9/21/2009

फिर मुठभेड़



('परिकथा' के युवा कहानीकार विशेषांक में प्रकाशित कहानी)

उनके दाम्पत्य जीवन में मुठभेड़ की महत्त्वपूर्ण ज़गह थी जिसके बिना वे शायद जी नहीं पाते। कुछ खोया-खोया सा लगता। उनकी रोजमर्रा की ज़िन्दगी का एहम हिस्सा था एक-दूसरे को चोट पहुंचाना। वे एक ऐसे अखाड़े में गत बीस वर्षों से थे जहां वे दोनों ही लड़ रहे थे एक- दूसरे से। कभी-हारते कभी जीतते। यह बात दीगर है कि हार-जीत का वह आनन्द या दुख उन्हें कभी नहीं मिलता जो सामान्य तौर पर हार-जीत में हासिल होता है। कई बार उन्हें जीत में आनन्द नहीं मिलता तो कई बार हार में दुख नहीं पहुंचता था। आहत होना और आहत करना ही उनकी मुठभेड़ का कुल हासिल था। यह भी तय नहीं था कि दिन में कितनी बार हो सकता है युद्ध। जब भी समय हो यह सम्पन्न हो सकता था। कम समय हो तो हल्की-फुल्की झड़प से भी काम चला लिया जाता।

पहले बेटी दोनों के युद्ध में बचाव करने का प्रयास करती। कई बार पिटते-पिटते बचती और कई बार पिट जाती। फिर वह रेफरी की मुद्रा में आ गयी और कोशिश करती की मां का साथ दे क्योंकि मां के पक्ष में निर्णय नहीं गया तो वह रुआंसी हो जाती और पूरी खुन्नस बेटी पर निकालती-तू भी वैसी ही है। अपने बाप जैसी। मैं ही ग़लत हूं ना! अभी ले रही है पापा का पक्ष बाद में मत बोलना जब तुझे सुनायेंगे! एक ही मिनट में सारा प्यार काफूर हो जायेगा। इन्हें तू जानती नहीं है! भूल गयी? अपना रौद्र रूप दिखायेंगे तो सब याद आ जायेगा।

और बेटी अपने फ़ैसले से मुकर जाती- ना बाबा ना। तुम लोगों को जो मन में आये करो। मैं बीच में नहीं पड़ूंगी। पर देर रात में तुम लोग इस तरह से लड़ोगे तो पड़ोस के लोग, मोहल्ले वाले क्या सोचेंगे? कहेंगे पापा पी के आये होंगे। वरना किस बात पर आधी रात को शोर शराबा हो रहा है। उन्हें क्या पता कि सही ज़गह पर तौलिया नहीं रखा है या कैंची नहीं मिल रही है उस पर हंगामा मचा है घर में। इतनी-इतनी सी बातों पर किसी के यहां इतना झमेला होता है क्या? पापा तो चीखते ही हैं मम्मी तू तो धीरे बोल!

-ना बेटा। मैं अगर ज़वाब नहीं दूंगी तो इनका हौसला और बढ़ेगा। सोचते हैं कि कोई इन्हें ज़वाब देने वाला ही नहीं है। हम लोग जितना सुनते हैं ये सुनाते हैं। एक दिन इनका कम्प्यूटर फोड़ दूंगी बस। समझ में आयेगा आधी रात को चिल्लाना किसे कहते हैं। ज़रा-ज़रा सी बात पर गालीगलौज़ शुरू कर देते हैं। यदि मैं पढ़ी-लिखी होती न तो कब का अलग हो गयी होती। सब हेकड़ी निकल जाती जब होटल का खाते और पेट खराब होता तो। जाइये न किसी और शहर में नौकरी खोज लीज़िए। हम दोनों को अकेला छोड़ दीज़िए हम अकेले जी लेंगे आपके बिना।

-ठीक है मैं ट्रांसफर ले लूंगा। तुम रहना अकेले। बेटी मेरे साथ जायेगी। तू रहेगी न बेटा मेरे साथ। छोड़ तेरी मां को। इसके दिमाग में तो भूंसा भरा है। कुछ भी समझने को तैयार नहीं होती। ज़रा-ज़रा सी बात पर कुतिया की तरह भौंकने लगती है। तू ही बता मैं थका मांदा घर लौटा हूं। यह टीवी देख रही है यह नहीं कि तौलिया ही दे दे। मैं अब घंटे भर तौलिया खोजता फिरूं कि कहां रखा है तब न मुंह हाथ धोऊं।

-बेटा। यूं ही बकते हैं। धैर्य तो है नहीं। ये तो सामने पड़ा है। आंख है कि बटन है। अब इनके हाथ में पकड़ाओ हर चीज़। दिमाग तो सही ज़गह रहता नहीं। फ़िलासफर बनते फिरते हैं। बेटा अभी से इनकी ये हालत है देखना जब बूढ़े हो जायेंगे तो क्या -क्या करेंगे। धैर्य तो है ही नहीं कि कोई चीज़ खोजें। इसीलिए न अपनी पीएचडी नहीं कर पाये। जब लिखने पढ़ने बैठेंगे तो चिल्लायेंगे यह कहां है, वह कहां है? अभी तो पेन यहां रखी थी, अभी तो चश्मा यहीं था। वह किताब किसने उधर रख दी उसे तो मैंने इधर रखी थी। लिखना-पढ़ना बंद और चिल्लाना शुरू। अब फिर बुढ़ापे में पीएचडी शुरू करने की बात करते हैं। रहियेगा घर में अकेला मैं तो मैके चली जाऊंगी। बेटा तू नहीं जानते ये पीएचडी करने बैठेंगे तो हम लोगों की कितनी आफ़त करेंगे।

ऐसी ही बातें रोज़ होतीं। यह रोज़ घटता। बरस-दर-बरस गुज़रते चले गये थे। अब इक्कीस साल होने को आये थे। इन मुठभेड़ों का सिलसिला विवाह के कुछ माह बाद ही शुरू हो गया था। पति ने अंग्रेज़ी से एमए किया था। उसकी कुछ कविताएं देश के प्रतिष्ठित अंग्रेज़ी अख़बारों- पत्रिकाओं में छपने लगी थीं। थामस हार्डी के उपन्यासों पर शोधकार्य भी शुरू किया था कि शादी हुई गांव की दसवीं पास लड़की से। जो उसे पांव की जंजीर लगने लगी। पति की ऊंचे-ऊंचे आदर्श की बातें पत्नी के पल्ले नहीं पड़ती थीं। समाज को बदलने की बातें करता, दुनिया में व्याप्त भ्रष्टाचार, शोषण, नारी मुक्ति, दलितों की अवस्था जैसे विषयों पर पति बोलता तो पत्नी को नींद आने लगती। पति से रोमांटिक व हल्की-फुल्की बातों की उसे अपेक्षा रहती जो कभी पूरी नहीं हुई। पति हर बात को इस अन्दाज़ में इसने विस्तार से कहने लगता कि पत्नी का दिल घबड़ाने लगता और लगता की मास्टर जी की कक्षाएं फिर शुरू हो गयीं। पती अपनी झल्लाहड़ निकालने के लिए उसे छोटी-छोटी बात पर कड़ी फटकार लगाने लगा। घर से ज्यादातर समय बाहर रहता। कितनी ही लड़कियों के फ़ोन आते।

पूछने पर वह कहता-यह सब तुम्हें नहीं समझेगा। वे सब मेरी दोस्त हैं। लिखने-पढ़ने वाली लड़कियां हैं। शहर में स्त्री-पुरुष की दोस्ती का वह मतलब नहीं होता जो तुम्हारे गांव में होता है। थोड़ी सी देखा-देखी हुई नहीं कि जिस्मानी ताल्लुक हो जाये। शहर में औरत देह भर नहीं होती। यहां दोस्ती एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के बीच के सम्बंध की तरह होती है। औरतें भी पढ़-लिख कर उतनी ही विकसित हो सकती हैं जिसना पुरुष। पुरुषों के भी कान काट रही हैं औरतें। मेरी पीएचडी की गाइड भी औरत हैं। गाइड समझी मेरी गुरु।

लेकिन वैसा हुआ नहीं हुआ। पत्नी ने शीघ्र ही भांप लिया कि पति का सम्बंध दूसरी लड़कियों से केवल दोस्ती तक सीमित नहीं है। वह कुछ और भी है। और धीरे-धीरे वह समझने लगी कि वह अपनी महिला मित्रों में प्रेम की तलाश कर रहा है लेकिन वह असहाय थी। अधिक पढ़ी-लिखी न थी। मैके जाने का प्रश्न ही नहीं उठता था। किस घर के लोग चाहेंगे कि उनकी बेटी शादी के बाद मैके जाकर रहे। लोग तरह-तरह के सवाल पूछेंगे। समस्या का हल अपने आप निकल गया। पति किसी लड़की से प्रेम में बेवफ़ाई का सदमा लेकर घर लौट आया। लौट आया का मतलब पति का प्रेम सम्बंध के प्रति विरक्ति का भाव उसने महसूस किया क्योंकि अब वह अधिकतर समय घर में ही रहने लगा था। उदास-उदास सा। बुझा-बुझा सा। पीएचडी के शोध का कार्य भी उसने छोड़ दिया था। नौकरी से सीधे घर लौटता। बेटी को काफी समय देने लगा लेकिन पत्नी के प्रति उसका भाव नहीं बदला था। अब भी उसके प्रति उसके रुखेपन में कमी न आयी। इधर पत्नी ने भी पति की बातों का ज़वाब देना शुरू कर दिया था। और क्रमशः उसके जवाबों की धार तेज़तर होती चली गयी। कई बार ऐसा हुआ जब दोनों एक- दूसरे पर वाक्युद्ध में जमकर वार करते और फिर स्वयं अपने किये वारों से आहत महसूस करते। इस मुठभेड़ में एक दूसरे की भावनाओं को लहूलुहान करने और लहूलुहान होने के अतिरिक्त उन्हें कुछ और कभी हासिल नहीं हुआ। कभी-कभार पश्चाताप भी होता तो दूसरे की कड़वी बातें उस बोध को दूर कर देता।

दोनों को लगता कि उनकी शादी गलत व्यक्ति से हो गयी है। और हो गयी है तो निर्वाह करना है सो कर रहे हैं लेकिन मुरव्वत कैसी। पत्नी कहती-मुझे पता है। जब मेरी नयी-नयी शादी हुई थी दोस्ती के नाम पर लिखने-पढ़ने के नाम पर इस उस लड़की के पीछे-पीछे घूमते थे, जब किसी ने घास न डाली तो हमारा ख़याल आया। कभी जो हमसे प्यार से बात की होती। हर वक्त ये करो, वो करो। यह करना चाहिए, वह करना चाहिए। और बिस्तर पर पति होने का हक़ जताकर सो गये। क्या यही प्यार है। इससे तो अच्छा था मेरी उस दरबान से शादी हो गयी, जिससे तय हुई थी। वह तो आपके दादाजी की बातों में आकर मेरे पिता ने वह शादी तोड़ दी। वह दरबान रहता तो क्या था मेरी भावनाओं की तो कद्र करता। मेरी तो ऐसा आदमी से शादी हुई है जिसने कभी कहा ही नहीं कि मैं सुन्दर हूं। वह तो जब दूसरे कहते हैं तब मुझे बता चलता है। तारीफ़ करने में भी इनका खर्चा हो जाता है।

पति कहता-कम पढ़ी-लिखी औरत से शादी करना मेरी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी भूल है। ऐसी बीवी मिली जो मेरे जज्बातों को समझ ही नहीं पायी। मन को भी खुराक चाहिए। खाली सब्जी कैसी बनी हैं, साड़ी कैसी लग रही है पर प्रतिक्रिया देना ही तो ज़िन्दगी नहीं है। बैल! बुद्धि से बैल हो तुम। कोई जानवर मेरी भावनाओं को समझ सकता है मगर तुम नहीं।

और 21 साल होने वाले थे उस रात शादी के। बेटी ने पहले ही समझा दिया था-तुम दोनों आज मत लड़ना। कम से कम आज नहीं। तुम लोगों की ज़िन्दमी में एकदम रोमांस नहीं है। सुबह से कह रही हूं कहीं घूमने-फिरने चले जाओ मगर सुन नहीं रहे हो। पापा आप छुट्टी क्यों नहीं ले लेते। सुबह से मम्मी को फ़ोन आ रहे हैं बधाईयों के। पूछ रहे हों लोग कैसे मान रहे हैं एनवर्सरी?

और सचमुच दोनों ने तहे दिल से कोशिश की कि न लड़ें, भले एनवर्सरी सेलिब्रोट करें न करें। बेटी ने थोड़ा बहुत इन्तज़ाम स्वयं कर रखा था। एक बड़ा सा केक पति-पत्नी ने काटा। बेटी घड़ी भी ख़रीद लायी थी जिसे पत्नी ने पति की कलाई पर बांधा। गुलाब के फूलों का एक गुलदस्ता भी था जिसे पति ने पत्नी को भेंट किया और सेलिब्रोशन हो गया। सबकी पसन्द का खाना बना था। और रात बारह बजे बेटी ने दोनों को बधाई दी और सब अपने-अपने बिस्तरों में घुस गये। सब कुछ ठीक-ठाक ग़ुजरता योजना के मुताबिक लेकिन थोड़ी सी गड़बड़ी हो गयी। पति बाथरूम के लिए उठ कर गया था वहीं से पत्नी को पहले धीमे से पुकारा, जिस पर पत्नी जगह से हिली तक नहीं। दूसरी पुकार पर उसने वहीं बेडरूम से जवाब दिया क्या है? आधी रात को क्यों चिल्ला रहे हैं?

फिर क्या था पति सचमुच चिल्ला उठा-सुनो इधर आओ। देखो अपनी करतूत क्या कर रखा है किचन में? पत्नी झल्लाई हुई उठी और किचन में पहुंची।

-सूंघो। अरे वहीं से नहीं सिलेंडर के पास नाक लगातार। गैस रिस रही है।

-अरे छोड़िये भी। कोई गैस-वैस नहीं रिस रही है। कुछ समझते तो हैं नहीं बस हर बात में टांग अड़ाते हैं। थोड़ी बहुत तो यूं भी महक आती है।

-मैं कह रहा हूं कि गैस रिस रही है। क्या मैं लाइटर जला कर दिखाऊं? तुम भी जान से जाओगी और मैं भी।

-जलाइये देखा जायेगा।

-कोई काम न आये तो दूसरे से पूछ लिया करो। ठीक कनेक्ट करना आता नहीं और गैस रिसती रहती है। कभी कोई बड़ा हादसा हो जायेगा। अभी तीन दिन पहले ही कह रही थी कि गैस वाला कम गैस दे जा रहा है जल्दी ख़त्म हो गयी है। खुद ठीक से काम नहीं करती हो दूसरों पर इल्ज़ाम मढ़ देती हो। चलो फिर से इसकी पाइप क्या कहते हैं उसे लगाओ निकाल कर।

-आप ही क्यों नहीं लगा देते?

-मुझे ही आता तो मैं तुमको न बुलाता।

-फिर क्या हेकड़ी दिखाते हैं ज़रा सा काम तो आता नहीं। और पत्नी ने फिर से गैस का रेगुलेटर लगाया।

-अब देखो सूंघकर अब कहां आ रही है गंध।

-क्यों नहीं आ रही है अब भी आ रही है। आपकी नाक इस गंघ को सूंघने की आदी हो गयी है इसलिए अब महसूस नहीं हो रहा है।

-चुप रहोगी कि बात बढ़ाओगी?

-मैं अब चुप रहने से रही। बहुत हो गया।

-चलो यहां से।

-नहीं जाऊंगी।

-तुम अब पिटोगी।

-आप मारेंगे यह लीजिए..

और तीन-चार बार ऐसी आवाज़े रात में आयी जिससे लगा कि किसी ने किसी को पीटा है। और उसके बाद एक गहन खामोशी थी। दोनों चुपचाप बेडरूप में आये और सो गये।

सुबह दोनों अपने-अपने समय पर उठे। बेटी ने पूछा-रात में भी आप लोगों ने झगड़ा किया न। ऊपर मेरे कमरे में आवाज़ आ रही थी, आप लोगों के लड़ने की।

दोनों ही मुस्कुराये। बेटी ने आगे कहा-और मारपीट भी हुई थी। किसने किसको पीटा था?

दोनों याद करने की कोशिश करने लगे पर दोनों में यह किसी को याद नहीं आया। हालांकि दोनों घायल होकर सोये थे।

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3 टिप्‍पणियां:

निर्मला कपिला ने कहा…

बहुत सुब्दर कहानी है कथानक कथ्य और शिलप सब बडिया हैं लेखक को बहुत बहुत बधाई

सुशीला पुरी ने कहा…

बेहद मनोवैज्ञानिक कहानी ...........दांपत्य के बारीक़ रेशे उधेड़ती सच्ची घटना जैसी .......बधाई

सुशीला पुरी ने कहा…

bahut sundar kahani........parikatha me bhi padhi , badhai