3/08/2012

कवि केदारनाथ सिंह की मां का देहावसान

प्रख्यात कवि केदारनाथ सिंह की मां लालझरी देवी नहीं रहीं। वे 102 साल की थीं। 8 मार्च 2012 की सुबह पांच बजे उनका निधन हावड़ा में हो गया। अपनी बेटी व केदारनाथ सिंह की बहन हेमावती के घर पर उन्होंने अपनी अंतिम सांस ली। 21 स्वर्णमई रोड, बी गार्डेन, बीई फर्स्ट गेट के पास, हावड़ा में वे कुछ अरसे से रह रही थीं। उसके पहले भी जब जब सर्दियां आतीं केदार जी उन्हें हावड़ा पहुंचा जाते थे क्योंकि दिल्ली में अधिक ठंड पड़ती है। मृत्यु के समय केदार जी हावड़ा में ही थे।
उनका अंतिम संस्कार हावड़ा के शिवपुर श्मशान घाट में किया गया, जहां केदार जी ने उन्हें मुखाग्नि दी। केदार जी के पुत्र सुनील कुमार सिंह भी इस अवसर पर उपस्थित थे, वहीं शवयात्रा में आलोचक डॉ.शंभुनाथ, साहित्यकार-पत्रकार व महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के कोलकाता केन्द्र के प्रभारी डॉ.कृपाशंकर चौबे, सन्मार्ग के सम्पादक हरिराम पाण्डेय व पत्रकार परमानंद सिंह आदि उपस्थित थे। केदार जी का मां का श्राद्ध केदारजी के पैतृक गांव चकिया में होगा।
मृत्य की दुखद सूचना मुझे आज अपराह्न डॉ.कृपाशंकर चौबे से मिली, जब मैंने उन्हें होली की शुभकामनाएं देने के लिए फोन किया था। उन्होंने बताया कि वे श्मशान घाट में हैं जहां केदार जी की मां के अंतिम संस्कार की तैयार चल रही है।
केदार जी से मेरी पिछली मुलाकात 3 मार्च 2012 को हुई थी, जब उन्होंने दोहराया था कि मां की हालत ठीक नहीं है। वे जब तक की मेहमान हैं। वे उन्हें पहचान नहीं रही हैं। वे इस उम्र में अवचेतनावस्ता में बस अपनी मां को याद कर रही हैं।
5 मार्च 2012 को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा में मुलाकात के दौरान विश्वविद्यालय के कुलपति व कथाकार श्री विभूति नारायण राय ने पूछा कि क्या केदार जी की तबीयत खराब है, मैंने बताया नहीं, उनकी मां की तबीयत अवश्य खराब है। और केदार जी इस बात को लेकर अधिक परेशान हैं कि जिस मां को वे बेतरह प्यार करते हैं वह उन्हें अपने अंतिम दिनों में नहीं पहचान रही है। उनकी मां अपनी मां को याद कर रही है। भगवान उनकी मां की आत्मा को शांति दे और केदार जी दुख का यह पहाड़ ढोने की सामर्थ्य। अपनी मां पर लिखी केदार जी की कविता यहां याद आ रही है, जो पूरी हिन्दी कविता ही नहीं विश्व कविता में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है-
कविता का शीर्षक है-सुई और तागे के बीच में

माँ मेरे अकेलेपन के बारे में सोच रही है
पानी गिर नहीं रहा
पर गिर सकता है किसी भी समय
मुझे बाहर जाना है
और माँ चुप है कि मुझे बाहर जाना है

यह तय है
कि मैं बाहर जाउंगा तो माँ को भूल जाउंगा
जैसे मैं भूल जाऊँगा उसकी कटोरी
उसका गिलास
वह सफ़ेद साड़ी जिसमें काली किनारी है
मैं एकदम भूल जाऊँगा
जिसे इस समूची दुनिया में माँ
और सिर्फ मेरी माँ पहनती है

उसके बाद सर्दियाँ आ जायेंगी
और मैंने देखा है कि सर्दियाँ जब भी आती हैं
तो माँ थोड़ा और झुक जाती है
अपनी परछाई की तरफ
उन के बारे में उसके विचार
बहुत सख़्त है
मृत्यु के बारे में बेहद कोमल
पक्षियों के बारे में
वह कभी कुछ नहीं कहती
हालाँकि नींद में
वह खुद एक पक्षी की तरह लगती है

जब वह बहुत ज्यादा थक जाती है
तो उठा लेती है सुई और तागा
मैंने देखा है कि जब सब सो जाते हैं
तो सुई चलाने वाले उसके हाथ
देर रात तक
समय को धीरे-धीरे सिलते हैं
जैसे वह मेरा फ़टा हुआ कुर्ता हो

पिछले साठ बरसों से
एक सुई और तागे के बीच
दबी हुई है माँ
हालाँकि वह खुद एक करघा है
जिस पर साठ बरस बुने गये हैं
धीरे-धीरे तह पर तह
खूब मोटे और गझिन और खुरदुरे
साठ बरस।

इस अवसर पर केदार जी की मां के सम्बंध में एक टिप्पणी भी याद रही है, नवभारत टाइम्स से यहां उद्धृत कर रहा हूं।
मां की जगह
केदारनाथ सिंह
अभी दो दिन पहले ही लौटा हूं- मां को गांव में छोड़कर। वह दिल्ली से दो महीने पहले गई थी और जब मैंने दिल्ली चलने का आग्रह किया तो बोली- नहीं, अभी नहीं जाऊंगी- अभी बहुत से काम हैं। काम कोई नहीं है, यह मैं अच्छी तरह जानता था। फिर भी मैंने उसे वहां छोड़ दिया। एक बड़े पुराने घर में उसे अकेले छोड़ना अपराध जैसा लग रहा था। फिर मैंने सोचा- उसे अपने सहज परिवेश से हटाकर दिल्ली में रखना भी तो अपराध ही है। और ऐसा अपराध हम करते हैं और कई बार इस तरह करते हैं जैसे वृद्धा मां या वृद्ध पिता को गांव से निकालकर एक उच्चतर जीवन लीला के परिसर में प्रवेश दिला रहे हों।

यह सब लिखते हुए मुझे मां पर लिखी असंख्य कविताएं याद आ रही हैं। एक कवि ने तो यहां तक कहा था कि मां पर कविता लिखी ही नहीं जा सकती और शायद उसने गलत नहीं कहा था। फिर भी मां पर कविताएं लिखी जाती हैं और लिखी जाती रहेंगी। पर आनेवाला पाठक ऐसी तमाम कविताओं को पढ़कर आनंदित होने के बजाय, आधुनिक (उत्तर आधुनिक) समाज में एक उम्र की आंच में पकती हुई मां की अनिश्चित जगह के कारण एक तीखे विडंबना-बोध से विचलित होने की क्षमता भी खोता जाएगा।

यह तो मां की स्थिति का बखान हुआ...स्वयं मां की दृष्टि में बेटे की तस्वीर क्या हो सकती क्या हो सकती हे, इसका एक मार्मिक चित्र रूसी कवि रसूल हम्जातोव की एक छोटी-सी कविता में मिलता है।...कविता मां की ओर से बेटे का बखान है:

वह जब छोटा था
उसे बोलना नहीं आता था
वह सिर्फ तुतलाता था
और मैं उसकी हर बात समझ लेती थी
अब वह बड़ा हो गया है
और बहुत बोलता है
पर उसकी एक भी बात
मेरी समझ में नहीं आती।

मां पर यह सीधा-सादा बयान आज की दुनिया में उसकी स्थिति पर एक तल्ख टिप्पणी है।
नोटःकेदार जी की यह तस्वीर पिछली मुलाकात की है, जो मैंने मोबाइल फोन से ली थी।

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