2/14/2012

अभिज्ञात अपने नये सांचे व ढांचे के कवि हैं -नामवर सिंह


दूरदर्शन पर 7 जनवरी शनिवार को प्रसारित 'आज सवेरे' टीवी कार्यक्रम के प्रस्तोता सुपरिचित कवि मदन कश्यप व हिन्दी के शीर्ष आलोचक डॉ.नामवर सिंह
डॉ.नामवर सिंहः मेरे देखने में यह पहले-पहले संग्रह आया है 'खुशी ठहरती है कितनी देर'। और एक भूमिका भी लिखी है, जिससे मालूम होता है इस भूमिका से कि कविता से इनका जो सरोकार है, वह बहुत गहरा है। और कविता को बहुत महत्त्वपूर्ण और शक्तिशाली विधा वे मानते हैं। उन्होंने कहा भी है विवेक-सम्मत आवेग की अभिव्यक्ति है कविता। तो आवेग के साथ विवेक ज़रूरी है इसे वे इसे मानते है और यह उनकी कविताओं में भी झलकता है। पहली ही कविता जो उन्होंने दी है। भूमिका न भी देते तो कोई हर्ज न था लेकिन इनके सरोकार जो हैं, बहुत गंभीर हैं। भूमंडलीकर और उदारवाद बाजार व्यवस्था के बीच कविता का जो महीन जाल बुना गया है, उसमें कविता के लिए कितनी जगह रह गयी है इसकी चिन्ता के साथ उन्होंने लिखी है। पहली ही कविता इनके विचार को भी प्रकट करती है और उनकी कविता का जो सांचा और ढांचा है वह भी मालूम होता है। 'खुशी ठहरती है कितनी देर'। मैं सोचता हूं कि कोई टिप्पणी करने से पहले इस कविता को देख लें
'मैं दरअस खुश होना चाहता हूं

मैं तमाम रात और दिन
सुबह और शाम
इसी कोशिश में लगा रहा ता उम्र
कि मैं हो जाऊं खुश
जिसके बारे में मैं कुछ नहीं जानता

नहीं जानता कि ठीक किस
किस बिन्दु पर पहुंचना होता है आदमी का खुश होना
कितना फर्क होता है दुःख और खुशी में
कि खुशी आदमी को किस अक्षांश और शर्तों और
कितनी जुगत के बाद मिलती है
वह ठहरती है कितनी देर
क्या उतनी जितनी ठहरती है ओस की बूंद हरी
घासों पर
या उतनी जितनी फूटे हुए अंडों के बीच चूजे
हालाॉकि वह समय निकल चुका है विचार करने का
कि क्या नहीं रहा जा सकता खुशी के बगैर
तो फिर आखिर में इतने दिन कैसे रहा बगैर खुशी के

शायद खुशी की तलाश में जी जाता है आदमी
पूरी-पूरी उम्र

और यह सोचकर भी खुश नहीं होता
जबकि उसे होना चाहिए
कि वह तमाम उम्र
खुशी के बारे में सोचता
और जीता रहा
उसकी कभी न खत्म होने वाली तलाश में'
सीधी-सादी सपाट सी लगने वाली यह कविता उम्मीद को ओर इशारा करती है कि आज भी आदमी अपनी उम्मीद को और खुश होने की उम्मीद को, सबसे बड़ी चाह एकमात्र यह रह गयी है यह नहीं कि हम सम्पन्न हों, बड़े समृद्ध हों, अनेक आशाएं लोग पालते हैं। कोई क्रांतिकारी बात नहीं कही गयी है लेकिन जिस ढंग से पूरी चीज़ कही गयी है, वह क्रांतिकारी लगती है।
मदन कश्यप- कहने का ढंग अपना है। हृदय को छूने वाला ढंग है।
डॉ.नामवर सिंहः सवाल यह है कि खुशी भी तो मिले लेकिन मिलने के बाद वह ठहरती है कितनी देर है। करीब उनकी पैंतालीस कविताएं हैं। और उनकी दूसरी कविता है 'तोड़ने की शक्ति'। उनकी कुछ कविताएं उनकी बेटी पर हैं।
मदन कश्यप-पांच कविताएं बेटी पर हैं।
डॉ.नामवर सिंहः बहुत अच्छी। उसकी आखिरी कविता है 'उपलब्धि'। बच्चियों के बारे में बहुत सी कविताएं लिखी गयी हैं लेकिन जिस आत्मीयता से यह लिखी गयी है, उन्होंने केवल पिता की दृष्टि से नहीं लिखी हैं बल्कि माता-पिता दोनों की दृष्टि लिखी हैं-
'तुम वह हो जहां मुझमें खुद को पाया है तुम्हारी मां ने
जहां हम दोनों ने मिटा दिया है अपना स्वतंत्र अस्तित्व
तुम हमारी संधि हो
तुम हो हमारा सेतु
तुम हो वह
जहां से
हम चाहें भी तो लौट नहीं सकते अपने आप तक
तुम हमारे स्व के खोने की परिभाषा हो
तुम हमारे विलय की उपलब्धि हो.
तुममें झांकती है मेरी मुस्कान
तुम्हारे स्वर में है तुम्हारी मां की तान
तुममें मेरी शरारतें कहीं छिपी हैं
मां की आदतें तुममें रची बसी हैं
मेरी संवेदनशीलता तुमसे बंधी है
तुम्हारी मां की काया तुममें नधी है.
पर हम नहीं चाहते
तुम बनो हमारा प्रतिरूप
तुम पाओ प्रकृति से अपने होने की धूप
अपना छंद ही तुम्हें साधेगा
हम दोनों में वह शत्रु होगा
जो तुम्हें बांधेगा.'
मदन कश्यप-पुराने समय से लिखी जा रही हैं ऐसे कविताएं। मदन वात्स्यायन ने लिखी है स्वाति के लिए. और उस समय से लेकर एक लम्बी परम्परा है उसमें वे कुछ अलग जोड़ते हैं..
डॉ.नामवर सिंहः इस कविता के अन्त में कहा है..हम तुमको मुक्त करते हैं। यह नहीं कि तुम हमारी अनुकरण बन रही हो। कुछ हमारे गुण हो कुछ मां के गुण हों इसके अलावा भी तुम स्वतंत्र हो अपना व्यक्तित्व प्राप्त करने के लिए। यह अपनी बेटी को शुभकामना
अनेक कविताएं इसमें संवाद के लिए,,
मदन कश्यप- कोलकता का जो महानगरीय जीवन है, जो लोकल में चढ़ने का जो संघर्ष है, वहां के यथार्थ को, मुझे लगता है वहां भी वे एक अच्छे कवि के रूप में...
डॉ.नामवर सिंहः 'हंसी की तासीर' एक कविता है, 'करतूतें' भी हैं, तो यह कविताएं, 'सपने' के बारे में हैं तो
मदन कश्यप-अभिज्ञात चूंकि रहते हैं बंगाल में, हैं तो हिन्दी भाषी ही। वहां शायद लम्बे अरसे से रहते हैं
डॉ.नामवर सिंहःअपने अनुभव की बात को लिखा है कि शायद उन्नीस साल बाद लौटा था गांव और इन्तजार कर रहा था कुंए पर बैठे लौटने वालों का। बच्चे जो गये थे स्कूल वगैरह वगैरह..। तो शहर कलकत्ता से जो अपने गांव आते हैं, उसका भी अनुभव है।
मदन कश्यप-यह दो यथार्थ है वह दूर-दराज के कवियों के माध्यम से व्यक्त होता रहा है। और उस पर ध्यान कम ही जाता है लोगों का। मुझे लगता है कि हिन्दी कविता की शक्ति है वह।
डॉ.नामवर सिंहः अपना एक अलग व्यक्तित्व व्यक्त करता है यह आदमी जो आम तौर पर जो कविताएं लिखी जाती हैं उसी तरह की ये नहीं हैं।
मदन कश्यप- यह जो प्रचलित सांचा प्रचलित ढांचा है, हमारे समय में जो काव्य-रूढ़ियां हैं उनसे ग्रस्त नहीं हैं ये कविताएं
डॉ.नामवर सिंहः बिल्कुल मुक्त भाव से अपनी छाप, अपने निजीपन की छाप उनकी हर कविता में है। वह चीज आकृष्ट करती है मेरा खयाल है ऐसे ज़माने में जब सांचे में ढली कविताएं दिखायी पढ़ती हैं शहरों में रहने वाले लोगों को तो हिन्दी इलाके से दूरदराज कलकत्ते में रहता हुआ कवि एक अपनी पहचान अलग बनाती हुई कविताओं को सामने ले आया है और परिपक्व हो चुके हैं क्योंकि यह सातवां कविता संग्रह है।
मदन कश्यप- यहां आते-आते उनका मुहावरा बन चुका है और आपने उनके उस मुहावरे की और उनकी पहचान को रेखांकित कर दिया तो वे और भी आगे जायेंगे। आपको बहुत बहुत धन्यवाद
डॉ.नामवर सिंहःआपको भी।

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