6/20/2017

बीसवीं सदी की खदकती कविताएं

पुस्तक का नाम-बीसवीं सदी की आख़िरी दहाई, कविता-संग्रह लेखक-अभिज्ञात प्रकाशक-बोधि प्रकाशन, एफ 77,सेक्टर 9,रोड नम्बर 11, करतारपुरा इंडस्ट्रियल एरिया, बाईस गोदाम, जयपुर-302006 मूल्य-175 रुपये
पुस्तक समीक्षा
- राहुल शर्मा -
 अभिज्ञात समकालीन कविता जगत का एक परिचित नाम है जो अब भारतीय कविता की श्रेष्ठतम दहाई में शामिल हो चुका है। उनका हालिया प्रकाशित कविता संग्रह ‘बीसवीं सदी की आखिरी दहाई’ इस बात की सत्यता को प्रमाणित करता है कि एक अच्छे कथाकार में ही एक सफल कवि का हृदय धड़कता है। इस संग्रह में संकलित कविताएं कई खंडों मे विभक्त है जिस पर अरूण कमल जी ने अपनी सार्थक लेखनी चलाते हुए इसे ‘समय को समझने की कवि मेधा’ कहा है।
संग्रह की भूमिका ही पूरे संग्रह को स्पष्ट कर देती है। बीसवीं सदी वह दौर है जब पूरी दुनिया में एक बदलाव आया जिसका बिम्ब इन कविताओं में नज़र आता है। एक अदहन हमारे अंदर, भग्न नीड़ के आर पार, सरापता हूं, आवारा हवाओं के खिलाफ चुपचाप तथा दी हुई नींद उपशीर्षकों से सजा अनुक्रम समय की भली-भांति पहचान करता जान पड़ता है।
‘एक अदहन हमारे अंदर’ शीर्षक के अंतर्गत आने वाली कविताओं में ‘सच के पास आदमी नहीं है’ कविता समय के सबसे बड़े सच को बयां करती है। यह समय की सबसे बड़ी बिडम्बना है कि हर तरफ़ हज़ार-हज़ार सच के आंखों से देखे जाने के बावजूद भी उस सच के पीछे खड़े होने वाले लोग नहीं। यहां समय की एक ऐसी चाल देखने को मिलती है जिसने सच को उस परछाईं में तब्दील कर दिया है जो साथ तो चलती है पर उसका कोई अस्तित्व नहीं होता।
वर्ष 1988 में पंजाब को संदर्भ बना लिखी गई कविता है ‘आदमी के मांस की गंध’। यह सन 80 का दौर भारतीय इतिहास क एक ऐसा दौर था जिसमें सन 47 फिर से जी उठा, जिसने एक शुबहे को जन्म दिया, विश्वास पर शुबहे को, इंसान का इंसानियत पर शुबहे को। तभी तो वातावरण में फैले आदमी के मांस के गंध, आदमी को भा रही थी। कविता जिस चित्र को पाठकों के समक्ष पेश करती है वह देश का वह राजनैतिक माहौल है जो श्मशान में बदल गया था। यह कविता आज के संदर्भ को दर्शाने में अपनी प्रासंगिक उपस्थिति दर्ज करती है-
वह आदमी ही है/ कितना बड़ा आश्वासन है अखबार/ आदमी के मांस की गंध/ आदमी को भाती है/ इन दिनों यह आम खबर है।
‘एक अदहन हमारे अंदर’ जो कि पुस्तक के पहले अंश का शीर्षक भी है अवसरवादिता पर तंज कसती कविता है। यहां कवि के मानव मनोविज्ञान की गहरी समझ का भी पता चलता है। वह निरंतर एक कश्मकश से गुज़रता रहता है-
हम/ जो कि एक साथ/ पूंछ और मूंछ/ दोनों की चिंता में व्यग्र हैं/ बचाते हैं अपना घर/ जिस पर हम सारी उम्र/ पतीले की तरह चढते हैं।
यही है मनुष्य का वह द्वंद्व जिससे वह आजीवन संचालित होता रहता है।
‘भग्न नीड़ के आर पार’ जिसका प्रकाशन स्वतंत्र संग्रह के रूप में सन 1990 में हुआ इस संग्रह के अंतर्गत आने वाला दूसरा शीर्षक है। इस शीर्षक के अंतर्गत आने वाली कविताओं के केंद्र में ‘भग्न नीड़’ है। ‘भग्न नीड़’ शीर्षक से बात पूरी स्प्ष्ट हो जाती है कि यहां समाज की सबसे मज़बूत इकाई जिसे परिवार के नाम से जाना जाता है मौजूदा दौर में उसके अस्तित्वहीन होने जाने को शीर्षक की कविताओं का केंद्रीय विषय है। इस शीर्षक के अंतर्गत दो कविताएं हैं-
प्रथम खंड: स्त्री और द्वितीय खंड: पुरूष।
प्रथम और द्वितीय खंड की कविताओं के माध्यम से कवि रिश्तों की उन बारीकियों की ओर इशारा करता है जो किसी भी रिश्ते को आगे बढाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। रिश्तों में आ रहे स्खलनों की एक सबसे बड़ी वजह है ‘विश्वास’ का कम होते जाना जिन्हें इन पक्तियों में अनुभूत किया जा सकता है-
मुझे उससे प्यार है/था/ जिस दिन से तुमने ये सिद्ध किया/कराया।/ बस, मैं हो गया पराया॥
सन 1992 में आए संग्रह ‘सरापता हूं’ शीर्षक के अंतर्गत आने वाली कविताएं पिछले शीर्षकों से भिन्न हैं। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि 90 का दौर भारतीय इतिहास में अपनी महत्वपूर्ण स्थिति दर्ज करता है। दूसरे शब्दों में इसे ‘विचारधाराओं की असफलता’ का दौर भी कहा जा सकता है क्योंकि यहीं से पूंजीवाद का छ्द्म चेहरा प्रकट होना शुरू होता है। ‘दूर नहीं है हिमांक’ कविता न केवल ‘सरापता हूं’ शीर्षक को पुख्ता करती है अपितु पूंजीवाद के प्रभाव को भी अभिव्यक्त करती है-
बड़ी तेजी से दुनिया/ व्याकरण से बाहर हो रही है/ दुनिया अपनी कोख में समा जायेगी/ व्याकरण विहीन होकर/ जबकि सब कुछ जल रहा है/ यह जम रही है/ जम कर क्या रह जायेगी दुनिया?
कवि का यह प्रश्न सदी का सबसे बड़ा प्रश्न है जिसमें वह समय के इस बदलाव से चिंतित है और वह उसे बचाने के लिये लिये भी प्रयासरत दिखता है-
व्याकरण से बाहर जाती दुनिया के लिए/ एक व्याकरण/ जो हमारी धमनी में है/ हो सके तो मित्रों, उसे ढूंढो/ और इस निरंतर जमती हुई दुनिया को/ आग से बचाओ।
‘सरापता हूं’ शीर्षक कविता जो सन 1992 में आए संग्रह ‘सरापता हूं’ में संकलित है, परम्पराओं से मुक्ति की छटपटाहट की कविता है दूसरे शब्दों में कहा जाए तो ‘एक निरीह कवि द्वारा अपने पूर्वजों द्वारा प्रदत्त अस्तित्व से मिलने वाली यातना’ से मुक्ति के छटपटाहट की कविता है। जोंक की तरह हमारे शरीर से चिपक गई इन परम्पराओं से मुक्त होकर ही एक नयी सदी जन्म ले सकती है। तभी तो कवि कहता है-
तुमसे सुरक्षित नहीं हूं कत्तई कहीं भी/ मेरी पीठ दुख गई है तुम्हें ढोते-ढोते।
वर्ष 1993 में आया संग्रह ‘आवारा हवाओं के खिलाफ़ चुपचाप’ जो कि ‘बीसवीं सदी की आखिरी दहाई’ संग्रह का चौथा उपशीर्षक है, अपने मिजाज़ से ही वक़्त की विसगतियों को आईना दिखाती हैं। इस उप शीर्षक के अंतर्गत आने वाली कविता ‘लिखा है एक क़िताब में’ कवि उस राजनैतिक विसंगति कि ओर इशारा करता है जो ‘घर की दीवारों को पोस्टरों में’ तब्दील कर रही है। राजनीति की गंदी चाल उस आवारा हवा का रोल प्ले करती है जिसके खिलाफ़ खड़े होने का माद्दा बहुत कम रह गया है या यूं कहा जाए कि है ही नहीं। ‘नागरिक’ होने की महज भूमिका निभायी जा रही है-
हम केवल अपने राशन कार्ड में नागरिकता निभाते हैं/ और डाल दिए जाते हैं/ हमसे पहले ही हमारे वोट/ हम देते रहते हैं धन्यवाद।
यही है आवारा हवाओं के खिलाफ़ चुप्पी जो सदी की सबसे बड़ी त्रासदी है।
सदी की एक और त्रासदी है समस्याओं का बहानों में तब्दील हो जाना और सदी की इस दूसरी सबसे बड़ी त्रासदी को बयां करती कविता है ‘अदृश्य दुभाषिया’। यहां कवि विस्थापन की उस पीड़ा को दर्शाता है जिसमें दुभाषिया विपरीत अर्थ को लेकर प्रकट होता है। दुभाषिया जो एक भाषा की अंतर्वस्तु को दूसरी भाषा में प्रकट करने का कार्य करता है। इस कविता में क़ागज़, अंतर्देशी, लिफ़ाफ़े, पोस्टकार्ड उस दुभाषिये की भूमिका में है जो दर्द के दु:ख को ‘सुख’ कहकर व्यक्त करते हैं-
क्या कागज़, अंतरदेशी, लिफ़ाफ़े, पोस्टकार्ड/ यह गुस्ताख दुभाषिए हैं/ जो समस्या को बहाने में तब्दील कर देते हैं।
‘आवारा हवाओं के खिलाफ़’ जो कि समीक्ष्य कृति का एक उपशीर्षक भी है, शीर्षक कविता व्यक्ति और समाज के बीच की खाई को दर्शाती कविता है जिसके केंद्र में हैं तो बेटियां पर उससे भी बढकर वह बाप है जो निरंतर ‘आवारा हवाओं के खिलाफ़’ ‘चुपचाप’ संघर्ष करता रहता है। अभिज्ञात जी की इस कविता में उनकी गहरी समाजिक दृष्टि और उनका दायित्व बोध स्पष्ट नज़र आता है-
हमें बेटी के लिए/आवारा हवाओं के खिलाफ़/होना होता है चुपचाप खड़ा/पान की दुकान की फ़ब्तियों से डरना/है बेटी का बाप होना।
‘दी हुई नींद’ जिसका प्रकाशन वर्ष 2000 है, अंतिम उपशीर्षक के अंतर्गत आने वाली कविताएं पत्थर होती जाती उस व्यवस्था की शिनाख्त है जिसने मनुष्य की इच्छओं को आक्रमणकारी बना दिया है जिनकी स्पष्ट हूक इनमें सुनाई पड़ती हैं। ये कविताएं एक मिज़ाज़ की कविताएं हैं जिन्होंने कवि की नींद में सेंध लगा दी है और उसकी लेखनी से फूट पड़ी हैं।
उपशीर्षक के अंतर्गत आने वाली कविता ‘विडम्बना’ समाज के उस वर्ग की ओर इशारा करती है जो बौधिक स्तर पर श्रेष्ठ तो है पर यही वर्ग जब बिलल्लेपन का शिकार हो ‘उल्टे’ और ‘सीधे’ के बीच का फ़र्क नहीं समझ पाता तो एक भयानक स्थिति जन्म लेती है –
उन्होंने सोचा/वाह यह भी खूब रही/उन्हें पता नहीं चला कि/वह कलाकृति उल्टी थी/वस्तुत: हो जाना चाहिए सावधान/कि उन्हें पता नहीं चल सका/कलाकृति उल्टी थी।
कवि इसी संदेश को कविता के माध्यम से पूरे समाज में प्रेषित करना चाहता है ताकि इस भयावह स्थिति से बचा जा सके।
जहां तक भाषा की बात है उसमें कवि ‘भाषाओं की चाशनी’ में पगा हुआ है। देशज (अदहन, टोनही) शब्दों के साथ-साथ अंग्रेजी (हिमोग्लोबिन) और संस्कृत (कृत्रिम, विजयोल्लास, अपरास्त आदि) के शब्दों के प्रयोग से कविताएं अपने ‘भावों’ को व्यक्त करने में पूरी तरह से सक्षम हैं। कुल मिलाकर कहा जाए तो ‘बीसवीं सदी की आखिरी दहाई’ बीती शताब्दी का आईना है।

सम्पर्क सूत्र- राहुल शर्मा, ग्राम-कोदालिया, पोस्ट-बंडेल, जिला- हुगली, पिन- 712123 (पश्चिम बंगाल) फोन- 968104094ई-मेल- rahul9681s@gmail.com

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