1/18/2014

व्यक्ति नहीं संस्था हैं शंभुनाथ


संस्मरण
-डॉ.अभिज्ञात
अध्यापन के अपने मुख्यकर्म क्षेत्र से सेवानिवृत्त होने जा रहे शंभुनाथ जी से उपजे शून्य को कोलकाता का शिक्षाजगत किस रूप में लेगा नहीं जानता क्योंकि न तो मैंने मुझे कभी उनकी कक्षा में बैठ कर पढऩे का अवसर मिला, न पढ़ाते देखने का। नागपुर से एमए करके ही आया था और उनसे परिचय के पूर्व ही मैं डॉ.इलारानी सिंह के निर्देशन में पीएच.-डी के लिए शोध का रजिस्ट्रेशन करा चुका था। लेकिन विश्वविद्यालय में प्राध्यापकों के कक्ष में उनके साथ पचासों दफा बैठक कर गपशप करने और लिखने-पढऩे की बातें करने का अवसर पर अवश्य मिला है। उनसे मिलने की ललक इसलिए बनी रहती थी कि मैं लेखन की दुनिया में कोलकाता आने से पहले काफी पहले आ चुका था और लेखन की नयी दुनिया में शंभुनाथ जी का अच्छा खासा दखल था। नयी रचनाशीलता में उनका हस्तक्षेप जीवंत व महत्वपूर्ण माना जाता था। उनके सम्पादन में समकालीन 'सृजन पत्रिका' उन्हीं दिनों निकलनी शुरू हुई थी। इसी बीच एक साप्ताहिक पत्र 'समकालीन संचेतना' से जुड़े तो उन्होंने कुछ युवाओं को भी उससे जोड़ा तो उस सम्पादकीय टीम में मैं भी था। उनकी करीबी से मैंने जाना कि साहित्य की दुनिया से जुडऩे वालों को साहित्येतर से उतना ही जुडऩा होना चाहिए वरना समझ एकांगी बनी रहती है। 12-15 महीने में उस टीम में रहा। उनके घर भी कई बार जाना हुआ। उनकी बातचीत और व्यवहार में एक चुम्बकीय आत्मीयता मैंने हमेशा महसूस की है। और वह खिंचाव जो हर मुलाकात के बाद अगली मुलाकात के लिए पैदा होता रहता है। 25-30 साल पुराने सम्पर्क उनसे रहा है और इस अवधि में विभिन्न साहित्यिक आयोजनों में हमारी सहभागिता भी हुई है। उनके लिए मंच और सामान्य जीवन में होने वाली बातचीत में कोई पार्थक्य नहीं। वे दोनों स्थान पर अपनी बातचीत को स्पष्ट करने के लिए कोई किस्सा, कोई प्रसंग सुना सकते हैं और फिर बात को लेकर जाकर किसी सूत्र में बांध सकते हैं। उनकी बातचीत में हर थोड़े अंतराल में सूक्तियां गढ़ते चलते हैं और सूक्ति तक पहुंचकर वे उसकी नये सिरे से व्याख्या भी कर सकते हैं। अपनी ही बातचीत में अनायास सूक्तियों को पा लेना या एक नयी कौंध, सोच की एक नयी दिशा, नया बिन्दु, नया प्रस्थान स्वयं उनके लिए भी वैसा ही आह्लादकारी होता है जैसा दूसरों के लिए भी। 
आलोचना कर्म उनके लिए पूरी सभ्यता की आलोचना और विमर्श मनुष्यमात्र की नियति के निर्धारण में अपना जरूरी मशवरा देने जैसा रहा है। साहित्य का अध्यापन उनके लिए मात्र भाषा और साहित्य का अध्यापन कभी नहीं रहा है वे उसे मनुष्य को और अधिक मनुष्य बनाने का उपक्रम मानते रहे हैं। उनसे बातचीत में एक किशोर मन भी कहीं न कहीं मौजूद रहा है जो सामने वाले को अपनी विचारों से आक्रांत नहीं होने देता है। उनकी चिन्ता के केन्द्र में सदैव युवा रहे हैं और उनकी कार्यपद्धति हमेशा टीमवर्क की रही है। उन्होंने नये लिखने-पढऩे वाले युवाओं की कई पीढिय़ां तैयार की हैं और कई को सम्मानजनक जीने योग्य बनाने में हर तरह की मदद की है। कोलकाता से जिन दिनों मैं रोजगार के फेर में अमृतसर, जालंधर, इंदौर व जमशेदपुर रहा किसी ने किसी लिखने पढऩे वाले उनके परिचित से मुलाकात रही और इस बहाने हम उन्हें याद करते रहे। याद आता रही 'मौचाक' की वह अड्डेबाजी जहां हम किसी जमाने में अपनी नवीनतम रचनाएं एक दूसरे को सुनाते थे, नयी किताबों की चर्चा और नये प्रकाशित लेखों पर अपनी राय साझा करते थे। याद आती थी 'बुलबुल सराय' की शामें जहां बंगाल के लेखकों का जबर्दस्त जमावड़ा होता था। बीच में वे निदेशक बनकर केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा चले गये थे। उनका आग्रह बराबर बना रहा कि में पर्यटन के लिए आगरा अवश्य पधारूं। अब जबकि हम दोनों ही कोलकाता महानगर में हैं उन मुलाकात को हम मिलकर याद करते हैं और इस बात पर अफसोस जाहिर करते है,ं वे अड्डे अब नहीं रहे। मेरे अत्यंत प्रिय सकलदीप सिंह नहीं रहे जो हम दोनों के बीच एक मजबूत कड़ी थे। उन्होंने हावड़ा में शंभुनाथ जी के घर के समीप ही फ्लैट लिया था। उनमें से कोई एक मिलता तो दूसरे की खोज खबर देता-लेता था। मैं अपने साहित्यिक परिवार का उन्हें एक ऐसा अभिन्न सदस्य पाता हूं, जिसकी किसी भी साहित्यिक समारोह में उपस्थिति भर से एक भरेपूरेपन का एहसास होता है और रचना क्षण में उस अकेलेपन से भी बच जाता हूं जब लगता है कि मेरे अकेले लिखने पढऩे से क्या होने जा रहा है। सतत रचनाशीलता की उनकी निरंतरता भी प्रेरित करती है और मैं अपने कई रचनाकार साथियों की तरह रचनाविमुख नहीं हो पाया।  हालांकि वे मुझे कभी व्यक्ति लगे नहीं। पुस्तक मेले में कई बार लघुपत्रिकाओं की उनकी स्टाल पर बैठा, तो कभी उनकी ओर से आयोजित युवा उत्सवों में भाग लिया वे सदैव एक संस्था की तरह लगे।

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