9/30/2014

साहित्यिक अड्डेबाज आरके का जाना

राजेन्द्र छात्र निवास, कोलकाता में अपने कमरे में आरके

अपने एक मात्र कविता संग्रह सरकारी लाश के साथ


समय संदर्भ पत्रिका के आखिरी अंक के साथ
-डॉ.अभिज्ञात
आरके जब कुछ माह पहले कोलकाता से अपने गांव लौटे तो किसी को नहीं लगा था कि वे कोलकाता के बिना नहीं रह पायेंगे। कहा-समझा यह जाता है कि मनुष्य अपनी जड़ों से कट जाने के बाद स्वाभाविक जीवन नहीं जी पाता..तो क्या उनकी जड़ें कोलकाता में ही थीं..पिछले सप्ताह की एक मनहूस अलस्सुबह डॉ.कालीशंकर तिवारी ने यह खबर मुझे फोन पर दी कि कल आधी रात को आरके दुनिया से कूच कर गये। अभी कुछ दिन पहले ही ग्रेस सिनेमा के पास घोष केबिन के ऊपर लिए डॉ.तिवारी के कार्यालयनुमा अड्डे पर आरके को बेतरह याद किया जा रहा था..प्रो.विमलेश्वर द्विवेदी, रिटायर्ड बैंक मैनेजर अशोक सिंह, वकील साहब, मैं और एक अन्य कुछ लोगों ने उन्हें खूब याद किया और इस बात को गंभीरता से महसूस किया कि लगभग 45 साल तक कोलकाता रहने के बाद आरके का अपने गांव आज़मगढ़ के मेहनाजपुर लौटना रास नहीं आ रहा है..डॉ.तिवारी ने बताया कि आरके फोन पर बड़ी देर तक बात करते रहे थे और उनकी हार्दिक इच्छा कोलकाता लौटने की थी..इसके पहले भी हम सबने जब फोन पर आरके से बात की थी तो वे कोलकाता लौटने के लिए विकल और विह्वल थे। उनकी बातें फोन पर होम्योपैथी के डॉक्टर उनके छोटे पुत्र संजय सिंह ने सुन ली थी...बाद में उन्होंने फोन पर मुझसे कहा था कि आप लोग पिता जी को कोलकाता आने के लिए फोन पर कहते हैं तो वे बेचैन हो जाते हैं और कोलकाता जाने की ज़िद करने लगते हैं उनकी अवस्था ठीक नहीं है उन्हें कोलकाता न बुलायें...कोलकाता से जाने के बाद गांव में कुछ दिन बाद ही उन्हें हल्का लकवा मार गया था..कोलकाता में जैसी लापरवाह जीवन शैली उनकी थी उसी के बूते वे सत्तर की आयु तक स्वस्थ प्रसन्न थे और गांव में परिवार के बीच जो जीवन शैली उन्हें मिली वह उन्हें कुछ ही दिन में बोझ बन गयी थी...
कोलकाता के राजेन्द्र छात्र निवास के पहले कमरे में एक चौकी उनकी थी और दूसरी किसी और छात्र की..लेकिन यह कमरा कई माइनों में ऐतिहासिक ही नहीं था यह हम लोगों को आखिरी अड्डा था जो कुछ माह पहले आरके के कोलकाता से लौटने के बाद उजड़ गया था..आरके सेंट अल्बनी हाल अंग्रेजी स्कूल में शिक्षक थे..लेकिन उनका डेरा सांस्कृतिक जगत का सार्वजनिक अड्डा था..हम शाम गुलजार रहती थी..हर समय दो चार लोग वहां बैठे मिल जायेंगे और लम्बी लम्बी अन्तहीन बहसों का सिलसिला चलता रहता था...इस कमरे में जनकवि बाबा नागार्जुन महीनों रहे हैं जब भी कोलकाता आते थे यहां जरूर आरके को मेजबानी का अवसर देते..कथाकार अवधनारायण सिंह ने जो अपना उपन्यास धुंध में डूबे लोग उन्हीं की चौकी पर लिखा था...जिसकी कहानी केलाबगान से खलासी टोला के बीच घूमती रहती है.चेन्नै फिल्म इंडस्ट्री में जाने के पूर्व.हृदय नारायण सिंह का यह स्थायी अड्डा था..बरसों बाद अपनी फिल्म प्यार क्या होता है बनाकर कोलाकाता मे रिलीज कराने जब वे यहां आये थे तो यह देखकर हैरत में थे कि कोलकाता में काफी कुछ बदला मगर आरके का अड्डा जस का तस है..। सकलदीप सिंह, राजदेव सिंह कौशन, प्रो.विमलेश्वर, श्रीनिवास शर्मा, विमल वर्मा, डॉ.शरणबंधु, हरेकृष्ण राय विप्लवी, डॉ.शंकर तिवारी, जितेन्द्र धीर, डॉ.रामनाथ तिवारी, मुरारी लाल शर्मा प्रशांत सहित कितने की साहित्यिक लोगों की अनंत यादों का यह अड्डा अंतत उजड़ गया।
आरके उर्फ रवीन्द्र कुमार सिंह समय संदर्भ साहित्यिक पत्रिका निकालते थे जिसके कुछ अंक निकले जो अपनी निर्भीकता और ज्वलंत मुद्दों पर प्रखर दृष्टि के कारण बेहद चर्चित हुए थे..कितने ही नामचीन लेखकों ने इसमें लिखा..और कितने की स्वनामधन्य लेखकों की खोजखबर इसमें ली गयी..कई लोगों को इस पत्रिका का तेवर रास नहीं आता था..लेकिन लघु पत्रिकाओं की ताकत और हस्तक्षेप की भूमिका क्या होती है यह देखना, सीखना और समझना हो तो इसके अंक देखे जा सकते हैं..और इन्हीं कारणों से 'समय संदर्भ' को मतवाला जैसी पत्रिकाओं की कतार में इसे रखा जा सकता है..। जब पत्रिका बंद हो गयी तो पत्रिका की ओर से 'पं.राहुल सांकृत्यायन सम्मान' शुरू किया गया था जो तीन लोगों को प्रदान किया गया..। उन्होंने बहुत कम कविताएं लिखीं मगर उन्हें लगता था कि कविताओं में वे जो कहना चाहते थे वे कह चुके हैं और निरर्थक लेखन की अब कोई आवश्यता उन्हें महसूस नहीं होती,,उनकी वे कविताएं 'सरकारी लाश' नामसे प्रकाशित एक पुस्तिका में संग्रहीत हैं।
दरअसल आरके साहित्य की वाचिक परम्परा के साहित्यकार थे और साहित्यिक दोस्तो से हर समय घिरे रहने के कारण वे जो भी नया पुराना सोचते थे तुरत कह देते थे और कहकर वे संतुष्ट हो जाते थे इसलिए अपनी बात को अभिव्यक्त करने की बेचैनी उनमें नहीं रहती थी और मेरे खयाल से यही वजह है कि बहुत कम लिख पाये..सकलदीप सिंह तो यह सबके सामने कहते थे भी थे कि मैं तो आरके के यहां से जाता हूं तो रोज कविता लिखता हूं..उसके कथन और चुप्पियों, व्यंग्य और कटुक्तियों व उसकी कथन भंगिमा में कविता है..उसकी स्वीकार अस्वीकार से अधिक मारक होता है.राजेन्द्र छात्र निवास से आलोचक अलखनारायण के बाद आरके का भी जाना..उसके साहित्यिक स्वर्णिम अध्याय का अनंत है...फिलहाल इतना ही शेष फिर..।

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