4/13/2014

किसी का कवि होना, श्रापग्रस्त होना है

डॉ.अभिज्ञात से मो.अफ़ज़ल ख़ान का साक्षात्कार
(पुरानी बातचीत में कुछ आवश्यक संशोधन के साथ)
प्रश्न-आपका नाम और उपनाम?
उत्तर-मेरा नाम हृदय नारायण सिंह है। मैं लिखना अपने ही नाम से चाहता था किन्तु नाम बदलने की मज़बूरी थी क्योंकि इसी नाम के एक वरिष्ठ लेखक पहले ही मेरे अंचल में थे। मुझे लगा था कि इसी नाम से लिखने से सब गड्मगड्ड हो जायेगा इसलिए अभिज्ञात नाम से लिखने लगा। मुझे अब भी पछतावा है अपने नाम से न लिख पाने का। उपनाम मेरा शौक नहीं मज़बूरी है। और यह उपनाम भी मेरा अपना तय किया हुआ नहीं है। मेरे डॉ.हरिवंश राय बच्चन जी से उन दिनों पत्राचार था। मैंने उन्हीं से गुजा़रिश की थी कि कोई उपनाम सुझाये। अभिज्ञात उपनाम मैंने काफी बाद अपने पहले कविता संग्रह के प्रकाशन के समय अपनाया।
प्रश्न-आपका जन्म कब, कहां, जन्म स्थान व मूल स्थान, माता पिता का नाम?
उत्तर-मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले के कम्हरियां गांव में 1962 में हुआ।
प्रश्न-आपकी शिक्षा-दीक्षा एवं अन्य व्यस्तताएं?
उत्तर-मेरे जन्म के समय समय मेरे पिता श्री लाल बहादुर सिंह मुंबई में सेचुरी रियान में कार्यरत थे। मेरी मां कुन्ती मेरे जन्म के समय गांव में थी। कुछ माह का रहा होऊंगा तो वह भी मुंबई बाबूजी के पास गयीं और मैंने मुंबई में होश सम्भाला। इस बीच किसी मसले पर यूनियन और प्रबंधन के तनाव बढ़ा और प्रबंधन ने तनाव कम करने के लिए कुछ लोगों को काम से हटा दिया जिसमें बाबूजी भी थे। वे बीएचयू के प्रोडक्ट है और हाकी के अच्छे खिलाड़ी रहे हैं। बाबूजी नौकरी के फेर में नागपुर के पास तुमसर में आ गये। नौकरी बदलने के क्रम में कुछ दिनों के लिए मेरी मां फिर गांव आयी तो मेरा दाखिला गांव के स्कूल में करा दिया गया जहां में पहली से कक्षा चौथी तक पढ़ा। उसके बाद आगे की पढ़ाई कक्षा 12वीं तक वहीं हुई। बाबूजी विज्ञान पढ़ाना चाहते थे और मैं आट्र्स इसलिए अनबन थी और मैं गांव फिर लौट आया जहां से मैंने बीए किया। इस बीच मेरे इकलौते संतानहीन मामा का देहांत हो गया और मुझे मेरे नाना के पास भेज दिया गया कोलकाता, उनके कारोबार में हाथ बंटाने के लिए। वे ठेकेदार थे। मुझे ठेकेदारी भायी नहीं मैं मां बाप के पास लौट आया और वहां हिन्दी से एमए की पढ़ाई करने लगा किन्तु मां बाप से कलह जारी रही और उनके दबाव में अन्ततः कोलकाता नाना जी के पास आ ही गया। एमए की पढ़ायी जैसे तैसे पूरी की थी। कोलकाता में नाना जी के कारोबार में हाथ भी बंटाता और कलकत्ता विश्वविद्यालय से पीएचडी के लिए शोध भी शुरू कर दिया। इस बीच नाना जी का देहांत हो गया। मैंने शौकिया पत्रकारिता भी शुरू कर दी। ठेकेदारी में मन नहीं रमा और आखिरकार कारोबार डूब गया। पत्रकारिता को रोजी रोटी का जरिया बनाने की कोशिश की तो पाया कि जरूरतें पूरी नहीं हो पा रही हैं। शोधकार्य छूट गया। पत्रकारिता के फेर में पत्नी व बेटी को छोड़कर पंजाब (अमर उजाला), मध्य प्रदेश (वेबदुनिया डाट काम), झारखंड (दैनिक जागरण) में रहा। फिर मौक मिल गया सन्मार्ग में और कोलकाता लौट आया। कुछ अरसे बाद फिर से कलकत्ता विश्वविद्यालय से डॉ.जगदीश्वर चतुर्वेदी के निर्देसन में शोधकार्य  किया।
प्रश्न-आपने कब लिखना शुरू किया, लिखने के कारण?
उत्तर-मैं कक्षा सातवीं में था तभी लिखना शुरू कर दिया था। उसके कारण कुछ अज़ीब थे। बाबूजी और मां पाकेट बुक्स के नावेल पढ़ने के शौकीन थे। उन दिनों रानू और प्रेम वाजपेयी के नावेल लोकप्रिय थे जो मेरे घर में आते थे। मौका पाकर मैने उनमें ताक झांक शुरू की तो पाया की रानू के नावेल मुझे अच्छे लगते हैं जिसमें नायक कोई कोई चित्रकार या साहित्यकार होता है। नावेल के चरित्रों का ऐसा मुझ पर प्रभाव पड़ा कि मैंने भी मन ही मन सोचा कि कलाकार बनूंगा। चित्र बनाने का शौक पहले से थे जिसमें मेरी रुचि और बढ़ गयी और साहित्यकार बनने का भी शौक पाल लिया। आरंभिक दौर में मैंने कुछ नावेल और कहानियां लिखीं। जिन्हें मां ने गुस्से में रद्दी के भाव तौल कर बिकवा दिया क्योंकि उन्हें लगता था इससे मेरी पढ़ाई प्रभावित हो रही है। दूसरी ओर रानू के ही नावेल का प्रभाव था कि मैं उस कच्ची उम्र में इश्क़ के चक्कर मे पड़ गया क्योंकि रानू के गरीब नायक बचपन में किसी रईस की बेटी से इश्क़ में पड़ जाते थे। मैंने किसी रईस की खोज शुरू की और कोई नहीं मिली तो अपने बास की हमउप्र बेटी से ही इश्क़ फ़रमाने लग गया जो इस तरह के फितूर से अपरिचित थी। वह पंचगनी में कान्वेंट में पढ़ती थी और छुट्टियों में ही तुमसर अपने पिता के पास आती थी। यहां क्लब में वह मेरे साथ घंटों कैरम व टेबल टेनिस खेलती थी। जब मेरे बीस-बीस तीस-तीस सफे के ख़त उसे पंचगनी के स्कूल में पहुंचने लगे तो वह परेशान हो गयी। उसके स्कूल में आये दिनों के ख़त चर्चा का केन्द्र बन गये और प्रिंसिपल ने ख़त खोलकर पढ़ लिये। मेरी शिकायत तो खैर उसने अपने पिता से नहीं की किन्तु मुझे हिदायत दे दी कि अइन्दा मैं उसे ख़त न भेजूं वरना मेरे बाबूजी की नौकरी ख़तरे में पड़ जायेगी। पर उस लड़की ने मेरे इश्क़ को कोई महत्व नहीं दिया। उसे लिखे लम्बे ख़तों में मैंने कई कविताएं और शेर, ग़ज़लें लिखी थी जिनमें से कई मशहूर शायरों की थी और कई मेरे अपने दिल की बातें थीं जिन्हें मैंने अपनी बेकरारी को अभिव्यक्त करने के लिए कविता की शक्ल दी थी। उन्हीं ख़तों में से एक डाक में पोस्ट करने से पहले ही मेरे स्कूल की वाइस प्रिंसपल के हाथ लगा था जिसे मैंने स्कूल में कक्षाओं में बैठ कर लिखा था। मुझे अकेले कमरे में बुलाकर फटकार तो मिली ही और यह भी पूछा गया कि मैंने यह सब कहां से चुराकर लिखा है। जब पता चला कि कुछ हिस्से मेरे भी लिखे हुए हैं तो मेरी पीठ भी थपथपायी गयी और कहा गया कि मुझमें एक अच्छा कवि बनने की संभावनाएं हैं। फिर क्या था मैं कवि भी बन गया। वह प्यार था या नहीं किन्तु जो थो पीछे छूट गया किन्तु कविता अब भी साथ बनी हुई है। वह अपनी मेरी जीवन प्रक्रिया का हिस्सा बन गयी है। हालांकि अब जब मैं पूछता हूं कि कविता क्यों लिखता हूं तो हर बार जवाब अलग मिलता है। फिर यह भी संदेह होता है कि जो कुछ लिखता हूं वह कविता है भी या नहीं। एक अहसास है भर है। जब मैं किसी के प्यार में होता हूं तो जो कुछ सोचता हूं महसूस करता हूं उसे कविता कह लेता हूं। प्यार करने वाली शै कोई शख्स हो या कोई और वस्तु।
प्रश्न-अब तक कितनी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं?
उत्तर- छह कविता संग्रह-एक अदहन हमारे अन्दर, भग्न नीड़ के आर पार, सरापता हूं, आवारा हवाओं को खिलाफ़ चुपचाप, वह हथेली तथा दी हुई नींद। उपन्यास-अनचाहे दरवाज़े पर, कला बाज़ार एवं कहानी संग्रह तीसरी बीवी।
प्रश्न-आधुनिकता और उत्तर आधुनिकता के बारे में विचार?
उत्तर- यह दोनों पारिभाषिक शब्दावलियां हैं जिनकी साहित्य में लम्बी व्याख्याएं मौज़ूद हैं अपनी तरफ़ से कुछ जोड़ने घटाने की मैंने कभी कोशिश नहीं की।
प्रश्न-उर्दू कविता एवं मिर्जा ग़ालिब की कविता को लेकर आप क्या सोचते हैं?
उत्तर-उर्दू कविता में रस है। एक सम्मोहन है जो आकृष्ट करता है। यह कविता दिल तक सीधे पहुंचती है। इसमें भावात्मकता अधिक है इसके उलट हिन्दी में विचार पक्ष अधिक प्रबल है किन्तु अन्दाज़ शुष्क है। ग़ालिब मुझे कभी बहुत पुराने शायर नहीं लगे। अपनी खूबिया के कारण उन्होंने वक्त के फ़ासले मिटा दिये हैं। मुझे तो वे अहमद फराज़ से एक दो पीढ़ी ही पहले के शायर लगते हैं। मुझे फराज़, मुनव्वर राना, राहत इंदौरी और बशीर बद्र पसंद हैं।
प्रश्न-आपको किन संस्थाओं ने पुरस्कृत किया है?
उत्तर-मुझे आकांक्षा संस्कृति सम्मान, कादम्बिनी लघु कथा प्रतियोगिता पुरस्कार, कौमी एकता सम्मान, डॉ.अम्बेडर उत्कृष्ट पत्रकारिता सम्मान, कबीर सम्मान आदि  मिले हैं। मुझे अभी न तो पढ़ा सुना गया है न ही किसी आलोचक ने विचार करने के क़ाबिल पाया है ऐसे में पुरस्कार का कोई मतलब नहीं, अगर मिले भी तो। इच्छा ज़रूर है कि मिले। पर उससे पहले मुझ पर बात हो। मैं जानता हूं मुझसे कुछ महत्वपूर्ण रचनाएं बन पड़ी हैं जिन पर चर्चा ज़रूर होनी चाहिए। कोई भी अच्छा लिखे तो तो उस पर चर्चा क्यों न हो। मैंने एक दर्जन क्लासिक कविताएं लिखी हैं जिन पर कोई पूछे तो विस्तार से बात करने के तैयार हूं। किसी से भी किसी भी मंच पर।मेरे लिखने के कारण जो भी हों पर यदि अच्छी कविताएं लिखी गयीं हैं तो वे अपना स्थान मांगती हैं। अगर साहित्य में अच्छी चीज़ों के लिए ज़गह नहीं तो यह अफसोसनाक है। मुझे दुःख है कि मैं अपनी अच्छी कविताओं को चुपचाप उपेक्षा की मौत मरते देखता रहा। कभी कहूंगा उनके पक्ष में अगर हैसियत रही। और यह हैसियत तभी बनेगी जब पुरस्कार वगैरह मिलते रहें। वरना कोई हमारी बात पर ध्यान ही क्यों देगा। इधर कुछ कहानियां भी लिखी हैं जिन पर व्यापक चर्चा की ज़रूरत है जिससे समकालीन कहानी का परिदृश्य बदल सकता है।
प्रश्न-कविता रचते समय आपकी मनःस्थित क्या होती है?
उत्तर-मैं जो कुछ लिखता हूं वह उसी समय की मनःस्थिति का बयान नहीं होता। वह रचना क्षण महज़ अरसे से भीतर पल रहे के बाहर आने का क्षण होता है। बहुत चौकन्ना नहीं रहता तब मैं। कुछ लिखने की स्थिति बनती है तो मैं जो भी कागज़ मिल जाये उसी पर लिख लेता हूं। कभी ट्रेन में कभी प्लेटफार्म पर। कभी पैदल राह से गुज़रते हुए। मैं साफ़ सुथरे व कोरे कागज़ पर नहीं लिख पाता। मुझे पता नहीं होता कि कितना क्या लिख पाऊंगा। रद्दी छपे हुई पत्रिकाओं पर खाली जगहें काफी होती हैं। कई बार तो मैं लिखकर भूल जाता हूं और इसी क्रम में लिखा हुआ कई बार शहीद हो चुका है। लिखा हुई फिर याद नहीं आता। कई बार अपने लिखे को पहचानने में दिक्कत होती है कि मेरा ही लिखा है या किसी और का। यह रचना प्रक्रिया कविता की है जबकि कहानी-आलोचना के लिए मैं इतमीनान के साथ बैठता हूं और योजना बनाकर लिखता हूं।
प्रश्न-समकालीन कविता को समृद्ध करने में हिन्दी में लिखी जा रही ग़ज़लों का योगदान?
उत्तर-मुझे लगता है कि ग़ज़ल के मामले में हिन्दी उर्दू का मामला बहुत गौण होना चाहिए। यह साझी विरासत की विधा है कबीर से यदि ग़ज़ल की शुरूआत मानें तो। ग़ज़ल बहुत कम शब्दों बहुत सी बातें बहुत गहराई से कहने की विधा है जिसका साहित्य में जोड़ नहीं।
प्रश्न-हिन्दी आलोचना पर आपके विचार?
उत्तर-यह ऐसी विधा है जिस पर मैं कभी भरोसा नहीं कर पाया मेरे ख्याल से ज्यादातर लोगों की यही स्थिति है।
प्रश्न-क्या लेखकों को किसी लेखक संगठन से जुड़ना चाहिए?
उत्तर-साहित्य एकल परफारमेंस की विधा है। साहित्य की स्थित समाज में ऐसी है कि प्रकाशक, पाठक-श्रोता,मंच सबका टोटा है। ऐसे में किसी संगठन से न जुड़े तो वह और अकेला महसूस करे। जो अकेलेपन से डरते हैं उन्हें जुड़ना चाहिए। आखिर कोई तो हो साथ चलने वाला। इससे लिखते रहने का हौसला बनता है। दूसरा नकरात्मक पहलू यह है कुछ लोग अन्य के कंधों पर चढ़कर किसी खास बुलंदी पर पहुंचने का भरम पालने में कामयाब हो जाते हैं। कई बार अपने जयकारे लगवा कर अपने से अच्छा लिखने वाले को हताश व गुमराह भी कर देते हैं।
प्रश्न-वर्तमान में हिन्दी कविता से सबसे बड़ा महत्वपूर्ण कवि?
उत्तर-केदारनाथ सिंह। लेकिन अपने समय में किसी महत्वपूर्ण कवि का स्थापित और लोकप्रिय होना ख़तरनाक और विडम्बनापूर्ण है क्योंकि उनके समकालीन या उनके समय में लिख रही नयी पीढ़ी उनके रचनाकर्म से प्रभावित होती है और उनका अनुकरण करने लगती है जिससे उनकी मौलिकता प्रभावित होती है और किसी अन्य महत्वपूर्ण कवि के व्यक्तित्व के बनने में बाधक होती है।
प्रश्न-यदि कवि न होते तो?
उत्तर-बहुत सारी मुश्किलें कवि होने के कारण पैदा हुईं। कवि न होता तो मैं टेबल टेनिस या बालीबाल का बेहतर खिलाड़ी होता जो मैं बचपन में था। और नहीं तो अभिनेता होता जिसमें मुझे वाहवाही मिलती थी। यह भी न होता तो चित्रकार होता जिसका बाज़ार है। हालांकि इधर अभिनय और पेंटिंग की दुनिया में थोड़ी सी सक्रियता बढ़ी है किन्तु वह पहचान बना पाने के लिए भी पर्याप्त नहीं है। समय कम पड़ रहा है। यह बात देर से समझ में बात आयी कि मैंने मुख्य तौर पर घाटे का क्षेत्र चुन लिया है। मेरी राय तो यही है कि कोई और चाहे जो कुछ हो ले कवि न बने। कवि होना किसी श्राप का लगना है।

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