7/14/2017

मेरे गांव की खुशबू

कविता /डॉ.अभिज्ञात
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तुम्हारी केसर क्यारियों से अधिक खुशबूदार है
मेरे गांव से उठ रही ताज़ा होरहे की गंध!

गम- गम महकता अदहन में खौलता मेरे खेतों के ताज़ा धान से बना भात!

भेली बनने को बेताब पाग की खुशबू, जो गन्ने के रस से औंटकर इतरा रही है!

संक्राति के लिए भुजा रहा तिल...
बोरसी में कोयले की आंच पर आवाज देदे पक रहा भुट्टा अपनी खुशबू से कर रहा है निहाल!

घोसार के भाड़ में उछल-उछल कर कूद रहे चने की खुशबू!

खुशबू है पाल खुलते आमों की!

खुशबू है चैत में पककर पेड़ से चुए महुए की !

मेरे उपलों में खुशबू है
खुशबू है गोबर लिपे घर- आंगन में!

कहीं गूलर पका है!
कहीं कोहंड़ा!
कहीं अपनी खुशबू पर दांत चियार रहा है कटहल का कोआ!

यहां आम के मोजर की गंध है
गंध है सरसों के फूलों की
कहीं हरा धनिया पिस रहा है!

खुशबू बता रही है
कहीं ढल रही शाम को पिसा जा रहा है मसाला
और बटलोई में पकने को तैयार है ताज़ा गोश्त !

कहीं महक रहा है अभी- अभी ब्यायी गाय के दूध का फेंसा!

कहीं जतसार की लय पर उठ रही है खूशबू सत्तू के लिए जांत में पिसे जा रहे चने की!

तुम्हारी केसर क्यारियों से अधिक कुछ है मेरे गांव में रची बसी खुशबू में !!

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