजा करनी होगी। देर हो रही है, आओ-आओ।
छिबास-जय मां बनबीबी। बादा जा रहा हूं। अधमरे की रक्षा करो मां। (थोड़ा रुककर) चलो।
(ग्छच्क्ष्क्)
(छप-छप की आवाज के साथ नौका चल रही है। हुक्के की आवाज़। छिबास गुनगुना रहा है।)
सनातन-क्या दिनू दा। ज़रा हुक्का देना।
दिनतारन-(हुक्का रोककर, खांसते-खांसते) नशा चढ़ रहा है क्या? ले ले बाबा, पकड़। छिबास बहुत मौज में है, समझ रहा हूं।
निरंजन-वो तो थोड़ा है काका। कल देख रहा था सैकरर की दुकान में बात करते। इस बार लगता है महल से लौटकर गहने बनायेगा।
दिनतारन-मज़ाक मत करो। मां बनबीबी की दया होने पर गहने बनने में कितनी देर लगेगी? इसके अलावा, घर में पत्नी की इज़्ज़त करनी पड़ती है निरंजन।
सनातन (हुक्के का धुंआ छोड़ते हुए)-ले, पीयेगा तो ले। ओ हो, मताल तो आज खूब मस्ती में है रे। ज़रा देखकर चप्पू चला कैलाश। अरे छिबास गाना ज़रा रोक मेरे बाप।
छिबास (गाना रोककर)-कुछ बोल रहे हो क्या?
सनातन-अरे बाबा, जा रहा हूं बोनबादार; पटेल बाबू की आंखों में धूल झोंककर। शेर और मगरमच्छ को पार करके महल जाना होगा। तुम्हें क्या इन सबका डर नहीं लगता?
छिबास-डर क्यों लगेगा? महेन्द्र जोग की यात्रा कर चुका हूं, मंगल को निकला और बुध को पहुंचा, उसके बाद साथ में हैं दीनू काका जैसे गुणी बाउल-अपने हाथ से नौका की चप्पू चलायी-
दिनतारन-मुझको दिया है इसका मतलब तुम लोग। इतने दिन तक सब्रा करके समय काटा। अब जा रहा हूं गरान के जुगाड़ में। बड़े मियां के खास मुल्क में। यात्रा की साइत को देखना ही होगा छिबास।
छिबास-मां बनबीबी यदि क्रोधित होकर देखें तो काका, यह तो तुम्हारे पूजा के मंत्र का कमाल है। पिछले साल तुमने लक्ष्मण मण्डली को शुभ काम के लिए मना किया था। लक्ष्मण ने नहीं सुना। क्या हुआ? मण्डली के सभी लौग लौट आये, लक्ष्मण को बड़े मियां ले गये। तुम हो इसलिए तो-
दिनतारन-हम कौन हैं छिबास! सब बनबीबी मां की इच्छा है। उन्हें स्मरण करो। ओ निरंजन! कैलाश को ज़रा आराम करने को। चप्पू तुम पकड़ो, जल्दी चलो।
निरंजन-हां-हां, पकड़ता हूं।
(नौका की छप-छप, लहरों की आवाज़)
(दृश्यांतर)

(नौका की छप-छप। जंगल का परिवेश। पंछियों की तरह-तरह की आवाज़ें)
छिबास-क्या हो काका, क्या सोच रहे हो? खाड़ी में तो बहुत दूर आ गया। कुछ बोलो-
दिनतारन-हां, सोच रहा हूं । सोच रहा हूं, और आगे बढ़ने की ज़रूरत नहीं है। नौका किनारे लगा। मिट्टी गरम है कि नहीं देखता हूं। (नौका कुछ दूर जाकर रुकती है) रुको सब। मैं पहले देख लूं। उतर जाओ-उतर जाओ। मिट्टी ठंडी है। सब ले देकर उतरो।
(उतरने की आवाज़ें)
सभी-नाव से वन में पांव डाल रहा हूं। रक्षा करना हे बनबीबी मां।
दिनतारन-नौका ठीक से बांध रे सनातन। मैं पैना के पानी से मिट्टी निकलकर पूजा कर लूं।
निरंजन-अपना-अपना कुदार-काठारी लेकर उतर रहे हो, रस्सी-वस्सी नहीं उतारोगे?
सनातन-उतारता हूं बाबा उतारता हूं। ओ कैलाश, नाव को बांध दे तो।
दिनतारन-(थोड़ा ग्र्क़क़ में) मां, मां रे। तुम्हारी अधम संतानें तुम्हारे पास जा रही हैं उनकी रक्षा करो मां। मां-मां रे-मां-
सभी-जय मां, बनबीबी की जै-
(पंछियों की बोलने की आवाज़ें, अपरिचित वन की आवाज़ें)
दिनतारन-पैर बढ़ाओ सब। कीड़े-मकोड़े, कांटे-झाड़ी सब देखकर चलो। कच्चे गजला हैं सावधान। दिन जब तक है आगे बढ़ते रहो।
निरंजन-क्या रे छिबास, आगे आ।
छिबास-चलो-चलो
निरंजन- ओ काका, इस तरफ़ तो हम कभी नहीं आये। किस वन में घुस गये हैं।
छिबास-गिरते-गिरते बचा हूं। इस बार गरान खोजने निकला हूं तो गरान खोज कर ही रहूंगा।
दिनतारन-मज़ाक की बात मत कर छिबास, मां बनबीबी यदि दया कर दें। उनकी कृपा को छोड़कर-
सनातन (आश्चर्य से)-दीनू दा! देख रहे हो!
छिबास-ओ काका, वही तो सामने।
निरंजन-अरे वाह! यह तो गरान है! दस-बीस साल से यहां कोई आया नहीं है।
छिबास-(आनंदित होकर) जय मां-जय मां।
दिनतारन-रुक जाओ, सब रुक जाओ, इस प्रकार हुल्लड़ मत करो। उनकी दया हुई है तभी तो जो चाहा वह पा लिया। उन्हीं को स्मरण करो।
छिबास-क्या समझते हो काका-यह तो गरान है। काटना शुरू करूं!
दिनतारन-सोचने दो, सच में इस लकड़ी के बारे में मां बनबीबी ने हम लोगों के लिए रखा है कि नहीं समझने दो। सब्रा करो।
सनातन-पकड़ो दीनू दा। कल रात तो हम यदि कहा जाये तो इसी जंगल के पास काटी। ऐसा होने से मां तो सपने में बता देती।
दिनतारन-हूं, यह तो एकदम सही है। कल आने के बाद से सब कुछ ठीक-ठाक ही है। वन भी ठंडा है।
निरंजन-तब तो हुक्म दो।
छिबास-बोलो शुरू करूं। शाम होने से पहले जितना हो सके नाव में लादना होगा। केवल देर करने से-
सनातन-ओह, रुको न तुम लोग। दीनू दा हम लोगों के साथ ही हैं। वे तो नहीं सोच रहे।
दिनतारन-सोचना हो गया, काटना शुरू करो तुम लोग-
(पेड़ काटने की आवाज़ें। थोड़ी देर ज़ारी रहती हैं। पेड़ की डाल गिरने की आवाज़। पंछियों की आवाज़ें।)
(पानी में रात। रात का समय।)
सनातन-हुक्का क्या बुझा दिये दिनू दा?
दिनतारन-ना-ना, बुझाया नहीं है तो। अभी तो आग है चीलम में। यह ले पकड़।
(हुक्के की आवाज़) ओ छिबास। तू कितनी देर तक खायेगा?
छिबास (खाते-खाते) तुम भी थोड़ा लो काका, तुम्हारी बहू के हाथ की रोटी है। सख्त हो गयी है।
दिनतारन-मैंने तो चूरा-गूड़ खाया है। तू खा। कैलाश क्या सो गया है? वह तो बात भी कम करता है, आवाज़ ही नहीं सुनायी देती उसकी।
निरंजन (जम्हाई की आवाज़)-कब सो गया?
सनातन (हुक्का का दम लेते-लेते)-सुन रे छिबास-निरंजन, सुबह उठकर तुम दोनों पहले भात बना लेना। कल थोड़ा जल्दी वन में घुसना होगा।
दिनतारन-आज तो डालों की कांट-छांट नहीं हो पायी, कल वह सब भी करना होगा।
दिन में नौका भर लेनी होगी। तुम लोग अभी सो जाओ, मैं और सनातन दो बेला जाग रहे हैं।
सनातन-कल का दिन बीतने पर हम लोगों की नौका की बोझाई हो जायेगी। उसके बाद दिनू दो जो बोलें, रात को हो या परसों सुबह हो-
छिबास-हम घर लौटने की तैयारी कर रहे हैं।
दिनतारन-मां बनबीबी की दया होने पर हम घर ज़रूर लौटेंगे। सो जाओ तुम लोग।
छिबास-हां, सो रहे हैं। समझे काका, इस बार सच में तुम्हारी बहू को-
दिनतारन-महल आकर घर की औरत की चिन्ता कर रहे हो! चुप रह; अहमक कहीं के!!
छिबास-इश्श, एकदम ग़लती हो गयी काका। क्षमा करो मां बनबीबी। अधम के अपराध को भूल जाओ। घर लौटकर पूजा करूंगा तुम्हारी।
सनातन-जा-जा, सो जा। तीसरे पहर उठा दूंगा तुम लोगों को।
(रात का समय।)
छिबास (पुकारकर)-हिमानी?
हिमानी-ओ मां, लौट आये! इस तरह गुमसुम होकर लौट आये, महल में कुछ भी नहीं मिला?
छिबास-जीवन भर जो नहीं मिला, अब मिला है। नौका सीधे घुसा दिया है जामतला हाट में, मारवाड़ी काठगोला में। उसके बाद कड़क-कड़क नोट। उसके बाद-
हिमानी-कौन सी लकड़ी मिली, हिस्से में कितने रुपये मिले?
छिबास-यह जानने की ज़रूरत नहीं है, घर में चलो।
हिमानी-ओह छोड़ो, इतनी खींच-तान कर रहे हो लोग देखेंगे तो-
छिबास-ओफ लोग देख लेंगे तो... मैं लोगों से बहुत डरता हूं! मेरी अपनी बीवी है-
हिमानी-अपनी बीवी-याद रहता है तुम्हें? घर से निकलते ही तो मेरी बात भूल जाते हो। एक बच्चा-वच्चा रहता तो-
छिबास-दूंगा-दूंगा, सब दूंगा। अभी अपना हाथ दे, हाथ। हां .. यही तो-ले।
हिमानी-क्या है? बैगनी कागज़ मुड़ा हुआ।
छिबास-देख ना, अपनी आंखों से देख, ही-ही-ही-
हिमानी-ओ मां-नथ! एकदम बनाकर ही घर लौटे हो!
छिबास-तू कब से बोल रही थी, औरतों को खाली नाक नहीं रहना चाहिए-अब देख; लेकिन अधिक रुपये नहीं जुट पा रहे थे, इसलिए रसमय सेकरार की दुकान से लौटा हूं। तुम्हें पसंद आया तो?
हिमानी (प्यार से)-हां। बहुत सुन्दर है। कितने का है?
छिबास-दाम पूछने की ज़रूरत नहीं है। जल्दी-जल्दी पहन कर दिखा।
हिमानी-तुम्हीं पहना दो।
छिबास-मैं? अच्छा-अच्छा, पहनाता हूं। पास आ, और पास आ। एई.. एई.. एई..ए..ई..ही-ही-ही
(दोनों ही हंसते हैं। हंसते हैं।...)
दिनतारन-क्या रे छिबास क्या हुआ? अकेले-अकेले हंस रहा है?
सनातन-जागे-जागे सपने देख रहा है क्या?
छिबास (सतर्क होकर हंसी रोकते हुए)- ना-ना..मतलब सोच रहा था..मतलब लकड़ियों को लेकर जामतला हाट में पहुंचेगे तो-
दिनतारन-तुम्हें और सहन नहीं हो रहा है। पागल कहीं के। निरंजन-कैलाश सो गये, और तुम अब भी..सो जाओ-सो जाओ, कल बहुत मेहनत करनी है।
(दृश्यांतर)

(सुबह का समय। कोई व्यक्ति गुनगुना कर गीत गा रहा है। )
निरंजन-सबका खाना तो हो गया है काका, नाव छोड़ें?
दिनतारन-उससे पहले एक बात बोलूं, तुममें से किसी ने सपना तो नहीं देखा?
सभी (एक-एक कर)-ना, ना, ना
सनातन-एकदम सो नहीं पाया, सपना देखूंगा कैसे?
दिनतारन-तब तो डरने की कोई बात नहीं। यह लकड़ी मां ने हमीं लोगों के लिए रखा था। नौका छोड़ो।
(छप-छप की आवाज़ें।)
छिबास-कल के लकड़ियां काट-छांट उन्हें नौका पर लाद लूंगा तो? नहीं तो-
दिनतारन-वही ठीक होगा, नौका सजा लो, उसके बाद नयी लकड़ियां काटछांट कर नौका पर लाद लो।
निरंजन-एक बात कहूं काका। लौटकर कोई इस इलाके के बारे में किसी को न बताये।
सनातन-बिल्कुल नहीं।
दिनतारन-एकदम नहीं।
छिबास-अगली बार भी महल करने के लिए हम यहीं आयेंगे।
निरंजन-सभी लोग याद रखें, दीनू काका बोल दो।
दिनतारन-सुना तो हम लोगों ने। बात को एकदम हजम कर जाओ। सुनो देर हो रही है। तेज चलाओ, नौका तेज़ चलाओ।
(नौका छप-छप आगे जा रही है। वन में पेड़ काटने की आवाज़ें)
सनातन (हांफते हुए)-यहीं तक रहने दे छिबास, जल्दी-जल्दी काट-छांट कर। कैलाश और निरंजन तो नौका के किनारे सब लकड़ियां रखकर आये हैं। और पेड़ नहीं काटना होगा।
छिबास-यही अंतिम है सनातन दा। तुम डालें छांटो।
सनातन-हां-हां, एक बार बीड़ी पी लूं फिर उठता हूं। वो देखो, वे भी आ रहे हैं। (दियासलाई जलाने की आवाज़)
(पेड़ काटने की आवाज़। कुछ लोगों की बातचीत की आवाज़ें। पंछियों के कलरव की आवाज़ें। एक बंदर की आवाज़)
छिबास-आओ, आओ। सभी हाथ लगाओ।
दिनतारन (संदिग्ध, धीमी आवाज़)-बंदर ने एक अजीब तरह से बुलाया!
निरंजन (भय से चीखकर)-अरे, बड़े मियां!!
सभी-कहां, अस्त्र लो, बाप रे..!!
(कूदने की आवाज़ें। बाघ की दहाड़। छिबास को छोड़कर सभी के ज़ोर-ज़ोर से चीखने की आवाज़ें। बाघ दहाड़ते-तहाड़ते भाग गया।)
दिनतारन-अरे, वह तो भाग गया, छिबास को छोड़कर भाग गया। छिबास को जल्दी उठा लाओ।
सनातन-बड़े मियां के मुंह में छिबास की कुल्हाड़ी लग गयी रे।
निरंजन-छिबास को होश नहीं है दीनू काका। अचेत हो गया है।
दिनतारन-नाड़ी है तो।
निरंजन-हां-हां, ज़िन्दा है। जोर से पंजा मारा है तो।
दिनतारन-कुल्हाड़ी-कुदाल मैं ले रहा हूं। तुम लोग छिबास को उठाकर पहले नाव में ले जाओ, होश में लाओ। बड़े मियां फिर लौट सकते हैं।
सनातन-यह लकड़ियां?
दिनतारन-पड़े रहने दो। पहले छिबास को लेकर नौका में जाओ। अभी नौका छोड़नी होगी।
(दृश्यांतर)

(नाव चल रही है। पानी की लहरें)
दिनतारन-वह देखो, आंख खोल रहा है।
सनातन-दांत पूरी तरह लगे ही हुए हैं दीनू दा। ओह! पानी के छींटे दे-देकर होश आया है, तब जाकर आंख खुली है।
निरंजन-ओह, पंजा जो मारा था-यदि शेवड़ागाछ को ज़ोर से नहीं पकड़ा होतो तो
छिबास तो..
दिनतारन-मां बनबीबी दया, इसलिए गरान का गरान भी मिला है, पूरा नहीं मिला थोड़ा छोड़कर आना पड़ा, किन्तु छिबास की जान तो बच गयी।
निरंजन-बड़े मियां के मुंह में कुल्हाड़ी कैसे घुसी यह बताओ तो?
सनातन-छिबास के हाथ में थी कुल्हाड़ी, जैसे ही बड़े मियां कूदे, हाथ में कुल्हाड़ी को लेकर शेवड़ागाछ की आड़ में हो गया छिबास और कुल्हाड़ी बड़े मियां के मुंह में घुस गयी।
दिनतारन-मैं क्या हाथ-पर-हाथ दिये बैठा रहा। मैंने अपने हाथ में जो भी लकड़ी थी उससे सीधे बड़े मियां के सिर पर जमा दिया। तब मेरी ओर मुड़ा-क्या आंखें थी, बाप रे-
निरंजन-बाघ यदि पा जाता तो तुम्हें नहीं छोड़ता काका। किन्तु क्या करते, कूद कर भागने की लिए भी तो जगह की ज़रूरत थी। मैं तो यहां से कुदाल लेकर दौड़ पड़ा था-वहां सभी के हाथों में अस्त्र थे। आव-भाव देखकर लगता है-
दिनतारन-अच्छा, सचमुच यदि एक बार झपट पड़ता तो!
सनातन-तब और देखना नहीं पड़ता। किसी न किसी को वहीं छोड़कर आना पड़ता।
निरंजन-छिबास यदि अचेत होकर नहीं पड़ा होता तो वहां दौड़कर नहीं गये होते काका।
दिनतारन-तुम्हारा सिर। उस समय तो कांप रहे थे।
निरंजन-यह तो ज़रा होगा ही काका, हालत तो सोचो! देखा नहीं, छिबास की मुट्ठी से कुल्हाड़ी छुड़ायी नहीं जा रही थी। मुट्ठी में जान नहीं लग रही थी। वह क्या ऐसे ही थी बोलो?
दिनतारन-ओ हो हो हो... छिबास हतप्रभ हो गया था, ज़रा उठाकर बैठाओ, उससे बात करवाओ।
सनातन-रहने दो दीनू दा, रहने दो। साक्षात् मृत्यु को देखकर वह लौटा है, ज़रा चुपचाप धीरे-धीरे से संभलने दो।
निरंजन-केवल टुकुर-टुकुर ताके जा रहा है, ओ काका, देखो।
दिनतारन-देखूं, मैं ज़रा देखूं। छिबास? सुन रहे हो? इस तरह क्यों देख रहे हो? हम घर लौट रहे हैं। अरे, तुझे कुछ नहीं हुआ है..बात तो कर।
निरंजन (दबे आवाज़ में)-देखने का ढंग सही नहीं लगा रहा है काका। पागल-वागल तो नहीं हो गया?
दिनतारन-भक्क! अभी संभला नहीं है, समय लगेगा। सुन तू इसके पास बैठकर उलूजुलूल मत बक। चप्पू पकड़। मातला की उल्टी धारा शुरू हुई है। बेला भी हो गयी है। नाव चला-नाव चला।
(छप-छप नाव के आगे बढ़ने की आवाज़ थोड़ी देर तक।)
सनातन-(एकाएक भयभीत होकर)-ओ दीनू दा, वह सामने देख रहे हो।
दिनतारन-क्या रे क्या!
सनातन-वह देखा, वह सफ़ेदबोट-पटेल नहीं तो?
दिनतारन-हां, हां, देख रहा हूं-इसी तरफ़ आ रहा है। पक्का पटेल ही होगा।
सनातन-तब!
दिनतारन-अरे कैलाश, निरंजन-नौका घुमा। बांयी ओर झाड़ी में घुस। जल्दी।
निरंजन-सर्वनाश, लगता है देख लिया है। नौका मोड़ कैलाश, अभी। चुपचाप बैठे रहो काका। छिबास को देखो।
(समवेत आवाज़। छप-छप की तेज़ होती आवाज़ें। दूर से इंजिन बोट की आवाज़ पास आती है।)
दिनतारन-अरे, बोट तो एकदम पास आ गया। जल्द ही किसी झाड़ियों में घुसा। वह निश्चित रूप से पटेल की बोट है।
सनातन-वह तो तेज़ी से आ रहा है।
दिनतारन-ओ हो हो, इतने सतर्क होकर आने पर भी अन्त में विफल हो गये, चला रे निरंजन और तेज़ चला।
(नौका के तेज़ चलने की आवाज़ें, इंज़िन के पास आने की आवाज़)
वनरक्षक (आवाज़ देकर)-ऐ ऐ, नौका रोको, नौका रोको।
निरंजन-क्या करूं काका। पकड़ लिया। (फुसफुसाकर)
दिनतारन-सब ख़त्म हो गया। अब क्या करोगे?
सनातन (बड़बड़ाते हुए)- स-ब ख-त्त-म।
(इंज़िनबोट नौका के पास पहुंचती है)
वनरक्षक-चढ़ो। नौका में चढ़ो। सर्च करो। (कई लोग नौका में कूद पड़ते हैं, कूदने की आवाज़ें) दिखाओ, पहले लकड़ी का पास दिखाओ, पास कहां है?
सनातन-पा-पा-स मतलब-
दिनतारन (धीमी आवाज़ में)-हमारे पास पास नहीं है बाबू, हम बहुत गरीब हैं-
निरंजन-ना-ना मतलब है बाबू, है, हमारे पास हेताल का पास है।
वनरक्षक-चालाकी के लिए ज़गह नहीं मिली? यह सब क्या हेताल की लकड़ियां हैं?
सनातन-हेताल नहीं मिली इसीलिए-
ऑफिसर-सब लोगों को बोट ले आओ गणेश। और नौका को घुमाकर बोट के पीछे ले आओ।
वनरक्षक-ऐ, ऐ, चढ़ो सब। बोट पर चढ़ो। चप्पू छोड़, पहले चप्पू छोड़।
दिनतारन (भयभीत होकर)-हम पर दया करो बाबू।
सनातन-घर में बहुत अभाव है बाबू।
निरंजन-यह काम कभी नहीं करूंगा।
वनरक्षक-चुप। एकदम चुप। यह सब बातें सुनसुनकर कान पक गया है। उठ! उठ!!(धक्का देने की आवाज़े। अलग-अलग लोग आ-ऊह की आवाज़ें करते हैं) ऐ नवाब की तरह सो रहा है। उठ।
दिनतारन(थोड़ा दृढढ से)-बाबू! उसे रहने दें।
वनरक्षक-तू रुक। मुश्किल पैदा मत कर। ऐ, उठ पहले। उठ-उठ।
दिनतारन (थोड़े आश्चर्य से)-ये तो छिबास उठ रहा है! उठ कर खड़ा हो गया! हाथ में कुल्हाड़ी!! यह छिबास की कौन सी भंगिमा है।
छिबास (तेज़ चित्कार करते हुए)-बा-आ-आ-आ-घ!! कहां-हां-हां-हां..
आफिसर-फ़ायर-फ़ायर (गोली चलने की आवाज़ें। आर्तनाद कर पानी में गिर पड़ता है छिबास।)
दिनतारन-अरे, छिबास रे-ए-ए..(इंज़िन बोट की आवाज़ क्रमशः तेज़ होती हुई दूर चली जाती है। मातला नदी के तेज़ लहर की आवाज़ें। पंछियों के एक झुंड की आवाज़ें, जो अपने घोंसलों में लौट रहे हैं)

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