पुस्तकों का प्रकाशन विवरण
- लेखकों के पत्र
- कहानी
- तीसरी बीवी
- कला बाज़ार
- दी हुई नींद
- वह हथेली
- अनचाहे दरवाज़े पर
- आवारा हवाओं के ख़िलाफ चुपचाप
- सरापता हूं
- भग्न नीड़ के आर पार
- एक अदहन हमारे अन्दर
- खुशी ठहरती है कितनी देर
- मनुष्य और मत्स्यकन्या
- बीसवीं सदी की आख़िरी दहाई
- कुछ दुःख, कुछ चुप्पियां
- टिप टिप बरसा पानी
- मुझे विपुला नहीं बनना
- ज़रा सा नास्टेल्जिया
- कालजयी कहानियांः ममता कालिया
- कालजयी कहानियांः मृदुला गर्ग
3/16/2024
क्या लेखक अंडा सेने वाली मुर्गी है?
-डॉ.अभिज्ञात
साभारः नवभारत,भोपाल, 17.03.2024
जल्दबाजी में किया गया लेखन क्या घटिया होता है..यह प्रश्न दिमाग मैं कौंध रहा है। खूब सोच समझकर किये गये लेखन का क्या अर्थ होता है? क्या यह सोचना कि हमारे लिखने से क्या फायदा होगा, कौन प्रभावित होता, किसके हित में होगा, इस लिखे से कहीं कोई व्यक्तिगत क्षति तो नहीं होगी, ऐसा क्या लिखूं कि क्रांतिकारी भी बना रहूं और सम्मान भी मिले। इतना समय लिखने में ले लूं कि उसकी प्रासंगिकता खो जाये और नाम भी होता रहे कि उस दौर पर कितना मानीखेज और संगीन लिखा था.. लिखे से कौन खुश या नाराज होगा...यह तोल-तोल कर लिखा गया क्या लेखन है..? क्या कालजयी, महान और शाश्वत जैसा कुछ लिख पाने की आकांक्षा में मैं अपने उस लेखन को स्थगित रखूं, जो मेरे और मेरे जैसे तमाम छोटे-मोटे मामूली लोगों की मामूली चाहतों, खुशियों, दुःख-दर्द को तुरत -फुरत में व्यक्त करता है। मैं तो बस उस कौंध को पकड़ जल्द से जल्द लिपिबद्ध करना चाहता हूं. जो विलम्ब होते ही कहीं खो जाती है..शायद वहीं लौट जाती होगी जहां से वह आयी। कई बार बाथरूम में उपजा खयाल बाथरूम से बाहर निकलते ही कहीं गुम हो जाता है और लाख कोशिश करो फिर नहीं मिलता। कई बार सोते समय आया विचार बिस्तर छोड़कर लिपिबद्ध करने उठो तो वह हवा हो गया.. कभी तनहाई में तो कभी भीड़ में, कभी किसी से बातचीत के दौरान कोई बात टकराती है तो सहसा एक कौंध उठती है.. कभी कहानी के रूप में कभी शेर या कविता के रूप में। कौंध से बनी कहानी के अंगों को सजाने- संवारने के क्रम में उपन्यास बन जाये तो क्या कहने।
याद करने बैठता हूं कि क्या यह केवल मेरे साथ होता है या और साहित्यिक लोगों के साथ भी। क्या मैं कुछेक न लिखने का कारण की कैफियत देने वालों की बात मानते हुए अपने किसी ठूंठ खयाल को अंडा समझकर लम्बे अरसे तक सेता रहूं कि कुछ उसमें से फूटकर किसी महान साहित्यिक कृति का चूजा निकलेगा.. आलोचक डॉ.नामवर सिंह के बारे में पढ़ा था उन्होंने अपनी ‘छायावाद' पुस्तक 10 दिन में ‘कविता के नए प्रतिमान’ 21 दिन में और ‘दूसरी परम्परा की खोज’10 दिन में लिखी थी। क्या जल्दबाजी के कारण उनकी रचनात्मकता प्रभावित हुई। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर याद करता हूं उपन्यासों के संदर्भ में तो सुना था कि जॉन बॉयन ने 'द बॉय इन द स्ट्राइप्ड पजामा' उपन्यास ढाई दिन में और रॉबर्ट लुई स्टीवेंसन ने 'स्ट्रेंज केस ऑफ डॉ.जेक़ेब एंड मिस्टर हाइड' तीन दिन में लिखा था। हालांकि स्टीवेंसन की पत्नी को यह उपन्यास पसंद नहीं आया तो पाण्डुलिपि जला दी। उसे फिर से लिखा तीन दिन में। कुल छह दिन में उपन्यास तैयार। एंथोनी बर्गेस ने 'ए क्लॉकवर्क ऑरेंज' और आर्थर कॉनन डॉयल ने 'ए स्टडी इन स्कारलेट' तीन-तीन सप्ताह में लिखे। दोस्तोयेव्स्की ने 'द गैम्बलर' उपन्यास 26 दिन में लिखा था। इस बीच वे ‘क्राइम एंड पनिश्मेंट’ भी लिख रहे थे। क्या यह सब कृतियां कम जिम्मेदारी के साथ लिखी गयीं..जी नहीं सृजन एक आग है, भड़कती है तो तेजी से फैलती है।
आर्थिक तंगी और शराब की लत से मजबूर होने के दौर में मंटो से शराब के पैसे के लिए कई अखबारों के सम्पादकों ने उनसे अपने दफ्तर में बिठाकर कहानियां लिखवाईं। अखबारों के दफ्तर में 20 दिन में उन्होंने 20 कहानियां लिखी थीं और उसी समय पैसे दिये थे ताकि वे उससे शराब खरीद सकें। वे कहानियां बेहतरीन मानी गयीं। मंटो ने अपनी केवल 42 साल 8 महीने की जिन्दगी और 19 साल के साहित्यिक जीवन में एक उपन्यास, 230 कहानियां जो 22 कहानी संग्रहों में हैं, 67 रेडियो नाटक, 22 शब्द चित्र और 70 लेख लिखे। कई फिल्मों की कहानियां और पटकथाएं भी।
अंदर कुछ नहीं है तो इन्तज़ार कीजिए लेकिन जब कोई रचना अंदर से फूटेगी तो वह वक्त नहीं लेगी। हां काट-छांट जिन्दगी भर करते रहिए किसने रोका है। लगातार लिखते रहने का बस एक ही रास्ता है दुनिया के हो जाओ। उसके दुःख-दर्द में रम जाओ। दूसरों की खुशी में भी खुश होना सीखो..दूसरों से जुड़ोगे तो उन्हें समझोगे और समझोगे तो दूसरों को दुख भी मथेंगे, दूसरों की खुशी में भी प्रफुल्लता महसूस होगी.और लिखे बिना रह नहीं पाओगे..पाओगे इतना कुछ है लिखने को। बनावट तो लिखनी नहीं है कि सोचना पड़े। भाषा पर पकड़ और रवानी होनी चाहिए। भाषा से खेलना आना चाहिए। यह तो किसी भी लेखक की पहली शर्त होती है। संकेतों में कहना तभी आयेगा, जब शब्दों से खेलना आ जाये। मैं बहुत कम समय के लिए बांग्ला साहित्यकार महाश्वेता देवी के करीब रहा..उस दौरान उन्हें मां कहने लगा था। उनका जीवन देखा तो पाया कि तमाम आदिवासी समुदाय के लोगों के मुकदमों की फाइलें उनके यहां पड़ी हैं। उनकी समस्याएं वे सुन रही हैं..उनके दुख सुख को समझ रही हैं तो उनके पास न कथाओं की कमी थी और ना ही कुछ सोचने की फुर्सत..उन्हें तो बस अपने आस -पास से लोगों का दुःख दर्द लिखना था..विश्राम कैसा..उनके पास किसी वायवीय अंडे पर बैठकर उसमें से फूटकर निकलने वाले चूजे का इन्तजार करने की फुर्सत नहीं थी..।
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