एक इंटरव्यू में
डॉ.अभिज्ञात
मैं जो कुछ लिखता हूं वह उसी समय की मनःस्थिति का बयान नहीं होता।
वह रचना क्षण महज़ अरसे से भीतर पल रहे के बाहर आने का क्षण होता है। बहुत चौकन्ना नहीं
रहता तब मैं। कविता लिखने की स्थिति बनती है तो मैं जो भी कागज़ मिल जाये उसी पर लिख
लेता हूं। यहां तक कि ट्रेन में भी या प्लेटफार्म पर। क्योंकि यह अभिव्यक्ति का झोंका
गुज़र जाने के बाद कुछ भी याद नहीं रहता। दुबारा उस विचार या अनुभूति की वापसी नामुमकिन
लगती है। तो कभी पैदल राह से गुज़रते हुए, ज़रा रुककर भी लिखा है।
मैं साफ़-सुथरे व कोरे कागज़ पर प्रायः नहीं लिख पाता। मुझे पता नहीं होता कि कितना क्या
लिख पाऊंगा। रद्दी छपे हुई पत्रिकाओं पर खाली जगहें काफी होती हैं। कई बार तो मैं लिखकर
भूल जाता हूं और इसी क्रम में लिखा हुआ कई बार शहीद हो चुका है। लिखा हुआ फिर याद नहीं
आता। कई बार अपने लिखे को पहचानने में दिक्कत होती है कि लिखी हुई बात मेरी अभिव्यक्ति
है या किसी और की बात किन्हीं कारणोंवश लिख छोड़ी है। यह रचना प्रक्रिया कविता की है।
कहानी-आलोचना के लिए मैं इतमीनान
के साथ बैठता हूं और योजना बनाकर लिखता हूं। काफी
टालमटोल के बाद।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें