9/16/2016

वे प्रभाकर थे, जो अस्त नहीं होता

डॉ.प्रभाकर श्रोत्रिय को श्रद्धांजलि

-डॉ.अभिज्ञात






प्रभाकर श्रोत्रिय जी ने मेरी कई रचनाएं अक्षरा, वागर्थ व नया ज्ञानोदय में प्रकाशित की थीं l सम्बंध अच्छे थे, कई यादें जुड़ीं हैं, उन पर फिर कुछ कहूंगा, स्वप्न द्रष्टा थे, समर्पित भाव से साहित्य का काम किया, वागर्थ, नया ज्ञानोदय उन्हीं की देन हैl उनका जाना मेरी व्यक्तिगत क्षति भी है, मेरे लिखे की श्रेष्ठता का मूल्यांकन अब न होगा l 1990 आसपास उनसे मेरा पत्र सम्पर्क शुरू हुआ था। उन दिनों वे भोपाल में थे और अक्षरा के सम्पादक थे। रघुवीर सहाय के अंतिम काव्यसंग्रह की समीक्षा उन्होंने अक्षरा में प्रकाशित की थी। फिर कोलकाता में भारतीय भाषा परिषद के निदेशक होकर आये पुराना सम्पर्क प्रगाढ़ होंने लगा। कई कई मुलाकातें उनसे इस दौरान हुईं। वागर्थ निकालने की योजना उन्हीं दिनों बनी थी।
मुझे याद है कि मैथिली के लिए साहित्य अकदमी पुरस्कार प्राप्त मेरे वरिष्ठ मित्र बरौनी से मेरे घर आये थे फिर उन्होंने जिद की कि मैं उन्हें श्रोत्रिय जी से मिला दूं उनके घर जाकर क्योंकि अगली सुबह उन्हें वापस लौटना था। परिषद के उनके आवास में जब हम पहुंचे तो रात साढ़े नौ बज रहे थे, फिर भी उन्होंने बुरा नहीं माना और हमने इतमीनान से बातचीत की थी।
एक कार्यक्रम में वे मेरी पत्नी प्रतिभा सिंह का गायन था जिसमें वे चीफ गेस्ट थे। प्रतिभा का गीत सुनकर उन्होंने उसे साक्षात सरस्वती कहा था। बाद में एक दिन फोन आया कि परिषद के सम्मान समारोह की शुरुआत में सरस्वती वंदना या कोई और ए गीत प्रतिभा को गाना है, उसे भेज दूं। समय कम होने के कारण कार्यक्रम में केवल एक गीत के लिए वाद्ययंत्रों की गुंजाइश नहीं थी और प्रतिभा ने बिना संगीत के गाने से इनकार कर दिया था, तो कुछ दिन वे मुझसे नाराज़ रहे। एक बार वागर्थ में प्रकाशनार्थ मेरी भेजी गयी कविताओं के बारे में कहा कि एक कविता की पांच लाइन पेज से बाहर जा रही है कोई दूसरी दे दो तो मुझे खराब लगा कि साइज के कारण कविता बदली जाये इससे अच्छा होता कि उसे दूसरे पेज पर भी जाने दिया जाये..मैंने कहा कि कविता बदलने से अच्छा है कि उसे काटकर छोटा कर दिया जाये। उन्होंने मुझसे ही यह काम करने को कहा। मैंने फोन पर ही पूछा पहली कविता कौन सी है..उन्होंने बताया तो मैंने कहा कि शुरू की पांच पंक्तियां रेत दें। और वही हुआ और इस प्रकार सिर कलम की हुई एक कविता उनके सम्पादन में प्रकाशित हुई। और मुझे इसमें कोई ऐतराज नहीं। कविता का कोई भी अंश हो वह अपने आपमें स्वायत्त है और उसकी अपनी अर्थवत्ता है। मुक्तिबोध की लम्बी कविताएं कितने ही टुकड़ों में स्वतंत्र रूप में छपी हैं।
फिर जब मैं कोलकाता से अमर उजाला में अमृतसर जालंधर होते हुए इंदौर वेबदुनिया डाटकाम में पहुंचा तो फिर निकटता बढ़ गयी। इंदौर में जब मैं साहित्य चैनल का सम्पादक बना तो उसकी लांचिग उन्हीं के हाथों हुई। वे उन दिनों भाषा परिषद में ही थे। भोपाल में उनका घर था। मैं इंदौर से उन्हें कार से भोपाल उनके घर छोड़ने गया तो यह एक लम्बा 4 घंटे का समय था जब हमने एक दूसरे को और करीब से जाना। फिर तो उनकी बेटी की शादी इंदौर में ही हुई तो उसमें भी शिरकत का मौका मिला।
ज्ञानपीठ प्रकाशन में जब वे निदेशक बनकर गये तो वहां नया ज्ञानोदय निकलना प्रारम्भ किया। उसमें भी मेरी कुछ कविताएं उन्होंने प्रकाशित की। नया ज्ञानोदय की वेबसाइट बनाने का मैंने सुझाव दिया था जो उन्हें पसंद आया था। वेबदुनिया की टीम उसे बना रही थी, अभी उसका बीटा वर्जन तैयार हुआ था कि मैंने वेबदुनिया छोड़ दी थी। ज्ञानपीठ के लिए अपनी किताब की पाण्डुलिपि ही मैं तैयार करता रह गया तब तक उन्होंने उसे छोड़ दिया। बाद में सम्भवतः पूर्वग्रह पत्रिका थी जिसमें मैंने उन्हें कुछ प्रकाशनार्थ भेजा था। उनका फोन आया कि मैं तुमसे सिर्फ बेहतर नहीं उससे भी कुछ बड़कर चाहता हूं जिस दिन तुम कुछ ऐसा लिख सको जिस पर तुम्हें लगे कि वह साहित्य की धारा को प्रभावित करेगा तो मुझे भेजना। बात मुझे चुभ गयी थी। मैं क्या कभी ऐसा कुछ लिख पाऊंगा जो साहित्य की धारा को प्रभावित करे.. ? सवाल ही नहीं उठता ..वे मुझे हमेशा के लिए टाल रहे थे। और मैं उसके बाद उनके सम्पर्क में नहीं रहा..पता नहीं मैं जीवन में कभी कुछ ऐसा लिख पाऊंगा कि नहीं जिसको लिखने के बाद मुझे लगे कि यह साहित्य की धारा को लेशमात्र भी प्रभावित कर पायेगा...फिलहाल यह इतमीनान है कि अब मुझे कभी किसी के समक्ष अपने लेखन को लेकर यह दावा नहीं करना होगा कि यह रही मेरी रचना जो..यह... वह...है।
उनके हाथों मुझे आकांक्षा संस्कृति सम्मान मिला था। आकांक्षा की संस्कृति तो बची है पर महत्वाकांक्षा के अभाव के कारण मुझे कुछ नहीं मिला तो नहीं मिला..
फिलहाल श्रध्दांजलि..उन पर बहुत सी बातें हैं लिखने को जल्द लिखूंगा। वे प्रभाकर ही थे, रहेंगे, प्रभाकर अस्त होता दिखता है पर होता नहीं। उन्होंने विभिन्न पत्रिकाओं में जो सम्पादकीय लिखे, वे उन्हें जीवित रखेंगे। जिन पत्रिकाओं को उन्होंने प्रारूप दिया वे रहेंगी...उनका लिखा नाटक इला रहेगा.. । इस नाटक को मैंने वेबदुनिया में प्रकाशित किया था, जिसे लेकर वे प्रफुल्लित थे। उसका प्रिंट आउट मैं उनकी बेटी की शादी के समय ही साथ ले गया था उन्हें भेंट करने। उन्हें नमन..शेष फिर कभी।

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