3/11/2010

मनोज भावुक की संवेदनशील अभिव्यक्ति





भोजपुरी गजलों में संवेदनशील अभिव्यक्ति
तस्वीर जिन्दगी के/लेखक-मनोज भावुक/प्रकाशक-हिन्द युग्म, 1, जिया सराय, नयी दिल्ली-110016/मूल्य-75 रुपये

'तस्वीर जिन्दगी के' मनोज भावुक का पहला गजल संग्रह है। यह खुशी की बात है कि उसका दूसरा संस्करण हिन्द युग्म ने प्रकाशित किया है। यह पुस्तक बहुत सराही गयी है और इसकी महत्ता इसी बात से प्रमाणित होती है कि इस संग्रह को भारतीय भाषा परिषद सम्मान प्राप्त हुआ है। संग्रह की गजलें पढऩे के बाद इस बात का सुखद एहसास होता है कि गजल की विधा भोजपुरी में आकर भी अपना प्रभाव उसी प्रकार छोड़ती है जितनी उर्दू में। भावुक ने इस विधा की सांकेतिक शक्ति और कम शब्दों में प्रभावी ढंग से अधिक बात कहने के हुनर का भरपूर इस्तेमाल किया है। आधुनिक समय के संकट और विडम्बनाओं को उन्होंने बेलौस और संवेदनशील ढंग से उकेरा है। गांव की उन यादों को वे कसक से साथ प्रस्तुत करते हैं जो गांव से शहर या परदेश गये लोगों के मन में एक हूक के रूप में विद्यमान है। ग्रामीण जीवन में आये बदलाव को भी रेखांकित करते हैं। संग्रह की पहली गजल ही पाठकों को अपनी गिरफ्त में ले लेती है-'बरिसत रहे जे आंख से हमरा बदे कबो/ आखिर ऊ इन्तजार के सावन कहां गइल।'
देश की गरीबी और बदहाली से क्षुब्ध भावुक की गजलों में व्यवस्था के प्रति विद्रोह भी है। संग्रह की अंतिम गजल का शेर देखें-'अबही त भइल जंग के शुरुआत बा 'भावुक'/ हक ना मिली जो मांग के त छीन के खाई।'
आधुनिक जीवन की रीति-नीति
चलनी में पानी/लेखक-मनोज भावुक/नवशिला प्रकाशन, नागलोई, दिल्ली-110041/मूल्य-100 रुपये

मनोज भावुक के दोहों और गीतों का संग्रह है 'चलनी में पानी'। भावुक इस संग्रह से अपनी एक नयी पहचान बनाते नजर आते हैं जो पिछले संग्रह से भिन्न है। वे एक समर्थ गजल गो तो थे ही एक अच्छे गीतकार और दोहाकार के रूप में अपनी लेखकीय परिधि का विस्तार करते दिखायी देते हैं। उनके दोहे अर्थसघन हैं और उनकी मारक क्षमता अचूक। दोहों का प्रयोग नीति और दर्शक के लिए प्राय: होता रहा है और भावुक ने भी आधुनिक जीवन की रीति नीति को पूरी शिद्दत से प्रस्तुत किया है-'पांख खुले त आंख ना, आंख खुले त पांख। रही से अक्सर इहां, सपना होला राख।'
भावुक के गीतों में उनके अनुभव का जगत का विस्तार और विविधता दिखायी देती है और इनकी एक खूबी यह दिखायी देती है कि वे साहित्यिक तो हैं ही मंचों पर आम श्रोताओं के बीच गाये जाने योग्य भी हैं। एक बानगी देखें- 'पिरितिया लगा के भुला त ना जइब। हिया में समा के परा त न जइब। लगवल ह तूहीं मुहब्बत के लहरा/पढ़वल ह तू हीं ई प्रेम-ककहरा/जुदाई के माहुर चटा त ना जइब।' कुल मिलाकर भावुक इस बात के प्रति आश्वस्त करते हैं कि भोजपुरी रचनाशीलता आज के समय और सत्य को व्यक्त करने में जुटी हुई है। पुस्तक की भूमिका में डॉ.रमाशंकर श्रीवास्तव ने लिखी है जो भावुक के विशिष्ट योगदान को चिह्नित करती है।

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