पुस्तकों का प्रकाशन विवरण
- लेखकों के पत्र
- कहानी
- तीसरी बीवी
- कला बाज़ार
- दी हुई नींद
- वह हथेली
- अनचाहे दरवाज़े पर
- आवारा हवाओं के ख़िलाफ चुपचाप
- सरापता हूं
- भग्न नीड़ के आर पार
- एक अदहन हमारे अन्दर
- खुशी ठहरती है कितनी देर
- मनुष्य और मत्स्यकन्या
- बीसवीं सदी की आख़िरी दहाई
- कुछ दुःख, कुछ चुप्पियां
- टिप टिप बरसा पानी
- मुझे विपुला नहीं बनना
- ज़रा सा नास्टेल्जिया
- कालजयी कहानियांः ममता कालिया
- कालजयी कहानियांः मृदुला गर्ग
10/25/2011
सोने की आरामकुर्सी
कहानी
अभिज्ञात
साभाऱ- वर्तमान साहित्य एवं अभिव्यक्ति
चित्रः अभिव्यक्ति
रोज़ की तरह सुरेश आठ घंटे की क्लर्की की ड्यूटी बजाने के बाद घर लौटा था। वह एक निजी जूट मिल में कार्यरत था, जहाँ मज़दूरों और बाबुओं के वेतन में कोई खास फर्क नहीं था। प्रबंधन के लिए सभी नौकर एक जैसे थे और वेतन भी एक जैसा। भले वे अलग-अलग काम जानते और करते हों। इसलिए मजदूर, झाड़ूदार, दरबान और क्लर्क सबके वेतन में लगभग समानता थी।
सुरेश का जीवन-स्तर भी मज़दूरों से कुछ भिन्न नहीं था। उसके पिता को अफसोस था कि बेमतलब ही उन्होंने बेटे को एमए तक पढ़ाया। यदि मैट्रिक के बाद ही दरबानी के काम पर लगा दिया होता आज उसका वेतन कुछ ज्यादा ही होता। खैर पिता तो अब रहे नहीं, सुरेश एक बेटी, एक बेटे और पत्नी के साथ एक झोपड़पट्टी नुमा मकान में अपना जीवन बसर कर रहा था। यह डेढ़ कट्ठा ज़मीन भी उसके पिता ने जैसे-तैसे खरीदी थी और उस पर एक कामचलाऊ मकान यह सोचकर बनाया था कि जब कभी आर्थिक स्थिति सुधरेगी तो ठीक करा लेंगे, लेकिन न उनकी स्थिति सुधरी न बेटे सुरेश की और मकान और जीर्ण-शीर्ण होता गया।
अन्ततः वहाँ एक आलीशान मकान बनाने का ख्वाब लेकर ही वे दुनिया से सिधार गये। मरने के कुछ दिन पहले बुरे स्वास्थ्य की वज़ह से उनका चलना-फिरना बंद हो गया था।
बेटे ने एक लोहे की आराम- कुर्सी खरीद दी थी, जो खिड़की के पास रखी होती थी। जिस पर बैठे-बैठे वे लोगों को आते-जाते देखते अपना पूरा दिन काट देते थे। लोगों की आवाजाही से जुड़कर अपने स्थिर हो जाने को किसी हद तक वे भूल जाते थे। वे एक सीधे-सादे उच्च विचार वाले व्यक्ति थे और दुनिया को बेहतर बनाने का ख़्वाब देखने वाले प्राइमरी स्कूल के शिक्षक थे। बेटे सुरेश पर भी उनके विचारों का प्रभाव पड़ा था और वह तो बचपन से ही कविताएँ भी लिखने लगा था। बेटे की कविताओं को पढ़ना उन्हें अच्छा लगता था और उन्हें यह संतोष होता था कि उनमें से कुछ बातें उनके विचारों का काव्यानुवाद है। बोध के स्तर पर उनका बेटा सचमुच उनका वारिस है।
उनकी मौत आरामकुर्सी पर बैठे-बैठे ही हुई थी। इसलिए सुरेश को वह कुर्सी विशेष प्रिय थी। बीस साल पुराने टेबुल के सामने इस लगभग नई आरामकुर्सी पर अधलेटे बैठ कर कविता लिखता था। कुर्सी उसने बड़ी मुश्किल से किश्तों में ख़रीदी थी। पिता की बीमारी के चलते उसकी आर्थिक स्थिति खराब थी ही क्रिया-कर्म के चक्कर में और बिगड़ गई और नौबत यहाँ तक आ पहुँची कि बिजली का बिल अदा न कर पाने के कारण उसकी लाइन काट दी गई..और लालटेन और दीये की रोशनी से उसके परिवार को काम चलाना पड़ रहा था।
अर्थाभाव के कारण सुरेश की पत्नी निर्मला का स्वभाव किसी हद तक चिड़चिड़ा हो गया था। हर बात पर लड़ने-भिड़ने को आमादा रहती। घर का कामकाज भी वह ठीक से नहीं करती थी। वह एक सम्पन्न घर की लड़की थी और कालेज के दिनों में वह सुरेश की कविताओं पर इस कदर फिदा थी कि उससे विवाह करने के लिए अपने घरवालों के सामने अड़ गई थी जिसके कारण उन्होंने कुछ अप्रसन्नता के साथ भारी मन से इस पर सहमति दे दी थी।
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उस दिन सुरेश अपनी खटारी साइकिल पर थका-माँदा घर लौटा था। आते ही रोज की तरह स्नान किया क्योंकि जूट मिल में मशीनों के चलने से पटसन का गर्दा उड़ता रहता है और उसमें उस केमिकल के तत्व भी शामिल रहते हैं जिसका छिड़काव पटसन को संरक्षित करने के लिए उस पर किया जाता है। चाँपाकल से पानी निकालकर स्नान करने के बाद वह खाने के लिए बैठा तो पाया कि आज रोटी कुछ अधिक बेस्वाद और जली-जली सी थी। सब्ज़ी में मिर्च और नमक भी रोज की तुलना में अधिक लगा। वह चुपचाप खाता रहा। एकाध बार पहले वह इस मामले में मुँह खोल चुका है, जिस पर पत्नी के मन की भड़ास बाहर निकलने लगी थी। उसने अपने जी को समझा लिया था कि यह पत्नी की निराशा और कड़ुवाहटों की अभिव्यक्ति है। हालात बदलेंगे तो सब ठीक हो जाएगा। हालाँकि कमी उसमें भी थी। उसे आजकल रोटी पिछले दिन की तुलना में अधिक बेस्वाद, सब्ज़ी अधिक तीखी और दाल अधिक खारी लगती थी। शायद उसके आस्वाद को भी विपन्नता ने डस लिया है।
लालटेन की मंद रोशनी में खाने के बाद वह चुपचाप उठा और अपनी टेबिल के आगे आरामकुर्सी पर बैठ गया जिस पर उसके पिता बैठा करते थे। कुर्सी पर बैठने के बाद उसे थोड़ी राहत मिलती थी और लगता था कि वह आराम नहीं कर रहा है बल्क़ि अपनी तकलीफ़ों से निकालने का रास्ता बना रहा है। वह अपने बच्चों के लिए बेहतर कपड़े खरीदने और पत्नी के लिए ज़ेवर गढ़ाने का प्रयत्न कर रहा है। जैसे कुर्सी पर बैठकर अपनी साइकिल को एक दिन कार में बदल देगा और इस चूते मकान को आलीशान बँगले में। यह रास्ता उसे मिलता अपनी कविताओं से। वह देर रात तक कुर्सी पर बैठकर सोचता और इन्तज़ार करता अच्छी भावनाओं और कल्पनाओं के आने का, जो अनायास ही किसी और दुनिया से चली आतीं और वह उन्हें शब्दों में व्यक्त कर देता। एक अच्छी खुशनुमा कविता लिखने के बाद वह कई दिन तक रोमांचित रहता और उसे लगता कि उसका जीवन अब भी जीने लायक बचा हुआ है। वह अब भी अपनी और बाहर की दुनिया को खूबसूरत बनाने में जुटा हुआ है। एक अच्छी कविता लिखने के बाद उसे संतोष होता कि उसने दुनिया को कुछ दिया है। बच्चों और पत्नी के प्रति भी अपने कर्तव्य का अच्छी तरह से निर्वाह किया है, भले ही शब्दों में। कभी-कभार वह अपनी कविताएँ पत्नी और बच्चों को सुनाता जिस पर वे हँसते और कहते-'लिखने भर से हमारी विपदाएँ दूर नहीं हो जाएँगी।'
रोज की तरह सुरेश इस दिन भी देर तक वह जागता रहा और दुनिया की खुशहाली के सपने देखता रहा और जो खयाल आए उन्हें पन्नों पर लिखता रहा। उसका शरीर रोमांचित और मन पुलकित था... क्या अच्छे खयाल आए हैं। वाह!! उसने ख़ुद की तारीफ़ की और कब वह कुर्सी पर ही सो गया पता ही नहीं चला। टेबुल पर जलती हुई डिबरी तेल खत्म होने के बाद बुझ गई। बाकी परिवार पहले ही सो चुका था।
सुबह पड़ोसी के मुर्गे की बाँग सुनकर उसकी नींद खुली। उसने आँखें खोली लेकिन प्रकाश के कारण उसकी आँखें चुँधिया गयीं। खिड़की से सूर्य की किरणें सीधे मुँह पर आ रही थीं। उसे अब याद आया- अरे वह तो कुर्सी पर बैठे-बैठे ही सो गया था। वह कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। उसने टेबुल पर देखा वह कागज पड़ा हुआ था जिस पर उसने अपनी जि़न्दगी की संभवत: सबसे बेहतरीन कविता लिखी थी। क्षण-भर को वह कुर्सी पर बैठे-बैठे सोने की वजह से लगभग अकड़ गए शरीर की व्यथा को भूल गया। कविता को उसने मेज की दराज में रखा और एकाएक उसकी निगाह कुर्सी पर गई। वह चौंक गया। सूर्य का प्रकाश कुर्सी पर पड़ रहा था और कुर्सी ऐसे चमक रही थी जैसे वह सोने की हो। उसने मन ही मन कहा- 'वाह प्रकाश भी क्या चीज है! नीले रंग की मामूली लोहे की कुर्सी भी सोने की कुर्सी जैसी लगने लगती है।' उसने ठाना वह प्रकाश पर एक पूरी काव्य-शृंखला ही लिखेगा। उसने खिड़की बंद की और प्रात:कर्म से निवृत्त होने चला गया।
लौटकर जब वह अपने कमरे में आया तो उसने पाया कि उसकी कुर्सी परिवार के अन्य सदस्यों के लिए कौतूहल का विषय बनी हुई है। कमरे की खिड़की खुली हुई थी किन्तु सूर्य की किरणें हालाँकि अब कुर्सी पर नहीं पड़ रही थीं फिर भी कुर्सी सुनहरे रंग की दिखाई दे रही थी।
बेटे बबलू ने तपाक से पूछा-'आप यह सुनहरे रंग की वार्निश कहाँ से ले आए? मेरे लिए भी ला दीजिए न ! मैं अपनी साइकिल पर लगाऊँगा। उसका रंग जगह-जगह से उतर गया है।'
निर्मला-'मैं भी कहूँ कि रात भर ये कर क्या रहे हैं? मेरी तबीयत ठीक नहीं थी इसलिए मैं गुस्से से यह देखने नहीं आई कि ये रात भर कुर्सी पर वार्निश लगाने में जुटे हुए हैं। अरे, ऐसा ही शौक था तो छुट्टी के दिन करते। रात भर जागने की क्या जरूरत थी? पर मेरी बात सुनता कौन है?'
सुरेश-'बंद करो तुम लोग अपनी बकवास! मैं बबलू की कारस्तानियों से तंग आ गया हूँ। यदि उसे अपनी साइकिल पर वार्निश लगाने की इच्छा है तो लगाए मैं क्यों मना करूँगा ? पर उसे कुर्सी पर वार्निश लगा कर देखने की क्या जरूरत थी। वह जानता नहीं है.. इस कुर्सी से मेरे बाबूजी की भी यादें जुड़ी हैं। कितनी परेशानियों से यह कुर्सी मैंने उनके लिए खरीदी थी। उसका रूप-रंग बदल कर रख दिया इस कम्बख़्त ने। देखने से अब लगता ही नहीं कि यह वही आरामकुर्सी है। इस पट्ठे ने वार्निश को साइकिल पर लगाने से पहले कुर्सी पर लगाकर देखा। तुम लोग जान लो कि मैं इस घटना से बहुत दुखी हूँ। बबलू से मुझे आज तक कभी कोई शिकायत नहीं रही है पर आज उसने जो किया है उससे मेरा दिल टूट गया है। ..और अगर गलती कर भी दी तो मान लेने में क्या हर्ज़ है? मैं रात में डिबरी की मंद रोशनी में कुर्सी पर लगी वार्निश देख नहीं पाया और उसी पर बैठा रहा सारी रात। मान लो वार्निश ठीक से सूखी न होती तो मेरा पायजामा-कुर्ता भी खराब होता कि नहीं?'
बड़बड़ाते हुए किंचित क्रोध के साथ सुरेश दूसरे कमरे में चला गया। और थोड़ी देर में तैयार होकर काम पर। पिता की डाँट सुनकर बबलू की आँखों से आँसू बहने लगे थे। वह देर तक सिसकता रहा।
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सुरेश रात को काम से लौटा तो अनमना सा था। वह बबलू को डाँटकर गया था शायद इसलिए। पहली बार उसने बबलू से इतना रूखा व्यवहार किया था... लेकिन कुछ देर बाद उसका अफसोस हैरत में बदल गया। बबलू ने रात में अपनी बात दोहराई कि उसने कुर्सी पर वार्निश नहीं लगाई है। उसने आरामकुर्सी को छुआ तक नहीं है। और ना ही घर के किसी अन्य सदस्य ने। कुर्सी पर न तो पानी गिरा था और ना ही उसे धूप में बाहर निकाला गया था।
काफी सोच-विचार के बाद सुरेश इस नतीज़े पर पहुँचा कि यह कुर्सी के रंग के बदलाव का मामला है। कुर्सी पर अच्छा रंग नहीं लगाया गया था, जो अब छूट कर अजीब सा हो गया है। अगला दिन रविवार था। सुरेश कुर्सी दुकान पर गया और उसने दुकान वाले को खरी-खोटी सुना दी। दुकानदार को उलाहने दिये कि उसने कुर्सी के मामले में उसे ठग दिया है। अभी तीन महीने पहले ही वह कुर्सी ले गया था और इतनी जल्दी उसका रंग उतर गया। दुकानदार अपनी गलती मानने को तैयार नहीं था। उसका कहना था कि कई ग्राहकों ने वह आरामकुर्सी खरीदी है और किसी की भी ऐसी शिकायत नहीं मिली। स्वयं अपने घर में भी वह ऐसी कुर्सी इस्तेमाल करता है पर आठ महीने में उसका रंग जस का तस है। कुर्सी वाले ने आरोप लगाया-'ऐसा है सुरेश बाबू। पिता के लिए कुर्सी खरीदने जब आए थे तो आपके पास पूरे पैसे नहीं थे फिर भी मैंने आपको खाली हाथ नहीं लौटाया था। आपने कहा था कि बाक़ी अगले महीने दे जाऊँगा। साढ़े छह हजार रुपयों में से तीन ही डाउन पेमेंट किया था और दूसरे महीने तीन और दे गए थे और पाँच सौ रुपए अभी आप पर और निकलते हैं। वे रुपए डकार कर बैठे हैं और उन्हें देने के बदले रंग उतरने की शिकायत लेकर चले आए। नेकी कर दरिया में डाल। चलिए निकालिए पाँच सौ रुपए।'
सुरेश ने पासा उल्टा पड़ता देख चुपचाप लौटने में ही भलाई समझी। कहा-'मैं आपका बकाया चुकता कर देता। पैसे मारने की नीयत कभी नहीं रही लेकिन अब कुर्सी का रंग उतर गया तो वह पाँच सौ रुपए नहीं दूँगा। उस रुपए से कुर्सी की रंगाई फिर करानी होगी।'
दुकानदार- 'तो ऐसा क्यों नहीं कहते कि पैसे छुड़वाने हैं..फिर सीधे कहिए रंग छूटने की शिकायत मत करिए। लाइए ढाई सौ रुपए दीजिए और हिसाब साफ समझिये।'
सुरेश ने ढाई सौ रुपए अदा किये और अपना सा मुँह लेकर लौट आया। जब दुकानदार अपनी गलती मानने को तैयार ही नहीं था तो वह क्या करता। उतने तो सोचा था कि यदि वह अपनी गलती मान लेगा तो हो सकता है कि कुर्सी की मुफ्त में फिर रंगाई करा दे।
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सुरेश के लिए कुर्सी का रंग बदलना रहस्य बना हुआ था। उसे दुकानदार की बात में कुछ-कुछ सच्चाई लगी। उसने गौर से देखा कहीं भी पुराने नीले रंग का अता-पता नहीं था। कुर्सी इस तरह से सुनहरे रंग से रंगी हुई लग रही थी कि किसी और रंग का नामोनिशान तक न था। और वह हल्की सी रोशनी में भी ऐसी दमक उठती थी कि क्या कहने। बाहरी लोगों के सवालों से बचने के लिए कुर्सी पर चादर रख दी गई।
इस बीच निर्मला के छोटे भाई धनंजय का काफी अरसे बाद आना हुआ। अब तक सुरेश ड्यूटी से लौटा नहीं था।
कहने को तो धनंजय पड़ोसी शहर में ही रहता था लेकिन बहन के गरीब घर में ब्याहे जाने से खफ़ा-खफ़ा सा रहता था। औपचारिक तौर पर कभी-कभी आना होता था। वह भी दस -पाँच मिनट के लिए। वह किसी काम से गुजर रहा था तो बहन की याद आई तो चला आया। उसकी आलीशान कार दरवाज़े के बाहर खड़ी थी। निर्मला ने उसे बैठने के लिए वही आरामकुर्सी दी। हालाँकि अब भी उस पर चादर पड़ी हुई थी। निर्मला चाय बनाने गई थी इसी बीच धनंजय किसी काम से कुर्सी से उठा कि चादर कु्र्सी पर से गिर गई।
चादर हटते ही कुर्सी की सुनहरी आभा देख वह दंग रह गया। वह देर तक कुर्सी को चारों ओर से देखता रहा। तब तक निर्मला चाय लेकर आई। उसने धनंजय से कहा- 'अरे खड़े क्यों हो बैठो न।'
धनंजय-'मेरी इतनी बड़ी औकात नहीं है कि मैं इस कुर्सी पर बैठूँ। लाओ कुछ और दो। कोई स्टूल बेंच कुछ भी।'
निर्मला-'क्यों कुर्सी में क्या बुराई है। इसका रंग तुम्हारे कपड़ों में नहीं लगेगा। एकदम सूखा है। फिर भी चाहो तो चादर डाल लो।'
धनंजय नहीं माना तो निर्मला दूसरे कमरे से स्टूल ले आई। धनंजय ने चाय पीते हुए कहा-'जीजा जी सचमुच कवि के कवि रह गए। अरे वे चाहते तो तुम्हारी और तुम्हारे बच्चों की ज़िन्दगी आराम से कटती मगर उनमें व्यवहारिकता की कमी है।'
निर्मला- 'जाने तो। वे बेचारे क्या करें। अब इस उम्र में उन्हें दूसरी नौकरी मिलने से रही। गरीब पिता के बेटे हैं।'
धनंजय- 'भगवान करे ऐसी गरीबी सबको मिले। विरासत में सोने की आरामकुर्सी मिली हुई तो इसका मतलब यह तो नहीं होता कि कोई उसे बचाने में ही लगा रहे और जीवन कष्ट में व्यतीत करे।'
निर्मला- 'मैं तुम्हारी बात नहीं समझ पा रही हूँ।'
धनंजय- 'सीधी सी बात है। जिसके पास सोने की आरामकुर्सी हो उसे गरीबी की ज़िन्दगी बसर करने की क्या जरूरत है? कम से कम जीवन के लिए जरूरी चीज़े तो होनी चाहिए। इस कुर्सी को बेचने से ही तुम लोगों की ज़िन्दगी बदल जाएगी।'
निर्मला-'ये कुर्सी..।' और वह ठठाकर हँस पड़ी तुम भी धनंजय गजब करते हो। अरे यह सोने की नहीं लोहे की कुर्सी है। इसके रंग पर मत जाओ।'
धनंजय-'दीदी अब मुझे बनाने की कोशिश मत करो। तुम्हें पता नहीं है तुम्हारा यह भाई देश की प्रमुख आभूषणों की दुकान का प्रमुख डिज़ाइनर है। मैं एक नजर देखकर ही सोने की असलियत भाँप जाता हूँ। यह सोना है एकदम खरा सोना।'
निर्मला-'ठीक है तुम गुणी हो... पर इस बार चूक गए। यह साढ़े छह हज़ार की लोहे की आरामकुर्सी है जिसे सुरेश पास ही के बाज़ार से खरीद कर लाए थे। और यह तीन महीने से हमारे यहाँ है, जिस पर हम लोग बैठते हैं। यह नीले रंग की थी और अब इसका रंग उतर कर सुनहरा हो गया है। जान गए पूरी हकीकत या और कुछ पूछना है?'
धनंजय परेशान हो उठा- 'मैंने इतना बड़ा धोखा कभी नहीं खाया। मैं इसका परीक्षण करता हूँ। दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा। परीक्षण करने का सामान लेकर अभी आया।'
एक घंटे बाद जब वह फिर लौटा तो सुरेश ड्यूटी से घर लौट आया था। निर्मला ने उसे धनंजय की बातें बताई तो वह भी खूब हँसा था। धनंजय लौटते ही कुर्सी की धातु के परीक्षण में जुट गया। और अगले ही कुछ ही पलों में उसने हँसते हुए कहा-'जीजाजी, दीदी मुझे बेवकूफ़ बनाना बंद करो। यह खरा सोना है। कुंदन। एक रत्ती भी मिलावट नहीं। ऐसा खरा सोना मैंने पहले कभी नहीं देखा। आज के बाज़ार में इसकी क़ीमत कम से कम पचास लाख रुपए होगी। यह एक नायाब चीज है। यह कहाँ से आई, कैसे आई के किस्से में मैं नहीं पडऩा चाहता। आप लोग कहें तो मैं इसके बिकने का इन्तज़ाम कर देता हूँ। वरना मैं चलूँ।'
अब सकते में आने की बारी सुरेश और निर्मला की थी।
सुरेश-'धनंजय बाबू। आप ही देखिये इस मामले को.. जो दिला दीजिए वही काफी है और पचास लाख तो हमारे लिए सपने जैसा ही है। बाक़ी यह इतमीनान कर लीजिए कि सोना ही है न। वरना मैं नहीं चाहता हूँ कि हम और आप दोनों धोखाधड़ी के मामले में फँस जाएँ।'
धनंजय-'जीजाजी। आप निश्चिंत रहिए। मैंने ठीक से परख कर ली है। अलबत्ता चूँकि इसके पेपर वगैरह नहीं हैं इसलिए माल दो नम्बर का हुआ और उसकी पूरी क़ीमत मिलने से रही फिर भी इसकी कीमत कम नहीं मिलेगी क्योंकि यह एंटीक पीस है।'
और सुरेश तथा निर्मला की रज़ामंदी से कुर्सी को दो चादरों की सहायता से अच्छी तरह लपटकर धनंजय की बुलेरो में डाल दिया गया। धनंजय ने कहा-'जैसे ही इसका खरीदार मिलेगा मैं इसे झाड़ दूँगा। आप निश्चिंत रहे अधिक से अधिक दिलवाऊँगा।'
धनंजय की गाड़ी दरवाजे से गई और इधर सुरेश और निर्मला की आँखों से नींद हवा हो गई। वे खुशी और आशंकाओं के सागर में डूबने-उतराने लगे।... तो क्या उनके बुरे दिन अब दूर हो जाएँगे। उनकी अधूरी ख्वाहिशें पूरी हो जाएँगी। दोनों ने सपना देखा जो पचास लाख तक का था। एक आलीशान मकान, आलीशान कार.. और तमाम सुख-सुविधाएँ।
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धनंजय अगले चार दिन काम पर नहीं गया। ज्वेलरी की दुकान से फ़ोन पर फ़ोन आते देख उसने फ़ोन का स्विच आफ़ कर दिया। इधर एक बड़े पूंजीपति की शादी के आभूषण बनाने का जिम्मा उसके ज्वेलरी हाउस ने ले रखा था और उसकी डिजाइनें धनंजय को ही तैयार करनी थीं। शादी की तिथि क़रीब आती देख और धनंजय की अनुपस्थिति के कारण जेवरों के निर्माण का कार्य खटाई में पड़ता नजर आ रहा था। सेठ पहले तो ज्वेलरी के कार्यालय में गया फिर वह धनंजय का पता लेकर उसके घर जा पहुँचा।
उसने काफी गुजारिश की कि वह उनकी बेटी के आभूषणों को तैयार करने के लिए काम पर जल्द लौटे। धनंजय से उसकी काफी दिनों से पहचान थी क्योंकि वह उसके मालिक की दुकान का पुराना ग्राहक था। धनंजय ने अपनी समस्या उसे बताई कि उसके पास एक नायाब सोने की कुर्सी है और वह उसे बेचने की फिराक में लगा हुआ है इसलिए अभी किसी और काम पर वह अपना ध्यान एकाग्र न कर सकेगा। जब कुर्सी पूंजीपति ने देखी तो वह कुर्सी का दीवाना हो गया और उïसने साठ लाख रुपए में खरीदने की पेशकश कर दी... और मामला पट गया।
सारा लेन-देन ब्लैक में था। सेठ ने यह कुर्सी अपनी बेटी को शादी में देने की योजना बना डाली थी। उसने सोचा यह बेटी के लिए एक अनमोल तोहफ़ा होगा और बाकी आभूषणों की समस्या हल हो गई क्योंकि धनंजय काम पर लौटने को राजी हो गया। वह जिस कार्य के लिए काम पर नहीं जा रहा था वह पूरा हो चुका था।
धनंजय ने प्राप्त राशि में से दस लाख रुपए निकाल लिये और पचास लाख रुपए अपनी बहन व जीजा के यहाँ पहुँचा आया। उन दोनों को तो जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था लेकिन यह सच था।
अगले ही कुछ दिनों में सुरेश ने बना बनाया एक आलीशान सुसज्जित मकान खरीद लिया और एक कार भी। और वह सब कुछ जिसकी उसके परिवार ने तमन्ना की थी। धनंजय खुश था कि उसकी बहन की ज़िन्दगी भी संवर गई और एक अच्छी-खासी रकम उसे भी मिल गई।
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सेठ के यहाँ बेटी का शादी की तैयारियां लगभग पूरी हो चुकी थीं। अब गिने -ने दिन ही बचे थे कि वह मुश्किल में फंस गया। आयकर वालों ने उसके यहाँ छापा मारा। पहले से ही वे सेठ को टारगेट किये हुए थे। उन्हें पता था कि बेटी की शादी के वक्त़ उसकी काली कमाई सामने आएगी। और वही हुआ। सबसे बड़ी मुश्किल उस आरामकुर्सी को लेकर हुई। बाकी मामलों में तो आयकर वाले मोटी रकम ले- देकर मान गए लेकिन वे कुर्सी अपने साथ ले जाने पर अड़ गए। उन्हें विश्वास था कि कोई और बहुत बड़ी मछली हाथ आने वाली है। और सेठ से मूल स्रोत को लेकर पूछताछ में जुट गए। आखिरकार सेठ ने धनंजय का नाम बताकर मुसीबत से छुटकारा पाया।
धनंजय धर लिया गया लेकिन वह बेंतों की धुनाई के आगे नहीं टिक पाया। मरता क्या करता, उसने अपने जीजा का नाम ले ही लिया।
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पुलिस और आयकर विभाग का संयुक्त छापा सुरेश के घर पड़ा। पहले वे उसके पुराने जीर्ण-शीर्ण मकान में गए जहाँ से पता चला कि वह तो अपने नए मकान में चले गए हैं। उसके नए मकान के चप्पे-चप्पे की तलाशी ली गई। बाथरूम टायलेट तक देखा गया लेकिन वहाँ सोने की कोई और वस्तु बरामद नहीं हुई। उसकी पत्नी के कुछ आभूषण जरूर मिले जिन्हें आयकर वालों ने अनदेखा कर दिया। उन्हें तो सोने की आरामकुर्सी जैसी ही किसी अन्य भारी-भरकम वस्तु की तलाश थी, जिसमें उन्हें विफलता हाथ लगी। सुरेश को वे अपने साथ लेते गए। निर्मला और बच्चे भयातुर होकर रोने लगे थे। उन्हें आश्वासन दिया गया कि वे सुरेश से कुछ पूछताछ करेंगे फिर छोड़ देंगे।
सुरेश ने इस सम्बंध में निर्मला से किसी वकील से सम्पर्क करने को कहा और उनसे साथ चला गया।
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सुरेश की रिहाई आसान नहीं थी। वह तमाम पूछताछ के बाद भी कुछ ऐसा नहीं बता पाया जिससे पूछताछ अधिकारियों को सोने की आरामकुर्सी बनाने वाले या उससे जुड़े रैकेट का कोई सुराग मिले। सुरेश कुर्सी के बारे में जो कुछ बता रहा था वह एक किस्सा भर ही था जिस पर यकीन करना नामुमकिन था। भला यह कैसे सम्भव है कि कोई लोहे की कुर्सी सोने की कुर्सी में तब्दील हो जाए।
पुलिसकर्मियों ने सुरेश की धुनाई भी की ताकि वह भयवश सच उगल दे लेकिन वह अलग- अलग शब्दों में एक ही बात कहता रहा। अपनी बात पर ऐसा टिका रहने वाला आदमी पूछताछ अधिकारियों ने दूसरा न देखा था। सुरेश का पिछला रिकार्ड भी बेदाग था। किसी बड़े अपराध की क्या कहें कोई छोटा-मोटा अपराध भी उसने कभी नहीं किया था। एक ईमानदार मास्टर का बेटा था जो खुद साहित्य और आदर्श की दुनिया में जीता था। घर से काम पर जाना और काम से घर पर आना ही उसकी दिनचर्या थी।
सुरेश ने अपने पर ढाए जाने वाले जुल्म से तंग आकर पूछताछ अधिकारियों को सुझाव दिया कि क्यों न उसे किसी मनोवैज्ञानिक को दिखाया जाए क्योंकि स्वयं उसे भी लोहे की कुर्सी के सोने की कुर्सी में बदलने की घटना पर यकीन नहीं है। संभव है कि कुछ ऐसी घटना घटी हो जिसकी स्मृति उसके दिमाग से किन्हीं कारणोंवश निकल गई हो क्योंकि कुर्सी में जो बदलाव आए हैं वे उसकी आँखों के सामने नहीं आए। रात में वह कुर्सी पर बैठा तो उसमें किसी तरह का परिवर्तन उसने नोट नहीं किया। वह उस पर बैठकर सोचता रहा और कविता लिखी तथा सो गया। सोने के बाद उठा तो कुर्सी सोने की हो चुकी थी। इसका यह आशय हुआ कि उसके सोने के बाद और नींद से उठने के पहले कोई घटना घटी जिससे उसकी लोहे की कुर्सी सोने की कुर्सी से बदल गई। हो सकता है यह बदलाव का घटनाक्रम उसके सामने ही हुआ हो लेकिन किन्हीं मनोवैज्ञानिक कारणोंवश घटना याद न आ रही हो।
अधिकारियों को चूंकि कोई और विकल्प नजर नहीं आ रहा था, उन्होंने सुरेश की बातों पर अमल करने का मन बना लिया।
मनोवैज्ञानिकों की टीम ने सुरेश से गहन पूछताछ शुरू की। उन्हें भी यह लगा कि संभव है कि किन्हीं कारणवश वह आंशिक स्मृति-लोप का शिकार हो गया हो। उन्होंने सुझाव दिया कि सुरेश को उन्हीं परिस्थितियों में ले जाया जाए जिसमें यह घटना घटी। संभव है कि इससे सुरेश को कुछ याद आ जाए।
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मनोवैज्ञानिकों के निर्देशानुसार सुरेश को उसके पुराने घर ले जाया गया। उसके घर के बाहर चारों ओर तगड़ी सुरक्षा व्यवस्था की गई। उसे आवश्यक निर्देश दे दिये गए कि वह उस विशेष रात की तरह की सब कुछ करे। उसे बीच में टोका नहीं जाएगा। उस पर बाहर से निगरानी रखी जाएगी। रात हुई। फिर उसी रात सा अंधेरा था। लालटेन की रोशनी में निर्मला ने उस रात जैसी कुछ जली-जली सी रोटियां बनाई और नमक-मिर्च कुछ अधिक डालकर आलू-बैंगन की तरकारी। हल्की रोशनी में ही पीढ़े पर बैठकर सुरेश ने भोजन किया। उसके बाद वह उस आरामकुर्सी पर बैठ गया, जो अब सोने की हो चुकी थी। वह कुर्सी विशेष तौर पर यहाँ लाई गई थी ताकि वह खोज में सहायक हो सके।
पूर्व मिले निर्देश के अनुसार वह कागज कलम लेकर कविता लिखने की कोशिश करने लगा। काफी देर तक मन में कोई भाव नहीं आए। उल्टे उसके शरीर का पोर-पोर दुख रहा था। पुलिस ने उसे इस बेरहमी से पीटा था कि उसने उस वक़्त भगवान से मनाया कि उसकी जान चली जाए तो बेहतर। कम से कम तकलीफ़ों से तो मुक्ति मिलेगी। असह्य यातना से दुबारा गुजरने की कल्पना मात्र से ही उसका रोम-रोम सिहर उठा। उसके साथ जिस गाली-गलौज की भाषा में बातचीत की जा रही थी, वह सोच कर ही शर्म से गड़ गया। उसने अपने मन की थाह ली। मन में तमाम कड़ुवाहटें थीं इस व्यवस्था के खिलाफ, इन लोगों के खिलाफ... जो उसे प्रताडि़त कर रहे थे। खिड़की से आती हवा उसके जख्मों में और जलन भर रही थी। बाहर निकली चांदनी उसके बदन को भी छू रही थी और लग रहा था कि उसमें शीतलता नहीं तपिश है।
उसने पहली बार जाना कि कविता जबरन नहीं लिखी जा सकती और न लिखाई जा सकती है। उसे कविता लिखने की ड्यूटी लगाई गई है.. वह इसका निर्वाह कैसे करे! उसे याद आया कि यदि उसने कविता नहीं लिखी तो उसे लाल मिर्च की धुनी से फिर गुजरना पड़ेगा। बर्फ़ की सिल्लियों पर भी दुबारा सुलाया जा सकता है।
उसने अपने मन को खुला छोड़ दिया और लिखने लगा... वह सब जो उसके मन में आ रहा था। उसने पहली बार अपने मन की भड़ास जम कर निकाली। क्रोध, नफ़रत, हिंसा, निराशा, बदला लेने की इच्छा और यहाँ तक कि गालियां उसकी कविता में व्यक्त हुईं। उसे अच्छा लगा... मन का बोझ कुछ कम हो रहा था। धीरे-धीरे वह आरामकुर्सी पर कब सो गया..पता न चला।
सुबह फिर पड़ोसी के मुर्गे ने बांग दी और खिड़की से आती सूर्य की किरणों ने उसके चेहरे पर दस्तक दी तो उसकी नींद खुली। वह कुर्सी से उठ खड़ा हुआ। कुर्सी पर निगाह पड़ी तो उसका मुँह खुला का खुला रह गया। वह नीली आरामकुर्सी सामने थी.. जो उसने अपने पिता के लिए खरीदी थी। उसने प्यार से उस पर हाथ फेरा जैसे बहुत दिन बाद उससे मिल रहा हो। इस कुर्सी से उसके पिता की कितनी ही यादें जुड़ी थीं और जिस पर बैठकर उसने कई बेहतरीन कविताएँ लिखी थी। फिर एकाएक उसे याद आया कि वह यहाँ किस उद्देश्य से लाया गया है! उसने जोर से पुकार कर पूछताछ अधिकारियों को बुलाया। वे जब कमरे में आए तो उनके हाथों से तोते उड़ गए।
सोने की आरामकुर्सी कमरे में कहीं-नहीं थी। सुरक्षाकर्मी रात भर बाहर तैनात थे। ऐसे में सोने की कुर्सी कहाँ और कैसे गई? आनन-फानन में पूरे कमरे की जमीन गहराई तक खुदवाई गई कि कहीं ऐसा न हो कि उसे जमीन में गाड़ दिया गया हो लेकिन वह नहीं मिली तो नहीं मिली। सुरेश समझाता रहा कि यही वह कुर्सी है जिस पर मैं रात भर बैठा रहा और सो गया फिर क्या हुआ उसे याद नहीं.. वह एकदम नहीं जानता कि सोने की कुर्सी फिर कैसे लोहे की कुर्सी में बदल गई।
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अगले दिन उसे आयकर विभाग के अधिकारियों व उन्हें सहयोग दे रहे पुलिसकर्मियों ने रिहा कर दिया और उससे माफी भी मांगी। कहा-'अब किसी मानवाधिकार कर्मी या वकील को हमारे पीछे मामला-मुकदमा के लिए न लगा देना। तुम तो जानते ही हो कि क्या चमत्कार हुआ है। कुर्सी के लोहे से सोने में बदलने और फिर सोने से लोहे में बदलने की घटना पर कोई यकीन नहीं करेगा। तुम्हें तो लोग सिरफिरा कहेंगे ही हम पर भी आँच आएगी। जाओ ऐश करो। तुम तो मालामाल हो ही गए हो.. हम सस्पेंड नहीं होना चाहते।'
यह कहानी हालाँकि यहीं खत्म होती है। जो लोग इस घटना से वाकिफ़ थे उन्होंने इसका ज़िक्र किसी और से नहीं किया इसलिए वैज्ञानिक इस शोध से वंचित रह गए कि आदमी के मन की उच्च भावनाएँ उसके शरीर में ऐसा कौन सा रासायनिक परिवर्तन लाती हैं जिससे देह के स्पर्श से लोहा सोने में बदल सकता है।
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2 टिप्पणियां:
aapki kalam se nikalne wali jadui aur hirday ko chhu jane wali bhawnaon se pahli bar awgat hua bahut bahut badhaiyan.... iswar aapki lekhni koaur takat aur urja de....dipawali ki subhkamnaon ke sath ...
Brajesh
bilkul viswas nahin ho raha ..........hakikat jo bhi ,magar bahut hi rochak kahani lagi. shayad suresh ki garibi mitane ke liye bhagwan ki ye kripa rahi ho....
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