6/08/2009

तनवीर साहब और आदित्य जी को याद करते हुए

हबीब तनवीर और ओमप्रकाश आदित्य की मौत की खबरें कुछ देर के अन्तराल में एजेंसियों पर दिखीं। मन सहसा उदास हो गया। तनवीर साहब से मुलाकात लगभग 15 साल पहले हुई थी। उन दिनों में जनसत्ता कोलकाता में स्ट्रिंगर था और रंगमंच पर भी लिखने की खासा शौक था। सो नाटक देखना, रंगकर्मियों के इंटरव्यू आदि में खूब मन लगता था। वे महानगर में कई नाटकों के साथ आये थे। उसी सिलसिले में एक दिन पूर्व वे मीडिया से बातचीत करना चाहते थे। जो जगह तय की गयी थी वह कोई होटल, रेस्टोरेंट या कोई गेस्ट हाउस नहीं था। किसी व्यक्ति विशेष का फ्लैट भी नहीं बल्कि उसकी खुली छत थी। वहीं बातचीत हुई बेतकल्लुफ और अनौपचारिक ढंग से। माहौल कुछ और इसलिए भी खुला-खुला सा था क्योंकि वहां भुने हुए काजू और जाम टकराने की तमाम व्यवस्थाएं थीं। वे छत पर अलग थलग भी बात करने के तैयार थे। सो एक जाम मैंने भी उनसे टकराया था लेकिन बातचीत कुछ खास बेतकल्लुफ ढंग की नहीं हो पायी क्योंकि न जाने क्यों वे अंग्रेजी में ही बातचीत के मूड में थे और अभ्यास की कमी के कारण मुझे अंग्रेजी बोलने में खासी दिक्कत होती है। फिर भी बातचीत हुई। शायद बेरुखी का कारण वह सार्वजनिक प्रश्न भी था कि क्या कारण है कि हबीब तनवीर और उषा गांगुली के नाटकों में कोई और कलाकार अपनी कोई इमेज नहीं बना पाता। उनकी कोई सार्वजनिक पहचान नहीं बनती हर हाल में केवल तनवीर साहब या उषा जी ही याद की जाती हैं।
और मैं उनके कई नाटकों को देखने भी गया और उसकी समीक्षा भी की। अच्छा लगा जब वे ग्रीन रूम में मुझे आसानी से पहचान गये। अब जबकि वे नहीं हैं उन्हें याद करके ही संतोष कर लेना होगा। उन्हें नमन। उनके कृत्य को नमन। उनकी मेधा को नमन और उनके समर्पण को भी।
ओमप्रकाश आदित्य को कई बार मंचों से सुना है। लेकिन बातचीत का अवसर मिला आठ साल पहले जमशेदपुर में। मैं उन दिनों जागरण में फी़चर डेस्क का प्रभारी था। वे कुछ और मंचीय काव्यपाठ के लिए विख्यात कवियों से साथ जमशेदपुर में काव्य पाठ के लिए आये थे। उन्होंने और उनके अन्य साथी कवियों ने जागरण प्रेस आने की ललक दिखायी और वे आये भी। कार्यालय में उन दिनों लिफ्ट नहीं थी। बाकी कवि तो ऊपर आये तत्कालीन स्थानीय सम्पादक श्री संतशरण अवस्थी व फींचर डेस्क का प्रभारी होने के नाते मुझसे मिलने किन्तु आदित्य जी नहीं दिखे तो पूछा गया। पता चला गठिया के कारण उनके पैरों में तकलीफ है वे सीढ़ियां नहीं चढ़ना चाहते। उनमें मैं नीचे ही जाकर मिला वे कार में बैठे थे। होली करीब थी सो सारे कवियों ने अपनी हस्तलिपि में जागरण के लिए कविताएं दी थी.. आदित्य जी ने कार में बैठे बैठे ही अपनी किसी प्रसिद्ध कविता की चार पंक्तियां लिखीं थी जो प्रकाशित भी हुईं। उनकी यही अन्तिम याद है। उन्हें मेरा नमन।

4 टिप्‍पणियां:

मुन्ना कुमार पाण्डेय ने कहा…

बड़े बरगद के नीचे कोई पौधा बमुश्किल ही पनप पाता है ..फिर भी हबीब साहब किसी मंशा से ऐसा नहीं करते थे.चेतराम ,अमर सिंह लहरे,रामचंद्र ,और बेमिसाल फ़िदा बाई .ये कुछेक नाम हैं जो हबीब साहब की मण्डली के थे हैं,और हबीब साहब के प्रशंसक इनको भली-भांति जानते है

मुन्ना कुमार पाण्डेय ने कहा…

बड़े बरगद के नीचे कोई पौधा बमुश्किल ही पनप पाता है ..फिर भी हबीब साहब किसी मंशा से ऐसा नहीं करते थे.चेतराम ,अमर सिंह लहरे,रामचंद्र ,और बेमिसाल फ़िदा बाई .ये कुछेक नाम हैं जो हबीब साहब की मण्डली के थे हैं,और हबीब साहब के प्रशंसक इनको भली-भांति जानते है

सुशीला पुरी ने कहा…

achcha hai......par tab s kuch nhi likha???

Akanksha Yadav ने कहा…

kuchh cheejon par manav ka vash bhi to nahin hota.

फ्रेण्डशिप-डे की शुभकामनायें. "शब्द-शिखर" पर देखें- ये दोस्ती हम नहीं तोडेंगे !!