10/04/2011

सर्पदंश


कहानी
डा. अभिज्ञात
साभारः हमलोग, डेली न्यूज़, जयपुर, 2 अक्टूबर 2011
शिखा पाण्डेय के लिए इंटर्नशिप एक चुनौती बन गई थी। उसने सोचा भी न था कि डॉक्टरी का यह कॅरियर उसे उस मुकाम पर पहुंचा देगा, जहां उसे कठिन विकल्पों में से ही एक को चुनना होगा।

कहां तो उसने सोचा था कि वह साइंस की तरक्की का लाभ इस देश के लोगों को पहुंचा सकेगी। खासतौर पर वह गांवों में उन लोगों को राहत देना चाहती थी, जो चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में असमय ही दुनिया से कूच कर जाते हैं अथवा उपयुक्त इलाज न हो पाने के कारण छोटी-मोटी बीमारियों से भी बरसों जूझते रह जाते हैं और वह बीमारी देखते-देखते ही तिल से ताड़ बन जाती है। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से वह बीएससी कर रही थी कि उसके सपनों को पंख मिल गए और वह प्रतियोगी परीक्षा में उत्तीर्ण हो गई और कोलकाता के एक मेडिकल कॉलेज में उसका दाखिला हो गया।

चार वर्ष का पाठ्य-क्रम उसने पूरा कर लिया था। अब छह माह की इंटर्नशिप उसे करनी थी, जिसके बाद वह स्वतंत्र थी मेडिकल प्रैक्टिस के लिए। इस बीच उसके घर की हालत सोचनीय होती चली गई थी। पिता ने जमीन बंधक रख दी थी। छोटी दो बहनें कुंवारी थीं और पिता को उम्मीद थी कि डॉक्टर बेटी अपनी कमायी से उन्हें पार लगाएगी। आखिर बेटी का भी तो कुछ कर्तव्य बनता है ऎसे पिता के प्रति जितने लोगों के तमाम भड़कावे के बावजूद उसे इतनी ऊंची तालीम हासिल करने दी।

शिखा की उम्र भी निकली जा रही थी, किन्तु उन्होंने उस पर विवाह के लिए जोर नहीं डाला और उसके बाद वाली बेटी निशा का ब्याह दो साल पहले ही कर दिया और हाथ खड़े कर दिए कि अब किसी और बेटी को ब्याहने की उनकी स्थिति नहीं है शिखा ही अपनी नौका खुद पार लगाए और अपनी दो अन्य छोटी बहनों के लिए भी वक्त आने पर घर-बार खोजे। लोग उन्हें समझाते थे बेटियां दूसरे के घर जाने वाली होती हैं उनसे उम्मीद नहीं पाली जानी चाहिए। बहुत होगा तो वह इतना करेगी कि अपने लिए कोई डॉक्टर वर खोज लेगी, लेकिन अन्य कोई उम्मीद करना बेकार है। लेकिन पिता को अपनी आस्था के लिए एक ठौर मिल गया था और वह थी उनकी बेटी शिखा।

ईश्वर और शिखा उनके जीवन के दो ध्रुव बन गए थे, जिसके बीच उनका जीवन परिक्रमा करता रहता था। इसमें भी शिखा की मुख्य भूमिका होती और ईश्वर उसके सहायक। उनकी चर्चा शिखा से शुरू होती और शिखा पर खत्म। कभी शिखा छुिओं में बनारस से कुछ किमी दूर स्थित अपने गांव लाखी जाती, तो पिता की अपने से लगाई गई उम्मीदों से सहम जाती। यदि वह उनकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी, तो जाने क्या होगा...!

यूं तो शिखा ने सारी बाधाएं पार कर ली थी। घर-परिवार व जीवन के अन्य उतार-चढ़ाव की बाधाओं को अपने दिलोदिमाग से निकालकर अपने कॅरियर के बारे में सोचती और ध्येय को पाने में जुटी रहती।

अब मंजिल करीब थी। वह जल्द से जल्द मेडिकल प्रैक्टिस शुरू कर अपने परिवार की आर्थिक बाधाओं को दूर करना चाहती थी। मिट्टी का घर भी अब गिरनेे को था। पिछली बरसात वह झेल गया था जैसे-तैसे, लेकिन इस बार की वर्षा वह निकाल पाएगा इसमें संदेह था।

शिखा को इंटर्नशिप के लिए पश्चिम बंगाल के दक्षिण 24 परगना जिले के एक ग्रामांचल का सरकारी अस्पताल दिया गया था,जहां उसे छह महीने चिकित्सा करनी थी। उसे अस्पताल के वरिष्ठ डॉक्टरों के दिशा-निर्देश में काम करना था। कोलकाता से दो घंटे के बस के सफर के बाद वह अस्पताल पहुंचती और काम के बाद वापस लौटती। अस्पताल के हालत उसके लिए विस्मयकारी थे। किताबों से बाहर निकलकर व्यवाहरिक दुनिया में प्रवेश उसके लिए नया अनुभव था। उसने सोचा भी न था कि उसके ख्वाबों की हकीकत ऎसी होगी और उसके आदर्श धरे के धरे रह जाएंगे।

मेडिकल सांइस की तरक्की को यहां की व्यवस्था मुंह चिढ़ा रही थी। अस्पताल में कुछ आठ दवाएं थीं, जिनसे उसे लोगों की तमाम बीमारियों का इलाज करना था। ऊपर से तुर्रा ये कि किसी भी मरीज को यह नहीं बताना था कि अमुक दवा नहीं है। दवा न भी हो, तो मरीज के इलाज का नाटक जारी रखना था, क्योंकि ऎसा न करने पर लोगों की नाराजगी का अस्पताल निशाना बनेगा और सरकार भी।

व्यवस्था पर प्रश्न चिह्न लग जाएगा। मामला विधानसभा में उठ सकता है। मीडिया तो यूं भी फुटेज के चक्कर में तिल को ताड़ बनाता रहता है। विपक्ष को बैठे-बिठाए राज्य सरकार के खिलाफ मुद्दा मिल जाएगा। अधिक से अधिक उन्हें आजादी थी मामले को कोलकाता के किसी अन्य अस्पताल को रेफर कर दिया जाए। किन्तु ऎसे मामलों में भी कैफियत देनी पड़ेगी। शिखा ने गांव के किसी अस्पताल में प्रैक्टिस का विचार सिरे से खारिज कर दिया। ना वह बिना दवा के इलाज का स्वांग नहीं करेगी।

शिखा को अभी कुल चार दिन ही हुए थे और वह यहां की व्यवस्था से परिचित हो चली थी। परिचित ही नहीं हुई थी, बल्कि वह इस व्यवस्था का हिस्सा बनने का मन बना चुकी थी। उसके पास कोई विकल्प नहीं था। इंटर्नशिप उसे पूरी करनी थी। मन कड़ाकर लिया था और वह व्यवस्था का कोई असर दिलोदिमाग पर न पड़े इसकी पूरी कोशिश में लगी थी। वह अपने मन को विचलित नहीं करना चाहती थी। वह लक्ष्य पर निगाह गड़ाए हुए थी। उसकी आंखों के सामने पिता थे। उनके सपने थे। बहनें थीं, उनकी जिम्मेदारियां थीं। गांव के लोग थे, जिनकी वह शान व पहचान थी। गांव की पहली डॉक्टर वह बनेगी।

अस्पताल में उस दिन जैसे ही वह पहुंची, तो पाया कि सर्पदंश का मामला आया हुआ है। बाइस साल का युवक था, जिसे गांव वाले चारपाई पर लिटाकर ले आए थे। विधवा मां, दो कुंवारी बहनें धाड़ें मार-मार के रो रही थीं और गांव के लोग थे, जो उन्हें दिलासा दे रहे थे कि वह ठीक हो जाएगा। लो डॉक्टर आ गई...! लोगों के चेहरे का तनाव थोड़ा कम हुआ। अस्पताल में फिलहाल कोई और डॉक्टर न था, सो जिम्मेदारी उस पर थी। उसने पता किया सर्पदंश से निजात का कोई इंजेक्शन अस्पताल में नहीं था। उसे इलाज का अभिनय भर करना था। उसके समक्ष एक चुनौती थी और उसके इम्तहान की घड़ी।

उसने मन कड़ा कर लिया। उसने पढ़ा था ज्यादातर सांप विषैले नहीं होते, किन्तु कई लोग दहशत से मर जाते हैं। उसका अभिनय काम आ सकता था। इलाज के अभिनय से प्रभावित व्यक्ति का मनोबल ऊंचा उठ सकता था उम्मीद थी वह ठीक हो जाएगा। दवा से नहीं अपने-आप। उसने भगवान से मनाया कि जिस सांप ने काटा है, वह विषैला न हो। किन्तु उसकी कामनाएं भलीभूत होती नजर नहीं आ रही थीं।

इसी बीच एक और घटना घटी, जिसने उसे झकझोर कर रख दिया। युवक की हम-उम्र एक युवकी रोती-बिलखती अस्पताल पहुंची। उसने अपने पास सिंदूर की डिबिया रखी थी। लगभग बेसुध होते युवक के समक्ष वह फूट पड़ी-मैं नहीं जानती तुम बचोगे कि नहीं, लेकिन तुम जान लो कि मैं तुम्हारी हूं। मैं तुम्हारी विधवा बनकर जी लूंगी, मगर दूसरे से हरगिज शादी नहीं करूंगी। मैंने बहुत कोशिश की कि गांव वालों से अपना प्रेम छिपा लूं। मैं जानती हूं कि मेरे पिता इस शादी के लिए कभी राजी नहीं होंगे, फिर भी मैं कोशिश में थी कि कभी न कभी उन्हें मना लूंगी, मगर अब वक्त नहीं बचा है। पता नहीं क्या होगा। तुम नहीं भी बचोगे, तो यह जानकर जाओ कि मैं तुम्हारी हूं।

और उसने अस्पताल में गांव वालों के सामने युवक से सिन्दूर अपनी मांग में भरवा ली। शिखा दहल गई। उसकी आंखों से सब्र आंसू बनकर बह निकला। इस बीच युवक अचेत हो गया था। शिखा ने मन कठोर कर लिया और युवती से कहा- क्या तुम्हारे पास गाड़ी है?

युवती के हां कहने पर उसने कहा- मैं जान गई हूं कि इसे किस सांप ने काटा है। वह बहुत जहरीला है। उसका इलाज आसान नहीं। तुम इसे लेकर जल्द से जल्द कोलकाता मेडिकल कॉलेज चली जाओ। यहां उसका इलाज नहीं हो पाएगा।

युवती ने लोगों की मदद से फौरन युवक को कार में बिठाया और गाड़ी चल पड़ी। लोगों को जैसे ही पता चला कि अस्पताल में इलाज संभव नहीं गुस्सा फूट पड़ा। अस्पताल प्रबंधन और डॉक्टरों के लिए गालियां दागी जाने लगीं। इधर गांव के लोगों ने अस्पताल में तोड़-फोड़ शुरू कर दी थी। शीशे की खिड़की को तोड़ता हुआ एक सनसनाता पत्थर उसके सिर पर लगा था और वह अचेत हो गई।

उसे जब होश आया, तो पाया कि वह अस्पताल के एक बेड पर पड़ी है और भारी संख्या में पुलिस-बल अस्पताल में तैनात है। उसके कमरे के बाहर भी पुलिस थी। उसे सिर पर लगी चोट का भी अहसास हुआ, किन्तु मन में संतोष का भी अनुभव किया कि सब कुछ के बावजूद वह एक युवक की जान बचाने में सफल रही। इस बीच उसका बयान लिया गया। वहां उसके सीनियर डॉक्टर्स भी थे। पता चला कि सर्पदंश से युवक की मौत हो गई है। लोग अस्पताल के बाहर प्रदर्शन कर रहे हैं एहतियात के तौर पर पुलिस बुलायी गयी है।