7/18/2017

अस्सी पार के दोस्त

कविता/डॉ.अभिज्ञात
अस्सी पार के दोस्तों को
जब मैं करता हूं किसी भी कारण अकारण फ़ोन
छूटते ही कहते हैं
अभी ज़िन्दा हूं
जैसे साल में एक बार लिखकर देते हैं पेंशनधारी अपने बैंक को!


दोस्त बताते हैं
अब जब थोड़ी भी होती है उनकी तबीयत ख़राब वे ख़बर नहीं देते
अन्यत्र रहने वाले बाल -बच्चों को
आनन- फानन में पहुँच जाते हैं सब उनके पास एक अघोषित आशंका में
कुछ दिन बाद जब वे लौटते हैं
शर्म आने लगती है अपने जीवित होने पर
आखिर निराश लौटा दिया
कर दी कुछ छुट्टियां ख़त्म बेवजह
इसलिए
अस्सी पार के दोस्त
अपने सम्बंधियों से पहले ही कहते हैं ज़ोर देकर
एकदम ठीकठाक हूं अपनी सुनाओ !!
और उन्हें लगता है
काश ऐसा ही होता !!

अस्सी पार के दोस्त
ज़रा कम पहचानते हैं आवाज़ें, सुनते हैं कुछ कम
उससे भी कम पहचानते हैं चेहरे
पर इस धुंधलके में साफ़-साफ दिखने लगता है बहुत कुछ
जिसे छिपाकर वे ले जाते हैं अपने साथ किसी और जहां में !!

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