2/18/2010

कशिश से भरी एक और उमराव जान


साभारःसन्मार्ग, 21 फरवरी 2010
उमराव जान/लम्बी कविता/ लेखक-प्रभात पाण्डेय/प्रकाशक-समय प्रकाशन, आई-1/16 शांतिमोहन हाउस, अंसारी रोड, दरियागंज, नयी दिल्ली-110002/मूल्य-150 रुपये।

प्रभात पाण्डेय की तीसरी कविता पुस्तक 'उमराव जानÓ उनकी कविता के फलक का नया विस्तार है। लखनऊ की विख्यात तवायफ उमराव जान पर लिखी इस लम्बी कविता का आंतरिक छंद और अनुशासन पाठकों को उर्दू की नज्मों का आस्वाद देता है। उमराव जान उस दौर की तवायफ थी जब तवायफों का दर्जा समाज में सम्मान जनक था और स्वयं प्रभात जी ने पुस्तक की भूमिका 'उमराव जान से उमराव जन तक..' में उसका जिक्र करते हुए कहा है कि उसके कोठे पर न जिस्मानी खरीद-फरोख्त की चर्चा थी न ही इसकी गुंजाइश। उन दिनों नवाबजादों और रईसजादोंको तहजीब की तालीम की खातिर कोठों पर तवायफों के पास भेजा जाता था।
उमराव जान पर हिन्दी में दो-दो फिल्में बन चुकी हैं और चर्चित भी रहीं जिनमें पहली बार रेखा ने और दूसरी बार ऐश्वर्या राय ने उमराव जान के किरदार को बखूबी पेश किया है। दोनों ही नायिकाओं की उमराव जान अलग थी, अब प्रभात जी ने इस पुस्तक से एक और उमराव जान को पेश किया है। इसकी खूबी यह है कि यह पुस्तक उमराव जान को लोगों के जेहन से उन दोनों रूपों से मुक्त करती है और हर पाठक के मन में अपने ढंग की एक अलग उमराव जान की छवि गढऩे में मदद करती है। दोनों ही िफल्मों ने इतिहास से उमराव जान के लगभग वायवीय लगते चरित्र को साक्षात प्रस्तुत किया है और लगभग रूढ़ होते चरित्र को इस कृति ने फिर मुक्त कर दिया है। ठीक उसी तरह जिस तरह तिथियों के बंधन से उमराव जान की मुक्ति की बात प्रभात जी ने अपनी भूमिका में कही है। इतिहास के प्रति संवेदनात्मक रचनाशीलता का यह भूमिका एक बेहतर उदाहरण है, जो शुरू से ही पाठक को अपनी गिरफ्त में ले लेती है। उसकी बानगी देखें-'हाशिम की मानें तो यहीं किया खैरमक्दम फरिश्तों ने उसका, चढ़ी अर्श पर जब उमराव जान। वैसे जिस पत्थर पर गढ़ा था यह सब, हाशिम के कहे अनुसार वह पत्थर कब्र से उखड़ कर कहीं गुम हो गया। उसी के साथ गुम हो गयी उमराव जान की पैदाइश और इन्तकाल की तारीखें-गोया आजाद हो हो गयी उमराव जान तारीखों के बन्धन से।
इतिहास से निकाल एक चरित्र को आज के संदर्भ में रखने की प्रभात जी ने सराहनीय कोशिश की है। उमराव जान पर उन्होंने काफी शोध किया है जो उसके जीवन और उसके समय की धड़कन को महसूस करने में सहायक बना है और चरित्र को जीवन्त करता है। लखनऊ में अरसे तक प्रभात जी नेे उमराव जान को खोजा है और फिर उसके ऐतिहासिक व्यक्तित्व में एक ऐसी रूमानियत और कशिश भरी है, जो पाठकों के मन पर अपनी छाप छोड़ पाने में सफल है।

4 टिप्‍पणियां:

सुशीला पुरी ने कहा…

उमरावजान पर प्रभात जी की पुस्तक की लिए उन्हें हार्दिक बधाई . अभिज्ञात जी यदि हो सके तो प्रभात जी का मेल पता उपलब्ध कराएँ .

सुशीला पुरी ने कहा…

प्रभात जी को बधाई

RAJESHWAR VASHISTHA ने कहा…

प्रिय अभिज्ञात जी,

उमराव जान ब्लाग पर आपकी समीक्षा सादर एवं साभार पुन: प्रस्तुत कर रहा हूँ...आशा है..बुरा न मानेंगे ।

सुधीर राघव ने कहा…

अभिज्ञात जी, आपके ब्लॉग पर बहुत ही अच्छी जानकारियां हैं। प्रभात जी के नजरिए से उमराव जान को देखना, सचमुच जिज्ञासा जगाता है।
असल में मान्यताओं को लेकर आपकी टिप्पणी काफी सटीक रही। और लोगों ने भी अपने-अपने तर्क के आधार पर बात कही है। इस तरह के सवाल जवाब विचार-विमर्श को आगे बढ़ाने में सहायक हैं। इसी शृंखला की अगली पोस्ट आप मेरे ब्लॉग पर देख सकते हैं-
बौद्धिक कामचोरी हैं मान्यताएं