साभारः डेली न्यूज़, जयपुर, 3 अगस्त 2014 |
अभिज्ञात के कविता संग्रह खुशी ठहरती है कितनी देर के लोकार्पण समारोह के अवसर पर कवि केदारनाथ सिंह के साथ नवारुण भट्टाचार्य |
-डॉ.अभिज्ञात
साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता बांग्ला उपन्यासकार-कवि नवारुण भट्टाचार्य नहीं रहे। उनके निधन से साहित्य जगत ने वामपंथी सोच की वैज्ञानिक समझ रखने वाला एक दार्शनिक और बदलाव को लगातार बेचैन बना रहने वाला जमीनी कार्यकर्ता खो दिया है। वे वंचित आदिवासी समुदाय और कुचले जा रहे मेहनकशों की तकलीफों से परत-दर-परत वाकिफ थे व उनकी मुश्किलों को दूर करने में जुटे दिखायी देने वाले वामपंथी व गैरवामपंथी विचारधारा वाले दलों के सत्ता में आने के बाद उनकी प्रतिबद्धता से स्खलन और वादों को पूरा करने में विफलता के कारकों से भी परिचित व क्षुब्ध थे। उनके खिलाफ मुखर भी थे। उनकी लेखनी के निशाने पर वामपंथी और गैरवामपंथी दोनों सरकारें आयीं। पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार से मोहभंग के बाद ममता बनर्जी से उन्हें उम्मीद बंधी थी कि राज्य के हालात बदलेंगे और कल कारखानों के मजदूरों से लेकर जंगल महल के आदिवासियों को उनका हक मिलेगा। उनका जीवन यापन आसान होगा किन्तु तृणमूल सरकार भी उनकी उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी। उनका क्षोभ किशन जी की मौत के बाद खुलकर सामने आया।
प्रसिद्ध साहित्यकार महाश्वेता देवी एवं अभिनेता बिजन भट्टाचार्य के इकलौते पुत्र नवारुण कैंसर से पीडि़त थे और कुछ दिन पहले उन्हें ठाकुरपुर कैंसर अस्पताल, कोलकाता में भर्ती कराया गया था। 31 जुलाई की शाम उनकी जिन्दगी की आखिरी शाम साबित हुई। उनके पहले उपन्यास 'हरबर्ट' के लिये 1993 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला और 2005 में इसी नाम से सुमन मुखोपाध्याय ने इस पर एक बांग्ला फिल्म बनायी थी। निर्देशक ने उनकी एक अन्य किताब 'कंगाल मलसत' पर भी फिल्म बनायी। हालांकि नवारुण अपनी कविताओं के लिए भी जाने जाते हैं। साहित्य अकादमी के अलावा नरसिंह दास पुरस्कार और बंकिम पुरस्कार भी उन्हें मिले। वे बांग्ला साहित्यिक पत्रिका 'भाषाबंधन' का संपादन करते थे, जिसमें विश्व कविता के अलावा हिन्दी के भी कई महत्वपूर्ण कवियों की रचनाओं के बांग्ला अनुवाद प्रकाशित हुए। उनका जन्म 23 जून 1948 को पश्चिम बंगाल के बरहमपुर में हुआ था। सिंगुर गांव की तापसी मलिक की मौत पर उन्होंने महत्वपूर्ण कविता लिखी थी। तापसी ने अपनी ज़मीन टाटा को देने से मना कर दिया। उसके साथ एक रात बलात्कार हुआ और उसे जि़ंदा जला दिया गया.. नवारुण ने लिखा-'जो भाई निरपराध हो रही इन हत्याओं का बदला लेना नहीं चाहता/मैं उससे घृणा करता हूं.../जो पिता आज भी दरवाजे पर निर्लज्ज खड़ा है/मैं उससे घृणा करता हूं../चेतना पथ से जुड़ी हुई आठ जोड़ा आंखे*/बुलाती हैं हमें गाहे-बगाहे धान की क्यारियों में/यह मौत की घाटी नहीं है मेरा देश/जल्लादों का उल्लास मंच नहीं है मेरा देश/मृत्यु उत्पत्यका नहीं है मेरा देश/मैं देश को वापस अपने सीने में छूपा लूंगा...*(सत्तर के दशक में कोलकाता के आठ छात्रों की हत्या कर धान की क्यारियों में फेंक दिया था। उनकी पीठ पर लिखा था देशद्रोही..) वामपंथी सरकार के खिलाफ इस कविता ने लोगों को लामबंद किया। माओवादी नेता किशनजी की हत्या पर भी नवारुण ने एक कविता लिखी-'गौरैया'। उसमें उन्होंने ममता बनर्जी की सरकार के खिलाफ आवाज बुलंद की है-'शराब नहीं पीने पर भी/स्ट्रोक नहीं होने पर भी/मेरा पांव लडख़ड़ाता है/भूकंप आ जाता है मेरी छाती और सिर में/मोबाइल टावर चीखता है/गौरैया मरी पड़ी रहती है/उनका आकाश लुप्त हो गया है/तस्करों ने चुरा लिया है आकाश/पड़ी रहती है नितांत अकेली/गौरैया/उसके पंख पर जंगली निशान/चोट से नीले पड़े हैं होंठ व आंखें/ पास में बिखरे पड़े हैं घास पतवार, एके फोर्टिसेवेन/इसी तरह खत्म हुआ इस बार का लेन-देन/जऱा चुप करेंगे विशिष्ट गिद्धजन/रोकेंगे अपनी कर्कश आवाज़/कुछ देर, बिना श्रवण यंत्र के, गौरैया की किचिर-मिचिर/सुनी जाए।'
नवारुण दा से मेरी कुछ मुलाकात हुई थीं। कुछेक सभाओं में भी उन्हें वक्ता के तौर पर सुना था। एक बार ए एस-1,गोल्फग्रीन, कोलकाता-700095 स्थित उनके फ्लैट पर भी जाना हुआ। उनसे डेढ़-दो घंटे खुलकर साहित्य व विचारधारा पर बेतकल्लुफी से बातचीत हुई। मैने पाया कि वे इस बात को लेकर चिन्तित थे कि संसद में करोड़पती सांसदों की संख्या आधे से अधिक है। यह देश की राजनीति के लिए खतरनाक है। आम आदमी की आवाज सुननेवाला कहां है? उनकी नजर में भारत की सबसे बड़ी समस्या असमानता थी। पश्चिम बंगाल के लालगढ़ में पनप रहा असंतोष उसी का नतीजा है। आजादी के कई साल बाद भी वहां विकास नहीं हुआ। वे मानते थे कि सिर्फ पुलिस या सेना भेजकर सरकार हालात पर काबू नहीं पा सकती। इससे जनता में प्रतिरोध बढ़ेगा। पश्चिम बंगाल में वामदलों की चुनाव में जो दुर्दशा हुई है उसका कारण उसकी जनविरोधी नीतियां हैं। नक्सलियों की समस्या के बारे में वे मानते थे कि उसके सभी ग्रुप माओवादी नहीं हैं। सरकार की नक्सलियों के साथ वार्ता जरूरी है। सरकार को माओवादियों के साथ मीडिया के जरिये नहीं बल्कि सीधे बातचीत करनी चाहिए। इस बातचीत में सिविल सोसायटी की बात को भी सुनी जानी चाहिए। सरकार जिस तरह नक्सलवाद का दमन कर रही है उससे देश के वामपंथी बुद्धिजीवी आतंकित महसूस कर रहे हैं। लेखन की प्रतिरोध की शक्ति बनाये और बचाये रखनी चाहिए।
हिन्दी लेखकों में राजकमल चौधरी को भी वे महत्वपूर्ण लेखक मानते थे। उन पर अश्लीलता के आरोपों को भी वे दरकिनार कर गये। केदारनाथ सिंह की कविताएं भी उन्हें अच्छी लगती है क्योंकि उसमें किसानों के भविष्य की भी चिन्ता है। किसानों शक्ति को केदार जी पहचानते हैं। मनमोहन सिंह की आर्थिक मोर्चे पर उपलब्धियों पर उनका कहना था कि बिजनेस का टर्नओवर बढऩे से कोई देश सुपर पावर नहीं हो सकता। लेखकों के बारे में वे मानते थे कि सच्चे लेखक का जीवन व उसका दर्शन व विचार समाज से बंधा होता है। यही सच्ची प्रतिबद्धता है। नवारुण दा की इच्छा पर मैंने अपनी कुछ कविताएं उन्हें सुनायी थीं। उन्हें मेरी कविताओं में जो सबसे अच्छी बात लगी थी, वह स्थानीयता की छाप। उन्होंने मेरे कविता संग्रह खुशी ठहरती है कितनी देर का लोकार्पण भी किया था केदारनाथ सिंह के साथ। नवारुण दा का न होना मेरी व्यक्तिगत क्षति भी है। उन्होंने मेरी कई कविताएं भाषा बंधन में प्रकाशनार्थ ली थी और मेरा संग्रह भी बांग्ला में प्रकाशित करना चाहते थे, जो अब न होगा। मुझे नवारुण दा की कविताएं अधिक प्रिय थीं। उनके जैसे संवेदनशील प्रतिबद्ध बुद्धिजीवी कम होंगे। उनसे अंतिम मुलाकात बहुत संक्षिप्त थी। लगभग डेढ़ वर्ष पहले कोलकाता बुकफेयर में...श्रीलाल शुक्ल पर मृत्युंजय कुमार सिंह व अन्य की एक परिचर्चा में शामिल होने गया था लौटते समय एकाएक वे दिख गये। पता चला भाषाबंधन का स्टाल वहीं है। वह पांच मिनट की मुलाकात हमारी अंतिम मुलाकात होगी, नहीं पता था।
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