2/23/2009

कामरेड और चूहे


हंस के दिसम्बर 2008 अंक में प्रकाशित हुई अभिज्ञात की कहानी 'कामरेड और चूहे' खासी चर्चा में है। अब तक एक कवि के तौर पर पहचाने जाने वाले अभिज्ञात की पहचान इधर एक कथाकार के तौर पर भी पुख्ता हो चली है। इस कहानी में उन्होंने व्यवस्था की जो छवि प्रस्तुत की है वह हतप्रभ करने वाली है। इसके सम्बंध में हंस में प्रकाशित टिप्पणियां गौर तलब हैं-कहानी कामरेड और चूहे पढ़कर मन में अजीब सी पीड़ा महसूस हुई कि इस आपराधिक समाज में जहां मनुष्य हर चीज़ का सौदा कर रहा।-नीना श्रीवास्तव, किदवई नगर, कानपुर नगर (हंस फरवरी 2009/पृष्ठ 7) कामरेड और चूहे कहानी भी अच्छी लगी है। पढ़कर देहदान की धारणा ही बदल गयी जो इंसान और चूहे में कोई फर्क़ नहीं समझता। कोई अपने प्रिय की भलाई के लिए दान कर देता है और उसकी ऐसी दुर्दशा। इससे अच्छा है मृत शरीर को चील-कौवों को डाल दें। कम से कम किसी का जीवन तो बचेगा। -संध्या मिश्रा, कानपुर (हंस फरवरी 2009/पृष्ठ 7) कहानी कामरेड और चूहे (अभिज्ञात) के प्रो.डीडी झा के शव का टुकड़ों-टुकड़ों में बेचा जाना आज के लूट-खसोटमय समाज पर सटीक व्यंग्य है।-सुषमा देवी, हैदराबाद (हंस फरवरी 2009/पृष्ठ 9) वैसे उक्त अंक में ख़्वाजा साहब, अभिज्ञात और चावला जी की कहानियां अच्छी लगीं। -महेन्द्र सिंह, नयी दिल्ली ( हंस जनवरी 2009/ पृष्ठ11) प्रस्तुत है कहानी
-कामरेड और चूहे-
अन्ततः प्रोफेसर डीपी झा ने देहदान का फैसला ही किया। उनकी ज़िन्दगी एक आदर्श थी और वे चाहते थे उनकी मौत भी आदर्श बने। उनके दोस्तों ने ठीक ही सुझाव दिया था कामरेड अनिल विश्वास ने भी तो यही किया था कोलकाता में। उन्होंने देहदान किया था। जो विचारधारा कहती है उस पर चलने में कोई दुविधा नहीं आनी चाहिए। खास तौर पर जीवन मृत्यु से जुड़े प्रश्नों पर। जीवन क्यों का उत्तर जिसने खोज लिया हो उसे मृत्यु कैसी का हल भी स्पष्ट और निर्विवाद खोज लेना चाहिए। मार्क्सवाद को अपनाने के बाद वे यूं भी ब्राह्मण कहां और कैसे रह गये थे। वे एक नयी समाजव्यवस्था से जुड़ गये थे जहां सभी बराबर थे। कोई द्विज नहीं था। सबका एक ही बार जन्म था सबकी एक ही गति होनी थी। देवदत्त झा कैंसर से पीड़ित थे। डॉक्टरों ने सप्ष्ट बता दिया था कि वे कुछ ही माह के मेहमान रह गये हैं। उन्होंने अपने बचे खुचे जीवन के अपने बचे कार्यों को निपटाने और अस्तव्यस्त कार्यों को तरतीब देने में लगाया। अपने मृत्यु के प्रश्न पर भी वे इस तरह से बातें करते थे जैसे किसी और व्यक्ति को लेकर हो अथवा किसी अन्य विषय पर बात हो रही हो। परिवार धीरे-धीरे इसका अभ्यस्त हो चला था क्योंकि उसके पास इसके अलावा कोई और चारा भी नहीं था। एक व्यक्ति जो जान गया हो कि उसकी मौत पास है और तय है उसके सामने उससे सहानुभूति जगा कर पूरे प्रसंग को कातर बनाने में किसी की भलाई नहीं थी। दूसरे पहले पहल यह सब कुछ बतियाना अज़ीब लगा था किन्तु धीरे-धीरे पत्नी और बेटी दोनों अभ्यस्त हो गये। प्रो. झा के घर आने जाने वाले प्रायः सभी व्यक्ति उनसे उनके जीवन पर खुल कर बातें करते क्योंकि स्वयं झा जी को इससे कतई गुरेज नहीं था। उन्होंने एलआईसी वालों से स्पष्ट बातें कर ली थी और मृत्यु के बाद के मुआवजे आदि के सम्बंध में पत्नी को ठीक से समझा दिया था। कालेज से अपनी पावती आदि के मसले को भी वे व्यवस्थित कर चले थे। चाहते थे वे यह भी थे कि बेटी के हाथ भी पीले कर जायें किन्तु उसमें अभी देर थी। बेटी जिसे पसंद करती थी वह एमबीए के बाद ही विवाह करना चाहता था जिसमें अभी पूरे एक वर्ष से अधिक समय लगना था जबकि उनके पास कुछ ही महीने थे अधिक से अधिक। फिर भी वे लड़के से बीच बीच में मिलते रहते थे। प्रो.झा ने तीन उपन्यासों का प्लाट बना रखा था जिस पर वे सैकड़ों सफे रंगना चाहते थे किन्तु जीवन कम बचा होने की जानकारी मिलने के बाद उन्हें लम्बी कहानिओं की शक्ल में निपटा डाला। उन पत्रिकाओं को ही दिया जो उनके जीते जी प्रकाशित करने को तैयार थीं। कुछेक पत्रिकाएं के लिए इंटरव्यू भी दिये और एक पत्रिका को यह कहकर इंटरव्यू दिया कि वह उनका आखरी इंटरव्यू होगा जो उनकी मौत के बाद प्रकाशित होगा। अपनी मौत का समाचार तक तैयार कर बेटी को समझा दिया था कि उसकी प्रतियां किस किस को किस नम्बर पर फैक्स करना है। कुछ तस्वीरें भी बनवा कर रख थी थी। अपनी सात पुस्तकों की कुछ प्रतियां उन्होंने प्रकाशकों के यहां से लेकर घर में रख दी थी जिसे उनकी मौत के बाद उन्हें याद करने वाले चाहें तो देख लेंगे। पुस्तकों की कापी राइट पत्नी के नाम करवा दी थी। पसंदीदा जगहों पर घूम आये। मनपसंद व्यंजन बनवा कर खा लिए। अपनी कालेज के दिनों की प्रेमिका से मिल आये, जो अब तीन बच्चों की मां हो चुकी थी। हालांकि उसको यह नहीं बताया कि वे जीवन की सांध्यबेला में हैं। आखिर 48 की उम्र जाने की तो होती नहीं। लेकिन प्रो. झा को मिली हुई ज़िन्दगी से कुछ खास गिला नहीं था। उनके मन में कोई उलझन भी नहीं थी। वे मौत के लिए पूरी तरह से तैयार थे। तीन कमरे का एक घर उन्होंने कुछ साल पहले ही बनवा लिया था। थोड़ी सी खाली ज़मीन भी थी जहां फूल और थोड़ी बहुत सब्जियां लग जाती थीं। उनका पीएफ ग्रेज्युटी, विधवा पेंशन आदि उनकी पत्नी के जीवन के लिए पर्याप्त थे। बेटी को पढ़ा लिखा दिया था। छोटी मोटी नौकरी भी लग गयी थी तीन माह पहले। अन्तिम प्रश्न अंतिम संस्कार को लेकर ही था जो हल कर लिया गया था। पत्नी की इच्छा थी कि जब वे हिन्दू क्या किसी धर्म को मानते ही नहीं हैं तो क्या फर्क पड़ता है कि अन्तिम संस्कार इस्लाम के अनुसार हो और उन्हें घर के परिसर की जमीन पर ही दफ़न कर दिया जाये। वहां उनका मज़ार बने। इससे उनके आसपास होने का अहसास बना रहेगा। उनके चाहने वाले उनके मज़ार पर आयेंगे तो उन्हें याद करेंगे। उनके साथ प्रो.झा की बातें शेयर करना उन्हें अच्छा लगेगा। बेटी के मन में कुछ और था। वह चाहती थी हिन्दू रीति-रिवाज़ से उनका अन्तिम संस्कार हो। वह अपने पिता को मुखाग्नि देगी। लड़कियों को इस अधिकार से वंचित रखा जाता है यह उसका प्रतिकार होगा। वह मुंडन भी कराना चाहेगी। आखिर वह अपने पिता के शोक में यह क्यों न करे। रहा सौन्दर्य का प्रश्न तो उसे अपने पिता पर गर्व है। ऐसा करते हुए उसे संतोष होगा और वह दुनिया की खूबसूरत बेटियों की तुलना में अपने को ज्यादा सुन्दर महसूस करेगी क्योंकि ऐसा करके वह अपने पिता के और करीब महसूस करेगी। आखिर उसके पिता ने एक बेटी पर ही संतोष किया और माना कि वह बेटे से कम नहीं। महिलाओं को समाज में बराबरी देने के वे हमेशा पैरोकार रहे। इन दोनों के तर्कों में प्रो.झा को उनका प्यार व संवेदना नज़र आयी वे बेहद उलझन में रहे कि क्या करें। दोस्तों को बुलाया उनसे विचार विमर्श किया। अन्त में वे इस नतीजे पर पहुंचे कि उनकी मृत्यु से मेडिकल के विद्यार्थियों को लाभ मिल सकता है तो उन्हें क्यों न मिले। पत्नी या बेटी को भावात्मक आधार देने के लिए वे कर्मकांडी क्यों बनें। इससे ढकोसलों को बढ़ावा मिलेगा जो उनके आदर्शों के विपरीत है। उन्होंने बेटी व पत्नी के सामने अपने मन की बात रखी कि वे देहदान करना चाहते हैं आगे उनकी मर्जी..। और एक सप्ताह में उन दोनों ने ही प्रो.झा के सामने अपना हठ छोड़ कर हथियार डाल दिया। उन्हीं की बात चले। आखिर उनका जीवन है और उन्हें अपने जीवन को अपने ढंग न जीने का पूरा हक़ है और यह भी उन्हीं का हक़ है कि उन्हें लोग किसी रूप में याद करें। प्रो.झा ने मेडिकल कालेज में जाकर देहदान की औपचारिकताएं पूरी कर ली। पत्नी व बेटी को फ़ोन नम्बर दे दिया और समझा दिया गया कि उनकी मौत के तुरन्त बाद जिस प्रकार जीवन बीमा वालों को ख़बर देनी है उसी प्रकार मेडिकल कालेज को भी। फोन मिलते ही वैन उनके दरवाज़े पर आ जायेगी और शव को लेकर मेडिकल कालेज चली जायेगी। और जैसा की प्रो.झा ने तय किया था, वही किया गया। बेटी और पत्नी ने भरे मन से प्रो.झा को मेडिकल कालेज के हवाले कर दिया कि शव पर प्रयोग कर चिकित्सा जगत को मदद मिलेगी छात्र विशेषज्ञ बनेंगे। मेडिकल कालेज में प्रो.झा की बेटी की सहेली का भाई भी डाक्टरी की पढ़ाई कर रहा था। कुछ दिन बाद उससे मुलाकात हुई तो उसने अपने पिता के बारे में बताया कि उन्होंने मेडिकल कालेज को देहदान किया है उसके बारे में कुछ पता कर उसे बताये। बात आयी गयी हो गयी। तीन हफ्ते बाद उससे फिर मुलाकात हुई तो सुनकर वह सन्न रह गयी–‘मेडिकल में फर्स्ट ईयर व सेंकेड ईयर के स्टूडेंट्स को व्यक्तियों को शव की आवश्यकता होती है। वे उनके शव की चारफाड़ कर नसों व हड्डियों के बारे में प्रेक्टिकल जानकारी हासिल करते हैं। मेडिकल कालेज को जो शव दान में मिलते हैं उस पर छात्रों को प्रैक्टिकल करायी जाती है। किन्तु यह प्रो.झा के साथ नहीं हो सका...।’ -‘क्यों..?’ -‘क्योंकि उससे पहले ही चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों ने कभी हाथ तो कभी, सिर व कभी पैर काट कर उन छात्रों को सौ दो सौ रुपये के लालच में दे दिया था जो व्यक्तिगत स्तर पर अपने घर में या हास्टल में प्रेक्टिस करते हैं। जब प्रो.झा के पूरे शव को प्रैक्टिकल के लिए कालेज में ले जाया जाना था तब तक उनकी पूरी बाडी टुकड़ों चुकड़ो में बेची जा चुकी थी। और शव नहीं मिलने पर कालेज प्रबंधन को कैफियत दे दी गयी कि शव को चूहे खा गये।’ -----

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