5/09/2015

ये भी मुमकिन है तुझे फिर ना मयस्सर हो पाऊं.

मुनव्वर राना से डॉ.अभिज्ञात की बातचीत

साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त प्रख्यात शायर मुनव्वर राना इन दिनों मुंबई के ब्रीचकैडी अस्पताल में भर्ती हैं। वहां उनके गाल के कैंसर का आपरेशन होना है। अस्पताल में भर्ती होने से पहले इलाज के सिलसिले में ही वे कोलकाता आये थे...पेश है उनसे 2 मई 205 को हुई लम्बी और बेबाक बातचीत, जिसमें उन्होंने अपनी ज़िन्दगी के कई छुए-अनछुए पहलुओं को उजाकर किया है..

प्रश्न-आपने ग़ज़लों और शेरों में दुनिया जहान की तमाम बातों को जगह दी है और आपकी पहचान उन्हीं के लिए है....क्या आपको लगता है कि यह ग़ज़ल का फार्म आपके सभी भावों को व्यक्त करने में सक्षम है..

उत्तरः नहीं बिल्कुल नहीं है। हमारी क्या बिसात है जबकि ग़ालिब ने कह दिया था कि कुछ और चाहिए वुसअ़त मेरे बयां के लिए..तो हमारी तो गोई बिसात ही नहीं है। हमने ये किया कि कुछ तो हमने रस्म-ए-रवाना के तौर पर आज़ाद नज़्में भी कहीं। पाबंद नज़्में भी कहीं। जो हमें साहित्य एकाडमी का अवार्ड मिला है उसमें सिन्धु नदी पर एक नज़्म है-सिन्धु सदियों से हमारे देश की पहचान है..यह सदी गुज़रे जहां से समझो हिन्दोस्तान है। तो एक नज़्म सोनिया गांधी पर है जो मेरे दरवाज़े पे लिख दो यहां मां रहती है..लेकिन हमारा दुख सुख कहने को जो फार्मेट है वो ग़जल़ है। असल में ये मुश्किल काम है। और हम भी यह बात तकसीम करते हैं इधर हमने गद्य लिखना शुरू किया..जिनकी हमारी चार किताबें हिन्दी में आयी हैं। चेहरे याद रहते हैं उन चार किताबों से एक है..जिसमें मुख्तलिफ लोगों की बायोग्राफीज हैं। या बहुत से इनफोर्मेटिव आर्टिकल्स हैं। कंटेपररीज के बारे में। उर्दू वाले कहते हैं कि यह नयी विधा है उर्दू में। जिसमें उन्होंने आटोबायोग्राफी को हुनर बनाया है कि दूसरे की कहानी अपनी कहानी मालूम होती है।

प्रश्नः मतलब ये गद्य संस्मरणात्मक हैं।

उत्तरः इनके बारे में बहुत कम लोगों को मालूम था मगर एक हिन्दी अखबार में नीम के पुल व उर्दू अखबार में सुखन सराय के नाम से स्तम्भ के तौर पर प्रकाशन शुरू हुआ तो ख्याति फैली। कुछ और अखबारों में भी वे प्रकाशित हुए हैं। हम कहते हैं कि ग़ज़ल मुश्किल काम इसलिए है के नज़्म कहना चाहे वह आज़ाद हो प्रोज हो..पाबंद हों वे ऐसे हैं जैसे च्यवनप्राश बनना मगर ग़ज़ल जो वह च्यवनप्राश को कैप्सूल बनाना है। बहुत मुश्किल तईन काम है मगर यह जिन लोगों को आ जाता है उन्हें यह करना अच्छा लगता है। जो लोग नहीं कर सकते हैं..साहिर की एक मशहूर नज़्म है ताज तेरे लिए मजबरे उल्फत ही सही.. तुझको वादी ऐ मुहब्बत ही सही..मेरे महबूब कहीं और मिला कर मुझसे लेकिन शाद आजमी एक शायर हैं बल्कि उनसे बड़े रहे होंगे..उन्होंने एक शेर कहा था-जो मुल्क को रियाया की अमानत समझे.उनसे तामीर कभी ताजमहल हो न सके..यही बात कम्युनिस्ट विचारधार हमने प्रोज लिखने की कोशिश की थी हमने उसे अपनी वाइफ को डेडिकेट करने की कोशिश की थी समर्पित की है शायद जंगली फूल है उर्दू में उसमें मैंने लिखा है रईना के नाम तुम्हारी भाभी जी का नाम रईना है..जिनके मैंने गरीबी के दिनों में भी ऐसे रक्खा जैसे मुकद्दस किताबों मोर के पंख रखे जाते हैं..इसको हम शेर नहीं बना पाये। तो इसका मतलब है कि हम अगर इसको शेर नहीं बना पाते हैं तो बहुत सी ऐसी बातें हैं जो शेर में नहीं कही जा सकती..वे चीजें हमारी लेखनी से छूट जायेंगी..दोस्तों ने यह कहना शुरू कर दिया कि मुनव्वर राना का गद्य अच्छा है बनिस्बत पद्य के। तो लेकिन जाहिर सी बात है कि जो मज़ा शायरी का जो लोग शायरी करते हैं कविता लिखते हैं वे शेर कह सकते हैं.काम मुश्किल है टाइम टेकिंग है ग़ज़ल का एक शेर एक यहां कहां एक अंडाल में कहा तीसरा आसनसोल में कहा और पूरी होते होते उसे कह दिया..कांसेंट्रेशन बहुत करना पड़ता है पढ़ना बहुत पड़ता है। लिखने की शौक हुआ तो लिखना शुरू किया गया। गद्य लिखने के लिए पढ़ना पड़ता है लेकिन शेर कहने के लिए पढ़ना नहीं पड़ता।

प्रश्न-शेर दिल का मामला है

उत्तर-हां कभी-कभी ऐसा होता है कि हम छह-छह महीने पढ़ते रहते हैं। उस बीच कुछ नहीं लिखते। यानी अक्सर ऐसा होता है कि लिखने की आदत ही छूट जाती है और कई बार ऐसा हुआ है कि बैंक से चेक वापस आ गया है साइन नहीं मिलती..। फिर लिखना शुरू करते हैं तो छह महीने साल भर खूब लिखते हैं..उस दौरान कुछ नहीं पढ़ते।

प्रश्न-इसका मतलब है जो आपका बेहतर है वो आप अपनी ग़ज़लों में देते हैं और उस बेहतर में जो कुछ कहने से छूट गया है उसे गद्य में देते हैं.
उत्तर-हां..जो नहीं दे पाते ग़ज़ल में वो गद्य में देते हैं..मेरे ख़याल से यह सिर्फ़ मेरे साथ नहीं होता होगा..ग़ालिब ने जो ख़तूत लिखे वो ग़ालिब की शायरी के बराबर ही माने जाते हैं वे दिलचस्प है..जो वे ग़ज़लों में नहीं कह पाते वो अपने शागिर्द हर नारायण कोफ्ता थे उन्हें ख़तूत में लिखते थे.. या मीर मदी मजरूह जो को ख़त लिखा उसमें पूरा उतार दिया।

प्रश्न-मेरे ख़याल जो शायरी के बाद तो सबसे अच्छी विधा जिसमें लोग अपने को व्यक्त करते हैं वो पत्र हैं जो आज खो रही है..यह महत्वपूर्ण विधा आज ख़तरे में है

उत्तरःराइट पत्र आजकल जो छाप दिये जाते हैं संस्मरणों में मुझे लिखे गये ख़त या हालांकि पहले जो लोग बौद्धिक थे वो इसे बत्तमीज़ी समझते थे..इसलिए कि ख़त को एकदम पर्सनल है आप जो हमसे कह रहे हैं या जो हम आपसे कह रहे हैं यह निहायत पर्सनल है

प्रश्न-यह सार्वजनिक नहीं होना चाहिए

उत्तरः क्योंकि पता नहीं कौन सी ऐसी बात है जो आप नहीं चाहते कि लोग जाने और वह जगजाहिर हो जाये..

प्रश्न-अब क्या लोगों का नजरिया बदला है जबकि अब पत्र लिखने की रिवाज खत्म हो चला है

उत्तर : अब तो इसलिए रखना चाहिए कि कोई लिखता ही नहीं है यादगार के तौर पर जमा कर लेना चाहिए ये आखिरी हैं अब जो नयी जनरेशन आयेगी हम जो पुराना एक खत देखकर जिन्हें हमारे बच्चे कबाड़ समझेंगे रद्दी समझेंगे हम जो उसमें खुशबू महसूस करते हैं आने वाली जनरेशन को महसूस नहीं होगा..

प्रश्न-क्या उन्हें अब किताबों की शक्ल में आ जाना चाहिए..

उत्तरः हां, बिल्कुल आ जाना चाहिए वरना ये गायब हो जायेंगे.हो सकता है कि यह ख़त पढ़ने के बाद नयी नस्ल लौटे ख़तों की ओर क्योंकि हर चीज़ अपनी असलियत की तरफ़ लौटती है। अब लिखने को ही ले लें लोग कहने लगे हैं कि साहब हम तो लेपटाप पर ही लिखते हैं लेपटाप पर ख़त नहीं लिखे जा सकते..जो आप किसी को ख़त में लिख देते है वह लेपटाप पर नहीं लिख पायेंगे क्योंकि यह तो अचानक किसी को खयाल आता है कि हमें ख़त लिखना चाहिए..कभी कभी आप बहुत नींद में होते हैं तब भी आप दो सेंटेंस तीन सेंटेंस लिख देते हैं जो आपके जीवन के लिए यादगार हो सकते हैं..

प्रश्न-इसका आशय यह हुआ कि केवल पत्रों के मामले में लोग नहीं लौटेंगे बल्कि यह जो साहित्यिक रचनाओं की पाण्डुलिपियों की दुनिया है वह भी फिर से आबाद होगी..अभी तो यह हो रहा है कि लोग कम्प्यूटर लेपटाप और ग़ज़ल और शेर तो मोबाइल में एसएमएस में भी लिखा जा रहा है उनकी पाण्डुलिपियां कोई खोजे तो नहीं मिलेंगी..

उत्तर-जो लोग अपने दादा की परदादा की अम्मा की पत्रावलियों को छुपा कर रखते थे या बक्से में बिछाकर रखते थे अब वह खजाने नहीं होंगे..लोग समझते थे कि यह हमारे जीवन की कुल पूंजी है..जब जी घबराता था तो उन्हें निकाल कर पढ़ने लगे..अभी पिछले दिनों एक किताब पर मैंने रिव्यू लिखा है वो कमाल अमरोही की बेटी की किताब पर उनकी किताब आयी है उसमें कमाल अमरोही की इकलौती बेटी ने उसमें संस्मरण लिखे हैं कुछ लेटर उन्होंने वैसे ही छाप दिये हैं जो उनके पिता ने उन्हें लिखे थे..बहुत खूबसूरत हैं बहुत सी चीज़ें साफ होती हैं कहा जाता है कमाल साहब बहुत खुरदुर आदमी थे लेकिन इससे मालूम होता है कि एक बाप का दिल क्या होता है..इसलिए इसकी हिफाजत करनी चाहिए

प्रश्नः अभी थोड़ी देर पहले आपने कहा कि आपने सोनिया गांधी पर भी नज़्म लिखी है तो क्या आप उन्हें व्यक्तिगत तौर पर पसंद करते हैं या आपको लगता है कि उनका राजनीति की पद्धति आदर्श है..उससे आपकी सहमति है..

उत्तर-नहीं नहीं..हुआ यह था कि जिस दिन सोनिया गांधी इलेक्शन जीतीं थीं रायबरेली से और ये था कि हम उस दिन भिवंडी में थे बाम्बे..तो हमसे दोस्तों ने कहा कि कल तो आप प्राइममिनिस्टर के इलाके के आदमी हो जायेंगे क्योंकि आप रायबरेली के हैं तो हमने कहा कि हम तो प्राइममिनिस्टर के आदमी तो पैदाइशी हैं हमने वोट ही दिया है प्राइम मिनिस्टर को सुपर प्राइम मिनिस्टर को हमारे यहां तो फिरोज गांधी खड़े होते थे इंदिरा गांधी खड़ी होती थीं सोनिया गांधी भी खड़ी होती हैं लेकिन हमने कहा कि देखियेगा सोनिया गांधी रिफ्यूज कर देंगी वे प्राइममिनिस्टर नहीं बनेंगी..अच्छा दूसरे दिन ये हो गया

प्रश्न-आप अपने इलाके के पानी की तासीर जानते हैं कि क्या हो सकता है..

उत्तरः हां तो उन्होंने मना कर दिया और दोस्तों ने कहा कि आपको कैसे अंदाजा था कि सोनिया प्रधानमंत्री नहीं बनेंगी वो सोचते थे कि हम पोलिटिकल बहुत अवेयर होंगे..मैंने कहा कि मैं इसलिए जानता हूं क्योंकि मैं अपने शहर का सबसे छोटा आदमी हूं और इस तरह के बहुत से मौके आते हैं जब सम्मान अवार्ड मिलने की बात होती है तो मैं कहता हूं कि मुझे नहीं चाहिए फिर वो हमारे शहर की सबसे बड़ी औरत हैं फर्स्ट लेडी..तो उनको इनकार कर देना चाहिए था..तो जब उन्होंने इनकार कर दिया तो मेरी निगाह में उनकी शख्सियत बहुत बलंद हुई। मैंने सोचा कि इसका मतलब है कि हमारे मुल्क में प्राइममिनिस्टर बनने लायक 105 करोड़ लोग हैं..लेकिन अगर त्याग और बलिदान की जरूरत पड़ जाये तो हमें आदमी इम्पोर्ट करना पड़ेगा..ऐसे लोग हमारे मुल्क में अब पैदा नहीं होते। हर कोई बनना चाहता है मना करना नहीं चाहता। उन्होंने रिफ्यूज किया तो एक रायबरेलियन होने के नाते मुझे बहुत अच्छा लगा। ठीक है साहब जैसे मलिक मोहम्मद जायसी ने इनकार कर दिया था जब शेरशाह सूरी ने उन्हें बड़ा सम्मान देना चाहा था..तो मुझे अच्छा लगा उनका इनकार तो फिर मैंने उन पर एक नज़्म कही। मजे की बात यह है कि मेरी यह नज्म सोनिया गांधी के ड्राइंगरूम में लगी है लेकिन हमारी कभी मुलाकात सोनिया गांधी से नहीं हुई। एक बार अहमद पटेल साहब ने मुझसे कहा भी था हैरत है कि आपकी मुलाकात सोनिया मैडम से नहीं है। मैंने कहा कि ऐसा है कि रोज सौ-डेढ़ सौ लोग उनसे मिलते हैं। हम भी मिल लेंगे तो इक सौ इक्यावन हो जायेंगे। अगर मैडम कभी हमसे मिलने आ जायें तो यह एक न्यूज है। या मेरी कोई ऐसी ज़रूरत पड़ जाये तो मुझे इसकी जरूरत नहीं पड़ी..सियासत से मेरी कोई दिलचस्पी नहीं रही है

प्रश्नः तो यह जो इनकार करने की ताकत है या फिर जज्बा है वह रायबरेली के लोगों में है जो महत्वपूर्ण है..आपने उसी जज्बे के तहत उत्तर प्रदेश उर्दू एकेडमी के अध्यक्ष पद से कुछ ही दिनों में इस्तीफा दे दिया था..इस्तीफे की क्या वजह थी..

उत्तर-हम जितना कर सकते थे हमने किया..मुझसे उत्तर प्रदेश के मंत्री आजम खां ने बहुत रिक्वेस्ट की थी..मैंने उनको बहुत बार मना किया था और कहा था कि देखिये यह जो ओहदा है वह हमारी परसनाल्टी के हिसाब से बहुत छोटा है..उसमें मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। लेकिन उन्होंने कहा कि यदि आप आ जायेंगे तो उर्दू एकेडमी की हालत दुरुस्त हो जायेगी, हालात दुरुस्त हो जायेंगे। हमने कहा कि तो ठीक है इसे करके देखा जाये। जब हम बंगाल में रहते थे तो हम 22 बरस तक वहां की उर्दू एकेडमी की गवर्निंग बॉडी के मेम्बर थे। मो.सलीम जो जो हमारे दोस्त थे बल्कि छोटे भाई की तरह थे उन्होंने दबे शब्दों में हमसे कहा था कि हमें उर्दू एकेडमी का चेयरमैन बना दें..लेकिन हमने कहा नहीं..हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है। क्योंकि सत्ता में शायद जीवन नहीं गुजार सकते हैं। तो उत्तर प्रदेश उर्दू एकेडमी में हमने कुछ ऐसे काम किये जो मुश्किल थे। मैं अध्यक्ष की कुर्सी पर नहीं बैठता था हमने कहा कि उनकी जो आटोनोबस बॉडी है बायलाज के मुकाबिक मुख्यमंत्री उसका प्रेसिडेंट होता है मुख्यमंत्री चेयरमैन होता फिर वाइस चेयरमैन होते हैं अब अगर हम चेयरमैन बने और उस कुर्सी पर बैठें तो इसका मतलब हुआ हम मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे हुए हैं हमने सोचा कि जिस कुर्सी पर 25 बरस से मुख्यमंत्री न बैठे हों वहां हम उर्दू के लिए कोई काम नहीं कर सकते। अगर मुख्यमंत्री खुद दिलचस्पी नहीं लेंगे तो हम क्या कर सकते हैं। यह है कि हमें लालबत्ती मिल जायेगी नेता लोगों में घुसने का और ट्रांसफर पोस्टिंग का धंधा करने का अवसर मिल जायेगा..तो कुछ चोरी चमारी कर लें कागज बेच लें जो होता है..तो न हमारी नीयत खराब है और हम अपना खाते कमाते हैं..खाते कमाते न भी हों तो हमें यह सब नहीं करना है..हमने कहा कि जब मुख्यमंत्री आकर सीट पर बैठेंगे तो हम बैठेंगे..हमने कहा हम लालबत्ती नहीं लेंगे और गाड़ी है हमारे पास वह भी नहीं चाहिए। यहां भी करते हैं लोग पर यहां पश्चिम बंगाल उर्दू एकेडमी में चापलूसी बहुत ज्यादा है। यहां हर मामले में वो लोग ज्यादातर कामयाब हो जाते हैं जो सत्ता के सिलसिले में ज्यादा..यूपी उर्दू एकेडमी हर साल जो बूढ़े और रिटायर्ड या बीमार साहित्यकार हैं उन्हें हर माह एक हजार रुपये महीना की सहायता देती थी हमने सेक्रेटरी को बुला कर कहा कि याद एक हजार रुपये में तो बढ़िया जूता भी नहीं आता। हमने कहा कि इसे पांच हजार कर दो..तो कहने लगे कि बजट नहीं है तो हमने कहा कि चलो फिलहाल दो हजार कर दो..साथ ही हमने यह भी कर दिया कि यह साहित्यकार के मरने के बाद नहीं हो जायेगा बल्कि यह वजीफा ट्रांसफर हो जायेगा उसकी बिधवा को..हम यह नहीं चाहेंगे कि शायर..कवि .पत्रकार के मरते ही वह बर्तन मांजने का काम ढूंढने लगे। हमने प्रपोजल रखा कि जो आइकान की हैसियत रखते हैं साहित्य में उर्दू वाले कम से कम पूरे यूपी के पांच सौ लोग उनका लाइफ इंश्योरेंस होना चाहिए..यह सब हम कर रहे थे इसी बीच यूपी के एक शायर हैं कमाल मोहम्मद जायसी...उनका शायरी का बहुत बड़ा बैकग्राउंड भी है वो बाम्बे में एडमिट थे डायलिसिस पर थे तो उनकी अप्लीकेशन आयी कई लोगों के फोन में आये कि उनकी मदद होनी चाहिए हमने सेक्रेटरी को बुलाकर कहा कि पच्चीस हजार भेज दो तो उन्होंने कहा कि साहब 10 हजार हो सकता है हमने कहा कि वह मामूली बीमार नहीं है डायलिसिस पर है..तो हमें कहा कि इसके लिए मीटिंग बैठेगी...लेकिन अभी गवर्निंग बाडी बनी नहीं है वह भी मीनिस्टर बनायेगा..तो हमारा कोई रोल नहीं है तो हमारी कोई जरूरत भी नहीं है 25 हजार हम नहीं भिजवा सकते तो यहां बैठने का हमारा कोई मकसद नहीं है मैं छोड़कर चला आया..मेरा कई सामान भी वहां छूट गया मैं उसे लेने भी नहीं गया मैंने कहा कि जब हम किसी मरते शायर की 25 हजार से मदद नहीं कर सकते तो लानत है ऐसी लालबत्ती और मिनिस्टर रैंक पर। हकीकत यह है कि न मुख्यमंत्री कबूल कर रहे थे ना उनके पिता जी मुलायम सिंह यादव। फिर भी हमने इस्तीफा वापस नहीं लिया।

प्रश्नः आपने घोषित तौर पर सोनिया गांधी पर नज़्म लिखी फिर भी मोदी सरकार के दौर में आपकी सरकार का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला..यह कैसे हुआ..क्या इसका राजनैतिक फायदा नुकसान महसूस किया..
उत्तरःअगर मुझे राजनैतिक फायदा उठाना होता तो सोनिया गांधी के दरबार में हम अप्लीकेशन लेकर खड़े हो जाते तो हमें इस तरह के दस अवार्ड मिल जाते...यहां यह बताना चाहूंगा कि मेरी नज़्म में सोनिया गांधी की कोई पोलिटिकल बात नहीं है एक बहू का बचाव, एक औरत का सम्मान है..शायर होने के नाते हमारे ताल्लुक-मरासिम सबसे हैं हमारे खास दोस्त हैं तरुण विजय, जो पांचजन्य के एडिटर रहे हैं उन्होंने मुझे बहुत बार छापा। उन्हीं की वजह से मैं आडवाणी जी के साथ सिन्धु नदी गया था। नज्म की थी सिन्धु दर्शन पर पांचजन्य में छपी थी..ये राम माधव वगैरह सब मुझे पहचानते हैं..आम लोग भी जानते हैं कि हम किसी पार्टी वार्टी के आदमी नहीं हैं। हम अपनी तरंग में जिन्दा रहते हैं। हमने सोनिया पर नज़्म लिखी पर उनसे मिलने नहीं गये..हमें कोई सत्ता लोभ नहीं है। आडवाणी जब डिप्टी प्राइममिनिस्टर थे उन्होंने कहा था कि जब दिल्ली आयें तो मुझसे मिलें मैं उनसे मिलने कभी नहीं गया। रायबरेली के लोग अपनी तरंग में रहते हैं वे सिटिंग प्राइममिनिस्टर को 77 हजार वोट से हरा देते हैं..तरुण विजय ने हमारी दोस्ती पर लिखा था कि मुनव्वर राना चाहें तो हम अपनी पार्टी छोड़ सकते हैं..हम अपनी जात बदल सकते हैं.यह दुतरफा है ऐसी मोहब्बत हम भी उनसे करते हैं...आज यह तय नहीं हो पाया कि हम उनसे ज्यादा मोहब्बत करते हैं या वो हमसे ज्यादा मोहब्बत करते हैं। वो जब पाकिस्तान गये थे तो वहां से वे हमारी पत्नी के लिए रेहल लेकर आये..जब आरएसएस का एक आदमी पाकिस्तान से हमारी बीवी के लिए कुरान शरीफ रखने के लिए रेहल लेकर आता है..।

प्रश्न--गोर्की के उपन्यास में मां एक केन्द्रीय चरित्र है उन्होंने साहित्य में मां को जो महत्व दिया है..वह उसके पहले व उसके बाद किसी ने नहीं दिया..इस सिलसिले में आप दूसरे लेखक हैं जिन्होंने अपनी रचना का केन्द्र मां को बनाया है और उन पर तमाम शेर कहे हैं जिनका कोई सानी नहीं..आपको मां को केन्द्रीय भूमिका देने का खयाल कैसे आया..ग़ज़ल के केन्द्र में तो महबूबा होती है..

उत्तरः गोर्की को तो आनेस्ट्ली मैंने पढ़ा ही नहीं। जब रशियन लाबी का हमारे हिन्दुस्तान पर प्रभाव था तो हम समझते थे कि यह खुदा को मानने वाले ही नहीं हैं ..जब हम कलकत्ता में हायर सेकेंडरी मोहम्मद जान से पास किया था हमारा नाम उमेश चंद्र कालेज में लिखाया गया तो वहां जो मेरे बंगाली दोस्त थे वे कहते थे कि जब हमारा बंगला साहित्य अंग्रेजों से पंजे लड़ा रहा था तब तुम्हारी उर्दू ग़ज़ल वेश्या के कोठे से उतर रही थी तो मुझे बुरा लगता था लेकिन मैं सोचता था कि बात सही है। हमारी उर्दू ग़ज़ल में आंख, कान, नाक, बाज़ू आदि पर बातें होती थीं तो बहुत ज्यादती हो गयी उर्दू शायरी में औरत कच्चे गोश्त की दुकान हो गयी जैसे कसाई की दुकान में बकरा उल्टा लटका रहता है वैसे औरत लटकी हुई है। हमने सोचा कि इसे बदला जाये एक मामूली शक्लोसूरत की औरत जब महबूबा हो सकती है तो मेरी मां मेरी महबूत क्यों नहीं हो सकती.जो शब्द कोश हैं हिन्दी उर्दू में उसमें लिखा है कि ग़ज़ल का अर्थ है महबूब से बातें करना लेकिन मेरी सोचता था कि नहीं जब एक मामूली औरत मेरी महबूबा है तो मेरी मां मेरी महबूबा क्यों नहीं हो सकती...जब मैंने शेर कहे तो लोगों ने आलोचना शुरू की..जब तुलसीदास के महबूब भगवान राम हो सकते हैं तो मेरी महबूब मेरी मां क्यों नहीं हो सकती मैं अड़ा रहा आलोचना होती रही मैंने उसकी परवाह नहीं की..आज खुशी है कि पूरे हिन्दुस्तान में किसी में ग़ज़ल लिख ली जाये गुजराती में, कन्नड में मराठी में वहां ये रिश्ते मौजूद हैं मैंने जो रिश्ते बोये थे मुझे खुशी है कि उसकी फसल आ रही है। कुछ नया करने की इच्छा भी थी और यह भी कि शायरी से कुछ फायदा भी हो। मां किताब गुरुमुखी, गुजराती सहित कई भाषाओं में आ गयी...यह मुहावरा बन गया है कि माएं अपने बच्चों से कहती हैं कि अगर मां से मुहब्बत करनी नहीं आती है तो जा मुनव्वर राना से सीख। ऐसा नहीं है कि हमने सिर्फ शायरी की है बल्कि मां से मोहब्बत भी की है जैसी किसी महबूबा से की जाती है। जैसे उनसे लड़ना झगड़ना। आज भी हम उनको डरा धमका कर रखते हैं पिछले दिनों उनकी तबीयत खराब हो गयी थी तो वो छोड़ देती हैं दवा खाना, खाना खाना बदपरहेजी करती हैं नहाना धोना तो हमारी बिटिया शिकायत करती हैं कि बदपरहेजी कर रही हैं वे 80 साल से अधिक की हो गयी हैं..तो हम उनसे जाके कहते हैं कि देखिये एक बात समझ लीजिए आप जाने की जल्दी मत कीजिए क्योंकि मैं आपकी पहलौठी आलौद हूं अगर आप जल्दी कीजिएगा तो आपके पीछे पीछे बोरिया बिस्तर बांध के मैं भी पहुंच जाऊंगा बस वे एकदम से खुश हो जाती हैं दवा खायेंगी नहायेंगी धोयेंगी..पोतियों से बोलेंगी कंघा कर दो ए कर दो वो कर दो क्योंकि औरत सब बर्दाश्त कर सकती है बेटे की जुदाई बर्दाश्त नहीं कर सकती कि ये मर जाये...तो मुझे अच्छा लगता है कि जब लोग कहते हैं कि मैं आपकी किताब पढ़कर रात भर रोया और सुबह जाकर मां के सामने सरेंडर कर दिया चूंकि हम ऐसे मुल्क में रहते हैं जहां गंगा को मां कहते हैं जमुना को मां कहते हैं सरस्वती को मां कहते हैं यहां तक कि हम गाय को भी मां कहते हैं अरजा ए मुरव्वत, अजरा ए मुहब्बत धर्म से हटाकर भी आप देख सकते हैं तो उस मुल्क में अगर ओल्ड एज होम बने उस मुल्क में अगर मांएं सड़क पर मारी मारी फिरें तो इसका मतलब यह है कि पहले हम गाय को मां समझते थे अब हम मां को भी गाय समझने लगे हैं...फ्लैट लाइफ में कि अब दो कमरे हैं गांव से अम्मां कहा से आ गयीं ..अगर हम ओल्ड एज होम की एक ईंट भी गिरा सकें तो हमारा जीवन सार्थक रहेगा..मैं खुश हूं इस मामले में और इधर बीमार भी हूं जितना मुझे अल्ला ने काम दिया होगा शायरी के हवाले से उतनी मैंने कोशिश कर डाली आगे नसीब है.. ऊपर वाले की मर्जी है

प्रश्न -साहित्य के प्रति दिलचस्पी कैसे पैदा हुई..किन साहित्यकारों से प्रेरणा ली..और ग़ज़ल में तो गुरु रखने की परम्परा है तो आपको गुरु कौन हैं..

उत्तरः मेरे परिवार में सब मौलवी लोग थे..सब दाढ़ी वाले..तो शायरी वहां पाप मानी जाती है..मतलब फिजूल काम। तसव्वुर में जी रहे हैं...चांद को देखकर महबूबा का याद कर रहे हैं, जबकि वह काली कलूटी है लेकिन शायरी का जो शौक है वह इसकी बेसिक वजह कलकत्ता में आना हुआ। जब कलकत्ते में हम 1968 में आये थे, उस वक्त हमारी उम्र 13-14 साल रही होगी। मोहम्मद जान स्कूल में मेरा 8वीं में नाम लिखाया गया। उससे पहले दो साल हम लखनऊ में थे..अपनी दादी के यहां..मतलब दादी की बहन के यहां। वहां थोड़ा सा माहौल रहा होगा। उस जमाने में लखनऊ का माहौल अच्छा था। अभी वहां जितनी पोलिटिकल पार्टियां हो गयीं हैं, लेटरहेड पार्टियां उतनी नहीं थीं। उस जमाने में कविता का शायरी का बड़ा जोर था..तो हम सुनते थे। यहां जब कलकत्ते में आये तो यहां इंकलाब भी था...शायरी भी थी और शायरी से मुहब्बत करने वाले लोग भी थे। यहां लोगों के साथ उठना-बैठना हुआ तो कुछ शेर कहने लगे। उन दिनों मोहम्मद जान में मैगजीन छपती थी 1968-79-70 में मुनव्वर ए आतिश नाम से हमारी पहली कविता छपी थी। उन दिनों हम मुनव्वर ए आतिश नाम से हमारी कविताएं छपती थीं। यहां एक शायर थे मेरे वालिद के दोस्त भी थे एजाज अफजल। हम उनको चचा भी कहते थे..उनसे हमने इस्लाह भी ली। शुरू में उन्हीं के साथ हम बैठते थे। एक बार हम लखनऊ गये थे ट्रांसपोर्ट के काम से तो वहां वाली आसी साहब से मुलाकात हुई। उस ज़माने में मैं मुशायरे आदि में नहीं जाते थे। शायरी का भी बहुत ज्यादा शौक नहीं था। उन्होंने कहा कि आप मुनव्वर राना नाम से लिखो..और समझाया कि शायरी आपको फायदा पहुंचायेगी। आप ट्रांसपोर्ट के लिए नहीं बने हैं आप शायरी के लिए बने हैं। ट्रांसपोर्ट की एक उम्र हो सकती है शायरी की कोई उम्र नहीं होती। मैंने शुरू सो बड़ों की इज्जत की और जब मुझे साहित्य अकाडमी अवार्ड मिलने की घोषणा की गयी तो मैंने पहले इंटरव्यू में यह कहा कि यह इनाम मुझे इसलिए नहीं मिला है कि मैं बहुत अच्छा शायर हूं बल्कि इसलिए मिला है कि मैंने अपने बुजुर्गों की जूतियां बहुत सीधी की थीं। उनकी जूतियों की जो खुशबू मेरे हाथों में बसी हुई है कि जब भी मैं कुछ लिखता हूं तो वह अच्छा हो जाता है। तो मेरी कलम का कोई कमाल नहीं, उस खुशबू का है जो मेरी उंगलियों में बसी हुई है। नीरज जी से लेकर उदय प्रताप तक और हमारे यहां खुमार से लेकर फराग तक..जितने भी बड़े बड़े लोग हैं उनकी जूतियां मैंने सीधी की हैं। उसकी का शायद सिला हो..मुहब्बत करने वाले लोग मिले बाकी तो वो आलोचना जो होती है कंटेम्परी जो झगड़े होते हैं वो तो हैं ही। वो न हो तो फिर मजा न आये। हमने कभी भी इस पर ध्यान ही नहीं दिया किसी ने यह कह दिया किसी ने वह कह दिया। कभी किसी ने हमारे खिलाफ कोई लेख लिख दिया हो तो हम जवाब दें यह हमारी शान के खिलाफ था। हम कहते भी थे कि बंदरों की बोली पर अगर शेर घूमने लगे तो उसकी गर्दन टूट जायेगी।

प्रश्न--जबकि यह कहा जाता है कि कवि-सम्मेलनों और मुशायरों में सस्ती रचनाएं पढ़ी जाती हैं और उनका स्तर दिनों दिन गिरता जा रहा है..ऐसे में आप मुशायरों में खूब जाते हैं तो उसके संदर्भ में साहित्य एकादमी के सम्मान को किस रूप में देखते हैं..

उत्तरः हमें मिला सम्मान दरअसल स्टेज की कविता का सम्मान है। चाहे वह हिन्दी की हो या उर्दू की। नागपुर में 22 जबानों में आकाशवाणी ने एक मुशायरा कराया था सर्वभाषा, रेडियो वालों ने मुझे उर्दू के लिए बुलाया था..मैंने कहा मैं नहीं जाऊंगा बहुत कम पेमेंट है मैं ट्रेन से नहीं जाऊंगा जहाज से जाऊंगा..तो यहां कलकत्ता आकाशवाणी के प्रोग्राम एज्युकेटिव ने कहा कि दादा चले जाइए यह हमारी प्रतिष्ठा का प्रश्न है अब तक हमसे केवल ही भाषा का कवि मांगा जाता था वह है बांग्ला का आजादी के बाद यह पहली बार हुआ है कि बांग्ला के साथ-साथ उर्दू का भी इनवीटेशन आया है। यह हमारे लिए भी सम्मान का विषय है। हम वहां गये तो वहां सभी भाषाओं के लिए इंटरप्रेटर था..जब हमारा नम्बर आया तो हमारी इंटरप्रेटर थी वह कहने लगी अब मुनव्वर राना अपनी कविता पढ़ेंगे और वे ऐसे कवि हैं जिनकी कविता के लिए इंटरप्रेटर की जरूरत नहीं है। तो मेरे जो उस्ताद थे वाला आसी वे कहा करते थे कि हमारे बुजुर्गों ने जो उर्दू को टोपी पहना दी, दाढ़ी रखवा दी उसे काफी नुकसान पहुंचा। उर्दू जो हिन्दोस्तानी जुबान थी उसमें फारसी को इतना दाखिल कर दिया कि उसने उर्दू को नमाज पढ़वा दिया जाये उसे मंदिर में न जाने दिया जाये। तो इससे बचो।

प्रश्नः राजभाषा हिन्दी वाले भी यही कर रहे हैं हिन्दी में संस्कृत को ठूंस रहे हैं..
उत्तर-हां वे भी वही कर रहे हैं। अगर जबान को बरबाद करना है तो उसे मुश्किल कर दीजिए ..कामन लेंग्वेज है उसमें हिन्दोस्तानी ज्यादा बढ़ती जा रही है जो आप अखबार में लिखते हैं उसे सब समझ लेते हैं मगर जो साहित्यकार लिखते वह आम लोगों को समझ ही नहीं आता। उससे भाषा की खूबसूरती खत्म हो रही है। तो हमें साहित्य अकाडमी अवार्ड घोषित हुआ तो हिन्दी अखबारों ने जितना हमें कवर किया उतनी तरजीह रमेशचंद्र शाह को नहीं दिया। हमने कभी यह तय करके नहीं लिखा कि हम हिन्दी के शायर हैं के उर्दू के हैं। हम कहते हैं व्हाट इज हिन्दी ग़ज़ल। हिन्दी ग़ज़ल इज नथिंग। ग़ज़ल का मतलब है महबूब से बातें करना। चाहे जिस जबान में हो। अगर हमने अपने महबूब से बातें कीं तो क्या कहेंगे कि हमने बांग्ला में अपने महबूब से बात की है। हम तो शायर हैं। हमारी बदनसीबी है कि हमारी हमारी अंग्रेज़ी अच्छी नहीं है वरना हम अंग्रेज़ी के शायर होते। बहुत मालदार होते। चेतन भगत की तरह हमारी खूब किताबें छपतीं सत्तर लाख..एक करोड़।

प्रश्नः तो आप अंग्रेजी में ग़ज़ल लिखते..सानेट नहीं लिखते..

उत्तरः ग़ज़ल नहीं लिखते.. सानेट लिख रहे होते उस विधा में चले जाते हम..

प्रश्नः जैसे मराठी में ग़ज़ल लिखी जाती है, हिन्दी, भोजपुरी और पंजाबी में ग़ज़लें लिखी जाती हैं लेकिन बांग्ला में ग़ज़लें नहीं लिखी जातीं..एक काजी नजरुल इस्लाम को छोड़कर. क्या कारण हो सकता है

उत्तरः लिखी जाती हैं रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लिखी थीं..उर्दू में लिखीं थीं टैगोर ने।

प्रश्नः बांग्ला में नहीं लिखीं

उत्तरः नहीं बांग्ला में नहीं लिखीं उर्दू में है

प्रश्नः बांग्ला में क्यों नहीं है ग़ज़ल उसके क्या कारण हैं

उत्तरः बांग्ला में ज्यादातर शायरी इंकलाब की है। उस वक्त तक ग़ज़ल में रिवोल्यूशन की गुंजाइश नहीं थी। तेरी आंखें, तेरी जुल्फ़ें, तेरी बातें..इसका बांग्ला शायरी से कोई मेल नहीं था। सिर्फ टैगोर जो थे उनके यहां शायरी रोमेंटिक थी। उन्हें उर्दू की जानकारी थी। जब मन आया जोश मलीहाबादी को बुला लिया, सरोजनी नायडू को बुला लिया। उन्हें कहा हमने ग़ज़ल कही है ग़ज़ल सुन लो। असल में जो काफिया मिलाया जाता है न वो बांग्ला में नहीं आ सकता। असल में ट्रांसलेशन जो है वह कश्मीरी शाल का उल्टा हिस्सा है। जैसे आप अपने महबूब से कहते हैं कि आज तो तुम क़ातिल लग रही हो..तो खुश होती है। अगर आप कहते हैं कि तुम आज मर्डरर लग रही हो तुम हत्यारन लग रही हो तो वह घर से बाहर निकाल देगी..अब आप क़ातिल के बांग्ला में कैसे लायेंगे। किसी पुराने शायर का शेर है-यूं पुकारे हैं मुझे कूचा एक जाना वाले, इधर आ बे ओ चाक गिरेबां वाले..इसे हम कैसे ट्रांसलेट करेंगे। खालिस हिन्दुस्तानी शब्द हैं..हर जबान की एक खासियत होती है..बांग्ला में एक शब्द है ताई न की..इसका किसी दूसरी भाषा में तर्जुमा हो ही नहीं सकता क्योंकि बंगाली जब यह बोलता है तो पूरे जिस्म से बोलता है। जैसे संस्कार शब्द का उर्दू में रिप्लेसमेंट है ही नहीं, उसी तरह पुनर्जन्म का नहीं है। इसलिए आदमी सोचता है कि हम इसमें उतना अच्छा नहीं कर पायेंगे..यही समझ लीजिए कि बड़ा वकील छोटा केस लेता ही नहीं है, जिसमें हार जाने का खतरा हो। अक्लमंदी नहीं है। देखिये जिस पर आपको कमांड है, जिस पर आपने उम्र खर्च की है आपको वही लिखना चाहिए...जैसे 63 साल की उम्र में हमें शौक हो जाये कि हम बिल्डर हो जायें तो हम नहीं हो सकते हैं..हमें ये शौक हो जाये कि हम नेता हो जायें तो हम नहीं हो सकते हैं..हमको जो कमाना है इसी में कमाना है। फिर भगवान ने हमारे लिए लिख दिया है कि एक रात का हम बहुत कमायेंगे तो एक लाख कमायेंगे...बहुत ज्यादा कोई देगा तो दो लाख दे देगा..एक लाख तो हम कमाते ही हैं एक रात के..पांच दिन पहले हम, कुमार विश्वास, अंजुम रहबर थे तीर्थांकर यूनिवर्सिटी में महावीर यूनिवर्सिटी में..लेकिन हम सोचें कि हमें दस लाख मिल जाये तो नेवर हमें नहीं मिल सकते। क्योंकि हमारे साथ यह लिख दिया गया है क्योंकि हमें एक लाख के साथ इज्जत एक करोड़ की मिल रही है।

प्रश्न-बाकी चीजें वहां कम्पंनशेट हो रही हैं..

उत्तर-हां...हमारा बेटा भी इसे बेचकर खा सकता है हमारा पोता हमारे खानदान के लोग इसे बेचकर खा सकते हैं..आई एम फ्राम द फेमिली आफ मुनव्वर राना..वही महान कवि जिसने मां पर लिखा है..कल को कुछ भी हो सकता है कुछ नहीं कहा जा सकता..मैंने कहीं कहा था कि मैं नहीं चाहता कि शहर के चौराहे पर मेरा स्टेच्यू बने बल्कि मैं यह चाहता हूं कि यह सवाल उठे कि इनके स्टेच्यू शहर के चौराहों पर लगाये क्यों नहीं गये..आज हम आपको जितने छोटे दिखायी देते हैं कल इसके दसगुना हम दिखायी दें..यह भी हो सकता है कि हम जो आज हैं वह कल खत्म हो जायें..हमने एक शेर कहा है कि-‘यह भी मुमकिन है कि मैं फिर न मयस्सर हो पाऊं..यह भी मुमकिन है कि कल तक मेरी कीमत गिर जाये’..कल हो सकता है कि यह कहा जाये कि मेरा अखिरी इंटरव्यू सन्मार्ग को दिया गया था ..कुछ भी हो सकता है एक शायर का एक कवि का मूल्यांकन उसके मरने के बाद किया जाता है..

प्रश्न-आपने जैसा कि अभी कहा कि मुशायरों व कवि सम्मेलनों में आपको अमूमन एक लाख मिल जाते हैं लेकिन भारत की दूसरी भाषाओं में ये ट्रेंड नहीं है..

उत्तर-सर इसका बाजारीकरण हुआ है..हालांकि यह खराब हुआ..हमारे यहां उर्दू में इतना पैदा नहीं था हम आये तो इतना हो गया, हमारे आने के बाद हुआ..उर्दू में इतना होने का तसव्वुर नहीं था..दरअसल ऐसा हुआ कि हम भागे तो लोगों ने कीमत बढ़ाई।

प्रश्नः इनकार करने से कीमत बढ़ गयी

उत्तरः हां..इनकार करने पर हमेशा कीमत बढ़ती है..आप चाय से इनकार कर देंगे तो नाश्ता आपके लिए आयेगा..दुनिया में इनकार की कीमत हमेशा ज्यादा है। बंगाल उर्दू एकडमी है जिसके हम 22 साल मेंबर रहे..करीब 16 साल तक गवर्निंग बॉडी के सदस्य रहे..पावरफुल दंबग, कभी उनकी मीटिंग में नहीं गये..इस बीच में हमारी नौ किताबें छपीं, हमने कोई किताब इनाम के लिए नहीं जमा की। हमने कहा नहीं नहीं ये क्या हमारी किताब पे इनाम देंगे, इतना पेशेंस कहां होता है और देखिये हमें साहित्य एकेडमी अवार्ड मिला। यह मिसाल है कि जिसकी गवर्निंग बॉडी के हम मेम्बर हों, जिस सरकार का मिनिस्टर हमारा दोस्त हो हमने कभी किताब नहीं जमा की..तो यह खुशी होती है कि खुद चलकर इनाम हम तक पहुंचे। अगर हम मांगे तो कम से कम हम अंदर से खुश नहीं होंगे यह कि यह हमें मिला।

प्रश्न-ज्यादातर उर्दू लेखकों ने फिल्मों में हाथ आजमाया है आपने उधर का रास्ता क्यों नहीं पकड़ा..क्या फिल्म इंडस्ट्री ने आपको आकर्षित नहीं किया..

उत्तरः पिछले दिनों ने लता जी ने हमसे फरमाइश की कि हम मां पर एक गीत गाना चाहते हैं..तो हमने लिख दिया तो उन्होंने कहा कि हम बाबा पर गाना चाहता है..हम अपने बाबा पर गाना ट्रिब्यूट करना चाहता है हमने गीत लिख दिया तो उन्होंने फोन किया कि दादा आपने गीत में जो लिखा था वैसा तो कुछ हमारे साथ हुआ नहीं क्योंकि हमारा बाबा बहुत जल्दी खत्म हो गया था..बहुत बीमार रहता था..जैसा आपने लिखा है कि मैं उंगली पकड़ कर स्कूल गयी वैसा तो कुछ हुआ नहीं हमारे साथ..बाप बीमार रहता था..बहुत जल्दी मर गये पिताजी.बहुत सीधे थे। बहुत कम उम्र में गाने बजाने का शौक हुआ..तो मैंने कहा कि मैंने तो कामन फैक्टर पर लिखा है जो प्रायः होता है सबके साथ..तो उन्होंने कहा कि आपने हमारी बायोग्राफी नहीं पढ़ी..तो खैर मैंने उसे रिप्लेस किया..अन्नू मलिक किसी जमाने में बहुत मेरे पीछे पड़े हुए थे कि तुम बंबई आ जाओ तो हम फिल्म इंडस्ट्री को दूसरा साहिर दे दें..मैंने कहा कि मेरी चार-चार पांच-पांच लड़कियां हैं..मेरा एक इस्टेब्लिश काम है ट्रांसपोर्ट का कलकत्ते में..अब इसको छोड़ के दूसरी दुनिया बसाना अब उसकी एज नहीं रही। हमने कहा कि बंबई उनके लिए है जो जवान लोग हैं। बुढ़ापे में यह भागना दौड़ना मुझसे हो नहीं सकता। अभी भी बंबई में बहुत से दोस्त हैं और फरमाइशें करते रहते हैं लेकिन वह मिजाज के हिसाब से नहीं होता।

प्रश्न- आपने अभी थोड़ी देर पहले कहा कि हो सकता है कि मेरा इंटरव्यू आखिरी हो..तो अगर आपको यह पता चल जाये कि कौन सा दिन आपकी जिन्दगी का आखिरी दिन तो उस दिन आप क्या करना चाहेंगे..कौन से काम अधूरे हैं जिन्हें चाहेंगे कि पूरा हो ले

उत्तर-हमने हमेशा यह बात कही है कि हम मरने से पहले वही हिन्दुस्तान देखना चाहते हैं जो हमने पैदा होने के बाद देखा था.हमारे मोहल्ले की जितनी भी छतें थीं वे या तो हमारी मौसी की थीं या मेरी बुआ की थीं..14-15 साल का हो गया था तब तक मुझे मालूम नहीं था कि हिन्दू क्या है और मुसलमान क्या है। हमें नहीं मालूम था कि विश्वनाथ मिठाई वाले हैं वे हिन्दू हैं या रामविलास हिन्दू हैं या सलोनी हिन्दू हैं..हम बस जानते थे कि ये चाचा हैं। यह भी नहीं जानते थे कि वे अपर कास्ट के हैं या लोअर कास्ट के हैं। पंडित हैं, अंसारी हैं या सैय्यद हैं। कसाई हैं वो मेरे बड़े अब्बा थे अब भी बड़े अब्बा हैं। हमने कहीं लिखा भी है कि हमारा बचपन बड़े आतंकवादी बुजुर्गों के बीच गुजरा है। सनीमा का पोस्टर देखने से पहले ही गाल पर थप्पड़ पड़ जाता था। थप्पड़ किसी का हो चाहे वह हिन्दू का हो कि मुसलमान का हो। तो मरने से पहले हम वही हिन्दुस्तान देखना चाहते हैं जो हिन्दुस्तान पैदा होने के बाद देखा था। यह पहली और आखिरी इच्छा है।

प्रश्न-क्या आपके पूर्वज भी विभाजन के दौर में पाकिस्तान गये.

उत्तरः मेरे वालिद नहीं गये..कहा हम नहीं जायेंगे, यहां मेरे बाप दादाओं की कब्रें हैं...

प्रश्न-क्या उन्हें नहीं जाने का अफसोस था

उत्तर-नहीं..जो चले गये उन्हें अफसोस था कि क्यों गये..मेरे चचा वगैरह गये थे वह भी जबरदस्ती गये..एक चचा हमारे पहुंचाने गये हमारी दादी वगैरह को..वहीं उनकी शादी कर दी गयी तो वहीं रह गये

प्रश्नः हालांकि आप लोगों में पुनर्जन्म की अवधारणा नहीं है फिर भी अगर जिन्दगी आपको दुबारा मिले तो ऐसी कौन सी गलतियां हैं जो नहीं करना चाहेंगे और ऐसे कौन से काम हैं जिन्हें आप चाहे जिन्दगी जितनी बार मिले हर बार करना चाहेंगे

उत्तरः हमने यही बात दुबई के स्टेज पर कही थी कि जब कुमार विश्वास ने नयी कार खरीदी लखनऊ में तो मुझे फोन किया कि सर मेरे माताजी पिताजी यहां हैं नहीं मैं चाहता हूं कि यह गाड़ी जैसे यहां शो रूम से निकले कम से कम एक किलोमीटर तक उसमें बैठ जाइये, तो मैं गया गाड़ी में बैठ के, एक कवि-सम्मेलन में गया उसके साथ बैठकर..तो मैंने दुबई में कहा कि हमारे यहां पुनर्जन्म का कंसेप्ट नहीं है अगर ऐसा कोई है तो अल्ला मियां हमेशा मुझे हिन्दुस्तान में पैदा कीजिएगा, अरब में मत पैदा कीजिएगा क्योंकि वहां लोग बहुत बारगेनिंग करने लगे हैं। जब मैं जेद्दा से दुबई आ रहा था कम्बल का पैसा ले लिया, तकिये का पैसा ले लिया..मुझे अल्ला मियां हर जनम में हिन्दुस्तान में पैदा करना। पता नहीं यह गलती है या मोहब्बत है..हमने एक शेर कहा है कि- ए खाक ए वतन तेरे मोहब्बत के नशे में, मुझ जैसा मुलसमान भी बेदीन रहा है।

प्रश्न-आपने जितने भी शेर कहे हैं सबसे बेहतरीन शेर किसे मानते हैं..

उत्तरःडाक्टर शायरी औलाद की तरह होती है सब अच्छी लगती है..कमी होती तो भी आदमी यह कहते है नहीं-नहीं उसमें यह खूबी भी है। किसी एक शेर को हम नहीं खोज सकते हैं कि ये अच्छा है। जैसे पिछले दिनों मैंने एक शेर कहा, कहीं सुनाना हो तो सुना सकता हूं-पहले भी हथेली छोटी थी, अब भी ये हथेली छोटी है। कल इससे शकर गिर जाती थी, अब इससे दवा गिर जाती है। पहले जब हम छोटे थे रज्जन बाबू चैयरमैन हुआ करते थे, उनकी किराने की दुकान हुआ करती थी उनके भांजे हैं वो मुलायम सिंह सरकार में आईएएस अफसर हैं शैलेश कृष्ण।  कभी भी हुकूमत में वे बड़े अफसर रहते हैं। उनके यहां हम जाते थे सामान लेने तो बोरे में शक्कर रहा करती थी। हम मुट्ठी मारकर भागते थे। उनका नौकर पकड़ लेता था दौड़कर के। कुछ तो भागने में गिर जाती थी कुछ तो बचपन की मुट्ठी थी..मारवार खाने के बाद जो उसमें बची होती थी खा लेते थे। तो घर पहुंचने से पहले खबर पहुंच जात थी कि चोरी कर ली है शक्कर। फिर घर में आकर मार खाते थे। तो गरज की जितना मार खाते थे उतनी शक्कर हिस्से में नहीं आती थी- तो पहले भी हथेली छोटी थी अब भी ये हथेली छोटी है। कल इससे शकर गिर जाती थी, अब इससे दवा गिर जाती है। अब ये होता है कि सबेरे काम वाली आती है या नाती पोता आता है कहते है नानू ये आपकी दवा की गोली गिरी है, तो हां बेटा रात में गिर गयी होगी, तो पूरी उम्र भर की कमाई है वह यही है।