1/11/2011

दीवार के उस पार

साभारः डेली न्यूज़, हम लोग, जयपुर, 9 जनवरी 2011

डॉ. अभिज्ञात के छह कविता संग्रह, दो उपन्यास एवं एक कहानी संग्रह प्रकाशित है। उनकी रचनाएं कई भाषाओं में अनूदित हुई हैं एवं कई पुरस्कार सम्मान मिले हैं। कोलकाता में रिहायश....

बड़े भाई रामनारायण को दीपनारायण का पत्र: एक
मान्यवर भैया,
सादर प्रणाम। कुछ दिनों से मैं सोच रहा था कि परिवार की वर्तमान स्थिति के सम्बंध में आपको पत्र दूं क्योंकि आप परिवार के मुखिया हैं सबसे बड़े हैं और प्रस्तुत बातें आप से विशेष रूप से सम्बंधित हैं। बबुआ विभूतिनारायण सिंह के आकस्मिक निधन से हमारे परिवार की जो महान क्षति हुई है उसका बखान नहीं किया जा सकता। कहां तो हम सब इस बात के लिए चिन्तित रहा करते थे कि उनकी कोई सन्तान हो जाए, कहां यह हो गया कि ईश्वर ने उन्हें अपने पास बुला लिया। खैर ईश्वर की मर्जी सद्आत्माओं की उसे भी आवश्यकता होती है। बबुआ भी उन्हीं महान् विभूतियों में से एक थे। और हमने सोच समझकर ही उनका नाम गुणानुकू ल रखा था। बबुआ के देहावसान के पpात आपकी जो मानसिकता बदली है उस पर सभी को आpर्य है। आप बबुनी अहिल्या या उसके पुत्र सजल को अपना उत्तराधिकारी बनाने की सोचने लगे हैं ऎसा अन्देशा आप की बातों से स्पष्ट हो रहा है, उसी पर मैं अपने विचार रख रहा हूं।

आप परिवार की मौजूदा हालत के सम्बंध में सोच रहे हैं कि भगवान ने जो कर दिया अब आगे क्या होना चाहिएघ् ऎसी परिस्थिति में परिवार आदि सब पर ध्यान देना चाहिए। अपने जवार के भैया गोविन्दसिंह लखनपुरा के सामने भी यही बात आई थी किन्तु उन्होंने अन्त में जायदाद खानदान को ही देने का प्रबंध किया। अपने रिश्तेदारों में रामलोचन सिंह बांसडीह ने खानदान को ही दिया दूसरे को नहीं। अपने गांव पश्चिम टोला के केदार सिंह ने खानदान को ही दिया अन्य को नहीं। बाबू अनुज प्रताप व देवधारी सिंह ने भी ऎसा ही किया। इन सबको लड़कियां या बहनें थीं। ऎसे कई उदाहरण मिलते हैं कि नर्वासा का कोई देता है तो अक्सर शुभ नहीं होता और दोनों पक्ष तहस नहस हो जाते हैं।

नर्वासा कुछ दिनों बाद अकेला महसूस करने लगता है और संघर्ष से घबड़ाकर वहां से सब कुछ जगह जमीन घर-दुआर बेचकर भागना चाहता है और बहुत कम दाम पर दूसरों को बेचकर चला जाता है। ऎसी सम्पत्ति जगह जमीन आदि वह लेता है जो मूल परिवार का दुश्मन होता है या गांव का गया गुजरा होता है। अपने ही गांव में ऎसी बात आजकल चल रही है महेश तिवारी जी के विषय में। उन्होंने लड़की को दिया। तिवारी जी को मरे अभी दो-तीन माह ही हुए हैं और नर्वासा सब जगह जायदाद बेचने के लिए ग्राहक खोज रहा है। वह वहां से भागना चाहता है। फि र किसी का नाम अपने कर्म से चलता है लड़का-लड़की से नहीं। आज लड़का न होने पर भी सकलदीप सिंह अवधेश जीए रामअवतार सिंह बाबू जयदेव सिंह और बाबू राधेश्याम चौबे का नाम बड़ी इज्जत व प्रतिष्ठा से लिया जाता है और मरने के बाद भी इन लोगों को काफी लोग जानते हैं। कितने ही लड़के वालों का नाम कोई नहीं जानता। ... नाम लेता है तो कर्म के अनुसार ही।

ईश्वर चतुर्भुजी है। चार बांह वाला जो करता है वही होता है किन्तु घबड़ा कर ईश्वर के प्रबंध को कोई तुरन्त उलटना चाहे तो नहीं उलट सकता। उसे सफ लता नहीं मिल सकती क्योंकि वैसा करना ईश्वर के प्रबंध में दखल होता है जिससे ईश्वर नाराज होता है। ऎसे में हम लोगों को अपने गुजर गये पूर्वजों का भी आह्वान कर उनकी राय लेनी चाहिए। हम लोगों को सोचना चाहिए कि बहुत पहले के पूर्वज नहीं तो कम से कम बाबू बद्रीसिंह बाबा बाबूजी चाचा एवं स्वयं बबुआ विभूतिनारायण सिंह ऎसी परिस्थिति में क्या किए हैं और क्या करते या सलाह देते उसे ही करना चाहिए।

अभी जिस दुदांüत घटना पर जो समस्या आई है उस महान व्यक्ति के जीवन के विचारों को, उसके स्वभाव को, परिवार से सम्बंध में उसकी बातों पर विचार करके भी हम लोगों को चलना चाहिए। बबुआ आज जीवित होते तो स्वप्न में भी खानदान को ही सम्पत्ति देने की सोचते और देते। किसी अन्य को नहीं। उनकी इच्छा के खिलाफ कोई काम करना उनकी आत्मा को कष्ट देना है। फिर देहात की खेती-बारी शहर की सम्पत्ति की तरह नहीं है। देहात में जमीन का विवाद परिवार में उठता है तो उसका निपटारा एक पुश्त में नहीं होता और नर्वासा के सम्बंध में वह संघर्ष तो और लम्बा खिंचता है। वह संघर्ष कौन सा रूप लेता है कितना भयानक हो सकता है कितना अनिष्टकारी हो सकता है कोई सोच भी नहीं सकता। संघर्ष में दोनों पक्ष बरबाद होंगें और जो अपने को सफ ल पाएगा वह भी बरबाद हो गया होगा। और दो पाटों के बीच उस संघर्ष में बहू का जीवन कैसा होगा, बबुनी अहिल्या तथा उसके बच्चों का जीवन कैसा होगा, इसकी आप कल्पना नहीं कर सकते। हम सब लोग बरबाद हो जाएंगे और गांव के दुश्मन हंसेंगे। और हम्हीं लोगों को बुरा-भला कहेंगे। यद्यपि हम लोग उस समय न रहेंगे। हम तीनों भाइयों का जीवन कितने दिनों का है, दस बारह वर्ष, अधिक से अधिक। काम ऎसा होना चाहिए जिससे संघर्ष न हो। आपने ही परिवार को अपने बलबूते पर आगे बढ़ाया है, जगह जायदाद बनाई है आप ही द्वारा कोई ऎसा काम हो जिससे परिवार भ्रष्ट हो जाय, यह ठीक न होगा। जो बचपन से जिस चीज को बनाता आया है उसे अस्सी वर्ष की अवस्था में ध्वस्त करेगा, ऎसा सोचा नहीं जा सकता।

हम तीनों सगे भाइयों में आप सबसे बड़े और योग्य हैं। तीनों को एक में बांधे रखने का श्रेय आपको ही है। आपको मैं तथा छोटे भाई गोबरधन सिंह भी पिता तुल्य समझते आए हैं। इन सब बातों पर विचार करने पर निचोड़ यही युक्तिसंगत, न्यायसंगत, व्यवहारिक और जायज लगता है कि ऎसा प्रबंध होना चाहिए जिसमें बहू के जीवन पर्यन्त सम्पत्ति बहू की रहे। बहू के बाद परिवार के हित का ध्यान रखते हुए वह सम्पत्ति किसी अन्य को न दी जाए, वह परिवार की ही रहे। मनुष्य सब प्रबंध करता है पर ईश्वर नहीं चाहता तो वह सुखी नहीं रहता। भले ही हमारा परिवार गरीब कहा जाएगा किन्तु हम लोग राजपरिवार से निकले हैं इसलिए हमारा व्यवहार एक राजा की तरह ही होना चाहिए। राजा सर्वप्रथम अपने कर्तव्य का ख्याल रखता है अपने निजी सुख का नहीं। राजा केवल दो कदम नहीं बल्कि दस कदम आगे की देखकर चलता है। मुझे लगता है आप अपने को पहचानेंगे। आपकी हस्ती अपने जन्म एवं कर्म से बहुत ही महान है। एक प्रसंग महाभारत का है। धर्मराज युधिष्ठिर से यक्ष प्रश्न करता है, कौन सा पथ अच्छा है? धर्मराज उत्तर देते हैं, महाराजना: गता ते: पन्था, अर्थात जिस रास्ते से बड़े चलते हैं वही रास्ता अच्छा है। इस प्रकार गांव, जवार, हित नात में पहले के बड़े लोग कर गएं हैं वही श्रेष्ठ पथ है, वही अनुकरणीय है। इति!
आपका,
दीप नारायण सिंह
...
बड़े भाई रामनारायण को दीपनारायण का पत्र: दो
मान्यवर भैया,
सादर प्रणाम। इसके पहले मैंने एक विस्तृत पत्र दिया था। आशा है आपको मिला होगा किन्तु आपका उत्तर नहीं मिला कि आपने सम्पत्ति के संदर्भ में क्या निर्णय लिया। इधर एक ऎसी बात हो गई जिसकी सूचना आपको देना मैं कर्तव्य समझता हूं। बात यह थी कि अपने शहर वाले मकान के उत्तर माधोसाव के मकान में एक दूबे जी किराएदार हैं। दूबेजी मिलिटरी के रिटायर्ड एक आफिसर हैं। माधोसाव के मकान की ऊपरी मंजिल पर दक्षिण ओर दूबे जी रहते हैं। दूबे जी का जंगला अपने मकान की ओर है, जो अपनी छत से उत्तर के हिस्से से दिखलाई देता है और बीच में केवल गली है। दूबे जी की एक सयानी लड़की है जो बीए या एमए में पढ़ती है। उस लड़की से सजल का सम्पर्क कुछ दिनों से चल रहा है, छत से और इधर-उधर से भी। मुहल्ले के लोग इस बात को जानते हैं और दो.एक दिन मोहल्ले के लड़के सजल को मारपीट के लिए खोज भी रहे थे किन्तु सब पता चलने पर इन सबों को मैंने समझाया और मारपीट करने से रोका और लोगों से कहा कि उसे मैं शीघ्र यहां से हटा देता हूं। इस बीच सजल स्वयं आपके पास कलकत्ता चला गया है। बात और तरह से फूटी तो आवश्यक समझा कि आपको सब बात बता दूं। कुछ बातें मन के खिलाफ जाती हैं उस पर घबड़ाना नहीं चाहिए और अपने विवेक को बनाए रखकर अपने कर्म और कर्तव्य को करते रहना चाहिए। शेष कुशल है।
आपका,
दीपनारायण सिंह

बड़े भाई रामनारायण को गोबरधन सिंह का पत्र
श्रीमान भाई जी,
मैं, गोबरधन सिंह तथा मुझसे बड़े भाई दीपनारायण सिंह आपको सादर प्रणाम करते हैं। कुशलता के पpात विदित हो कि यहां जो गुल खिल रहा है वह सब आपकी गलती का नतीजा है। पीछे आपको यह गल्तियां मालूम होना सजल के अन्दर बहुत सी गलती कूट कूट कर भरी है। वह यहां से गल्ती करके ही भागकर कलकत्ता गया है। अब तो सजल शहर वाली कोठी पर आने लायक नहीं रह गया है। मैं इसको बरदास्त नहीं कर सकता हूं। मैं तो आपको सलाह देता हूं कि कलकत्ता से भी उसे हटा दें क्योंकि वो लड़का बड़ा फि तरती और गलत है। वो ऎसा लड़का है कि आपका कान भर के आपका भी दिमाग खराब कर देगा। वो पास में रखने लायक लड़का नहीं है। जो बातें वह किया है सब बातें पत्र में अंकित करके भेज रहा हूं। बात दरअसल यह है कि सजल का नाजायज सम्बंध ब्राह्मण की लड़की से है, जो माधोसाव के मकान में उत्तर तरफ में रहती है। सजल परिवार तथा बाहर के लोगों से बराबर झगड़ा करता रहता था। नाना किस्म के गलत प्रचार परिवार के सम्बंध में करता था। मुझे लगता है आपसे भी वह हम लोगों की बराबर शिकायत करता होगा। सजल के बारे में बहू से पत्र द्वारा पूछताछ कर कर लें कि गलत कार्य किया है या नहीं।
आपका,
गोबरधन सिंह

पिता रामनारायण को अहिल्या का पत्र
पूज्यनीय बाबूजी,
चरण स्पर्श। आपका सजल के बारे में लिखा पत्र मिला। जो कुछ आपको ज्ञात हुआ वह गढ़े हुए सच के सिवा कुछ भी नहीं है किन्तु मैं उसका प्रतिकार न करूंगी। आपने अपने पूरे जीवन में मेरे सुख-दु:ख की ओर ध्यान ही कब दिया? दोनों हाथों से कलकत्ता में रूपया कमाया और अपने भाइयों पर लुटाया किन्तु मैंने आपसे कुछ नहीं चाहा और ना ही आपने दिया। भइया ने भी अपने जीवन पयंüत कुछ मेरा हाल नहीं पूछा। आज मेरी शादी को पचीस-तीस वर्ष हो गये आप कभी मेरी ससुराल नहीं आए, पर मैंने कभी शिकायत नहीं की। भइया के आकस्मिक निधन के कारण आपका ध्यान हमारी ओर गया तथा आपकी इच्छानुसार ही मैंने सजल को आपके कलकत्ता तथा आपके गांव भेजा। सजल को आपके पास भेजने का कदापि यह अर्थ न था कि मैं आपकी सम्पत्ति में हिस्सा चाहती हूं। मैंने आपकी इच्छा को महत्व दिया था। हमें सपत्ति देने का आपका अपना खयाल था तथा आपने इस विषय में मुझसे पूछे बिना ही अपने परिवार में बात चला दी। अब सम्पत्ति का एक तिहाई हिस्सा अपने हाथ से जाता देख आपके परिवार में जैसी घृणित बातें हो रही हैं जानकर दु:ख होता है। आपको बरगलाने के लिए ऊंच-नीच, धर्म-कर्तव्य की थोथी दुहाई दी जा रही है। बेटियों को उनके हक से वंचित करने के लिए दुनिया भर के सारे तर्क और हथकंडे इस्तेमाल करने वालों में आपका परिवार भी शामिल हो गया है।

सजल पर मिथ्या आरोप थोपकर सम्पत्ति विवाद को नया मोड़ दिया जा रहा है। ये नए लड़के-लड़कियां उतने बुरे नहीं जितनी मेरी और आपकी पीढ़ी है। सजल का दूबे जी की लड़की से बातचीत करने की जो भी प्रतिçRया आपके परिवार में हुई हो वह मैं नहीं जानती किन्तु उसे जितने घिनौने रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है वह जान गई हूं। मैं या सजल या मेरी ससुराल का कोई सदस्य अब आपके घर में कदम भी नहीं रखेगा। आपने अपनी सारी जिन्दगी जिन लोगों को अपना समझा और जिन पर विश्वास किया अपने जीवन के अन्तिम समय में वह परिवर्तित हो यह मैं खुद भी नहीं चाहती। आपसे अनुरोध है कि छत पर उस ओर एक ऊंची दीवार खड़ी कर दें जिससे आपके घर से दूबे जी की खिड़की की ओर कोई देख भी न पाए। यों भी आपकी निगाह के सामने आपके परिवार ने एक ऎसी दीवार खड़ी कर दी है जिसके कारण आप हमें नहीं देख पा रहे हैं। और इन दोनों दीवारों के उस पार सजल और दूबेजी की लड़की यदि एक-दूसरे को चाहने लगें, तो वे भी आपकी परिधि के बाहर होंगे।
आपकी बेटी,
अहिल्या

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