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5/21/2022
भरोसेमंद हो तो लोकल ही इंटरनेशनल सिनेमा: शिवप्रसाद मुखर्जी
20 मई को रिलीज होने जा रही बांग्ला फिल्म 'बेलाशुरू' में है विवाह के सात संकल्पों की बात
'मार्केट को फॉलो मत कीजिए, मार्केट को फॉलो करने दीजिए'
बांग्ला सिनेमा के महत्वपूर्ण अभिनेता और फिल्म निर्देशक शिवप्रसाद मुखर्जी ने नंदिता राय साथ मिलकर एक दर्जन से अधिक बांग्ला फिल्में बनायी हैं। सौमित्र चटर्जी और स्वातिलेखा सेनगुप्ता अभिनीत उनकी फिल्म 'बेलाशुरू' 20 मई को रिलीज होने जा रही है। प्रस्तुत है इस मौके पर शिवप्रसाद मुखर्जी से उनके निर्देशन में बनी फिल्मों से जुड़े विविध पहलुओं पर की गयी बातचीत के अंशः
दो-दो व्यक्तियों द्वारा निर्देशन की खूबियों की चर्चा करते हुए वे कहते हैं-'फिल्म पहले डायरेक्टर के मन में सपने की तरह होती है, जिसे साकार रूप दिया जाता है। एक सपने को दो लोग कैसे मिलकर उसी तरह पूरा करते हैं जैसे परिवार में होता है। परिवार दो लोगों से बनता है और दो लोगों का लक्ष्य एक हो जाता है। दो लोगों का सपना एक हो जाता है। हमारा सिनेमाम नंदिता राय और शिवप्रसाद मुखर्जी के सिनेमा का एक परिवार है। हम दोनों में उम्र का लगभग बीस साल का फासला है, यह फासला हमारे लिए फायदेमंद साबित हुआ। हम अलग-अलग पीढ़ियों को करीब से समझते हैं, इसलिए हमारी फिल्में अलग-अलग उम्र के लोगों की भावनाओं को सही ढंग से चित्रित कर पाती हैं। हम अलग-अलग उम्र से जुड़े संदर्भों को गहराई से पेश कर पाते हैं। हमारी पहली फिल्म से लेकर हमारी भावी फिल्म सबमें आपको इसका कदम-कदम पर अहसास होगा कि अलग-अलग पीढ़ियों के नजरिये को हमने वास्तविक परिप्रेक्ष्य में रखकर पेश किया है।'
एक अन्य सवाल के जवाब में वे कहते हैं-'फिल्मों की एक दुनिया वह है, जहां घर-परिवार, मित्र, पास-पड़ोस है, दूसरी ओर फेंटेसी है, कल्पना है, चमत्कार है, मारधाड़ और हिंसा है, दूसरी दुनिया और एलियन हैं, दोनों के बीच फिल्मकार को तय करना होता है कि वह कौन सा रास्ता अपनाये। दोनों की तरह की फिल्में भारत में बन रही हैं और दोनों तरह की फिल्मों के दर्शक भी हैं। मैं और दीदी (नंदिता राय) मानते है कि आज का दौर विषयवस्तु को लेकर फिल्में बनाने का है। हमारी नजर में कंटेंट क्या है यह दर्शकों को लिए खास होता है। कंटेंट के साथ न्याय होना चाहिए। उसको गहराई के साथ पेश करने की जरूरत है। हर तरह की रुचि वाले दर्शक हैं। यह जरूरी नहीं है कि सिर्फ चमक दमक वाली या बड़े बजट की फिल्में ही चलती हैं। हमारी नजर में जो जितना लोकल होगा उतना ही इंटरनेशनल होगा। बशर्ते वह भरोसेमंद हो। कई बार एक छोटी फिल्म भी बड़ा कमाल कर देती है। स्त्री, विकी डोनर, जुरासिक पार्क अलग-अलग तरह की फिल्में हैं। हर तरह की फिल्मों के लिए जगह है। जिस फिल्म में चार सौ करोड़ लागत आयी है, उसे हजार करोड़ कमाना होगा। हजार करोड़ कमायेंगे तभी निर्माता को उसकी लागत मिलेगी क्योंकि उसे चालीस प्रतिशत ही मिलता है। उसकी जगह एक किसी ने पांच करोड़ में फिल्म बनायी और उसे मिल गये सौ करोड़ मिल गये तो यह भी एक खास तरह का मुनाफे का हिसाब है। दोनों तरह के परसेप्शन है। पथेर पांचाली को ऑस्कर मिला है, उसे भी सबने देखा है और दूसरी ओर ईरान की फिल्म ‘सन चिल्ड्रन’ है, उसे भी सबने देखा। तो ऐसा कुछ नहीं है कि आपको यही बनाना होगा। फिल्म आपके दिल में है। कुल मिलाकर हमारा मानना है कि-आपके अंदर जो सपना है उसका पीछा कीजिए, उसे पूरा करने की कोशिश की कीजिए, इसका पीछा मत कीजिए कि बाजार में क्या चल रहा है या फिल्म समीक्षक क्या कह रहे हैं। वह फिल्म बनानी चाहिए जो आपके अंदर की आवाज हो। हमने इसी सूत्र पर हर फिल्म बनायी। जो विषय अंदर से लगा कि अच्छा लग रहा है, उसे बनाया। हमारी स्पष्ट राय है-मार्केट को फॉलो मत कीजिए, मार्केट को आपको फॉलो करने दीजिए।'
कोरोना काल के फिल्मों की दुनिया पर असर के बारे में वे कहते हैं-'कोरोना काल ने कलाकारों के अंदर के काफी कुछ अतिरिक्त भर दिया है। इस ढाई साल की अवधि में सोचने का काफी मिला। दिमाग में इतनी कहानियों ने जन्म लिया कि लगता है उस पर दस साल तक फिल्में बनती रह सकती हैं। अब तो हड़बड़ी लगती है कि जल्द से जल्द कहानियों पर फिल्में आ जायें। जो गतिरोध था वह तीव्र गति पकड़ना चाहता है।'
अपनी कहानियों के प्लाट चुनने के संदर्भ में वे कहते हैं-'मैं और दीदी यह मानते हैं कि अपने चारों तरफ ठीक से देखने की जरूरत है। यदि आस-पास की दुनिया ठीक से देख ली जाये तो संभवतः पूरी दुनिया देख लेने जैसा ही है। कहा जाता है कि गणेशजी को दुनिया की परिक्रमा करने को कहा गया तो उन्होंने अपनी माता के चक्कर लगाये थे। मैं अपनी बात करूं तो मेरी मां 85 साल की है। उनके सामने बैठता हूं तो एक कहानी मेरे सामने उभरती है। मेरे घर में काम करने वाली मासी आती है, उसके बात करता हूं तो एक कहानी मिल जाती है।
पाकिस्तान के 85 साल की बुजुर्ग की समस्या उठाइये तो वह भारत के एक बुजुर्ग की भी समस्या दिखायी देगी। पूरी दुनिया में एक सी कहानी सबकी है। 'बेलाशुरू' टूटे परिवार की कहानी है। सिर्फ कोलकाता या भारत की समस्या नहीं है, बल्कि सारी दुनिया की समस्या है। आज के दिन हम लिव इन रिलेशन में जा रहे हैं। लगता है कि हममें प्रतिबद्धता की कमी है। 'बेलाशुरू' में हमने परिवार के टूटते जाने की समस्या को उठाया है। एक साल भी पूरा होता और शादी टूटने की स्थिति में पहुंच जाती है। लाइफ फास्ट हो गयी है। युवा यह देखकर आश्चर्य करते हैं कि कैसे दो लोगों ने एक दूसरे के साथ पचास साल बिताये। मैं जब घर में देखता हूं कि मेरी मां पापा का जूता साफ कर हर दिन रखती हैं। चश्मा साफ कर रखती हैं और विश्वास करती हैं कि वे अभी भी हैं। जबकि मेरे पापा उस समय गुजर गये, जब मैं इक्कीस साल का था। यही है वह प्रेम है, जिसे शाहरुख खान-एकतरफा प्यार कहते हैं। युवा यही ढूंढ रहा है। कहानी हमारे घर में है। हम घर को नहीं देख रहे हम बाहर जा रहे हैं। यही 'बेलाशेषे' में सभी को पसंद आया था। सभी को लगा कि अरे यह तो हमारे घर की कहानी है।'
अपनी फिल्मों की खूबियों को शिवप्रसाद मुखर्जी महेश भट्ट के शब्दों में वे बयान करते हैं। वे बताते हैं-'जब 'बेलाशेषे' रिलीज हुई थी, महेश भट्ट ने देखा था। उन्हीं दिनों 'बाजीराव मस्तानी' भी रिलीज हुई थी। महेश जी ने कहा-दो तरह की फिल्म होती हैं। एक जो तन कर खड़ी हैं और कहती हैं देखो, इस फिल्म में यह है वह है, तमाम चमक-दमक है और एक कहानी आपकी है। मुंबई के एक चाल की तरह की तरह। बाहर की दुनिया का सब कुछ सबको मालूम होता है किन्तु चाल के अंदर जब जायेंगे तो पता चलेगा कि घर के अंदर घर और फिर घर के अंदर घर हैं। चाल में कितने आदमी हैं, कितने रिलेशनशिप हैं। अचानक लगेगा कि इतना कुछ है। यह बहुत बड़ा है। आपके फिल्म की कहानी ऐसी ही है।'
वेबसीरीज के निर्माण और निर्देशन के सम्बंध में वे कहते हैं-'वेबसीरिज अभी किया नहीं। उसका भी एक साइंस है, उसे अभी समझा नहीं, समझ पाये तो बनायेंगे।'
फिल्म से मिले पुरस्कारों के सम्बंध में वे कहते हैं-'सबसे बड़ा एवार्ड मिला है दर्शकों का प्रेम। 'बेलाशेषे' ऐसी फिल्म रहे जिसे कोलकाता के मारवाड़ी, पंजाबी, सिन्धी, गुजराती, मलयाली, मराठी आदि गैर बंगाली समुदाय के लोगों ने देखी। यह अब तक का रिकार्ड रहा है।'
'बेलाशुरू' की सबसे खास बात के सवाल पर वे कहते हैं-'बेलाशुरू में सिर्फ प्यार है। कोणार्क के सूर्य मंदिर का भी सीन है और वहां का संवाद दिल को छूने वाला होगा। सूर्य के सात रंग हैं। सूर्यदेव के सात घोड़े हैं। शादी के सात फेरे होते हैं। हर फेरा एक संकल्प है। फिल्म में शादी के सातों संकल्पों की बात है।'-डॉ.अभिज्ञात
साभारः सन्मार्ग
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