पुस्तक समीक्षा/अभिज्ञात
कविता संग्रह-एक धरती मेरे अन्दर/लेखकः उमेश पंकज/ प्रकाशकः लोकोदय प्रकाशन प्रा.लि., 65/44 शंकर पुरी, छितवापुर रोड, लखनऊ-226001
उमेश पंकज बरसों तक साहित्यिक संस्कारों को धैर्य से परखते व अपनी समझ के प्रौढ़ का होने का इन्तज़ार करते कवि हैं। लगभग साठ की उम्र में लोग अपने लिखे को लगभग दोहराने लगते हैं या फिर उसे यथेष्ठ मानकर मोहित हो शिथिल पड़ जाते हैं उनकी पहली कृति आयी है-'एक धरती मेरे अन्दर'। यह उनके गत दो-तीन सालों में लिखी कविताओं का संग्रह है। उन्होंने इस काव्य-संग्रह का जो नाम रखा है, वह इस आशय को भी व्यक्त करता है कि उनके अंदर सृजन लगभग एक दुनिया तैयार हो चुकी है, जिसका अनावरण उन्होंने इस कृति के जरिये किया है। लोग उनकी इस वैभवपूर्ण दुनिया के सौंदर्य व सम्पन्नता को किन्चित विस्मय से देखने को विवश हैं क्योंकि उन्होंने अब तक न तो प्रश्नवाचकता का कैशौर्य खोया है और ना अनुभवों की अभिव्यक्ति का टटकापन, जो कविता की लगभग अनिवार्य शर्त होती है। हालांकि वह आकाश-पाताल एक कर देने की शेखियां नहीं हैं और बड़बोलापन भी नहीं है, जो कच्ची उम्र लेखकों के पहले संग्रह में कई बार होता है। सपनों की सघनता की उम्र चूक जाने के बावजूद उमेश पंकज की कविता की दुनिया नीरस नहीं है। अनुभव, बौद्धिकता व दुनियादारी के बीच उन्होंने कविता के नये सोते खोजे हैं। उन्हीं के शब्दों में देखें-'वह पेड़ पर चढ़ कर/ हरा बन गयी/घुल गयी पेड़ की पत्तियों में/फल की तरह लदरा गयी/कुछ दिनों बाद/पेड़ झुक गया/ मीठी गन्ध फैल गयी हवाओं में/किसी दिन कौवों के/ मंडराते झुंड ने/उसे घायल कर दिया/पेड़ से वह गिर गयी/रोप दी गयी मिट्टी में/वह फिर से उग रही है।'...यह है उमेश पंकज की काव्य-प्रक्रिया और उनकी लेखनी को अक्षुण्ण बनाने रखने के राज। इस संग्रह की कई कविताएं अपनी ओर ध्यान आकृष्ट कराती हैं जैसे 'उस पार जाना है'। इसकी एक बानगी देखें-'जीवन की सूखी नदी में/तैरते-तैरते/थोड़ा थक गया हूं/करने लगा हूं शवासन/भ्रम हो सकता है/बह रही है कोई लाश।' यथास्थितिवाद व भौतिक जीवन की शुष्कता को महसूस करना व संवेदना की तलाश इसमें है। इनकी कई कविताओं में प्रकृति का वैभव हमें मोहित करता है। नदियों का बहाव व प्रफुल्लता है। पर्यावरण के आसन्न संकट को लेकर उनकी कविताओं में चिन्ताएं भी हैं। 'मल्लाह' कविता में वे कहते हैं-'पानी नहीं तो मर जाती है नाव/वैसे ही जैसे/मर जाती हैं मछलियां/नदी के जीव-जन्तु और मल्लाह।'
जीवन में सार्थकता की तलाश करने वाले कवियों की भरमार है। संतोष और शांति की तलाश करने वाले भी बहुतेरे हैं लेकिन आह्लाद की खोज के कवि कम मिलेंगे। हम उमेश पंकज को जीवन-राग व आह्लाद की तलाश का कवि मान सकते हैं। इस लिहाज से वे गिनती की कवियों में शुमार किये जायेंगे। एक संजीदे और लगभग मनहूस काव्य सर्जना के संसार में ऐसे कवि की उपस्थित सुखद है। वे लिखते हैं-'क्या करूं अपनी हंसी का/वह तो फूटती है वैसे जैसे कोई नदी/पहाड़ के ऊपर से मारती है छलांग/कैसे बताऊं कि जोरदार हंसी/फूटती है खुशी से/और दिल से निकलकर ठहाके लगाती है/जिसे रोकना आसान नहीं/ठहाके को रोकना/ क्या हत्या नहीं है खुशी की/ सभ्य समाज के लोग/क्या इतना भी नहीं समझते?' उनकी कुछ कविताओं में मृत्युबोध है, जो जीवन के यथार्थ को एक गहरी आध्यात्मिकता से जोड़ता है। उनकी कई कविताएं आध्यात्मिक प्रश्नों से जूझती दिखाई पड़ती हैं-'क्या हूं/हवा?पानी?आग?/हूं क्या?/सांस छोड़ता हूं, तो लगता है हवा है/पसीना टपकता है तो लगता है पानी है/क्रोधित होता हूं तो लगता है मौजूद है आग।' इतना सब होते हुए भी एक वामपंथी चौकन्नी दृष्टि उनकी कविताओं में सदैव उपस्थित रही है। कार्य-कारण के बीच के अंतरसम्बंधों की उन्हें गहरी समझ है और प्रतिरोध कहीं शिथिल नहीं पड़ा है। वह 'राम खेलावन','अच्छे दिन आयेंगे', 'जंगल का दर्द, 'रूदन राग' व रोटियां पहरे में जैसी कविताओं में झांकता है। स्पष्ट शब्दों ने उन्होंने तलवार कविता में अपनी प्रतिबद्धता का जिक्र किया है-'मैं जहां हूं ठीक मेरे ऊपर/लटकी हुई है एक रक्तरंजित तलवार/...चूंकि वह रक्तरंजित है और/उसमें धार है और चमक भी/इसलिए यह कहा जा सकता है कि/उसका सम्बंध कई हत्याओं से रहा होगा/वैसे भी तलवार से कोई/कविता तो लिखी नहीं जाती/जब भी वह उठती है/हिंसा और हत्या ही करती है/सोचता हूं-मेरा उससे क्या सम्बंध?/क्यों लटकी हुई है मेरे ऊपर/क्या तलवार से लिखी जायेगी कविता।' उमेश पंकज की कविताएं पढ़ते हुए वरिष्ठ कवि कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह के अंतिम दौर के कविता संग्रह 'बबुरीबन' की कविताओं की याद ताज़ा हो उठती है। -डॉ.अभिज्ञात
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