पुस्तक: कुछ अनकही../ लेखक: भागीरथ कांकाणी/प्रकाशकः इंडिया ग्लज़ेज़ लिमिटेड/6, लॉयस रेंज, 4 तल्ला, सूट न.3 और 4, कोलकाता-700001/मूल्यः 250 रुपये
भागीरथ कांकाणी का यह तीसरा काव्य-संग्रह दाम्पत्य जीवन और उसकी उपलब्धियों को केन्द्र में रखकर लिखा गया है। दिवंगत पत्नी के बिछोह में उनके साहचर्य की स्मृतियों की पूंजी को उन्होंने जिस गहरी संवेदनशीलता के साथ व्यक्त किया है वह उसका उल्लेखनीय पक्ष है। विरह काव्य होते हुए भी यह अतीत के क्षणों को जीवंत करता चलता है और जीवन के उल्लास के अध्याय को बार-बार खोलता है। न होने पर होने के अहसास की गहराई अधिक शिद्दत से महसूस होती है, यह इस संग्रह को पढ़कर हमें लगेगा। यह संग्रह दरअसल स्वतंत्र कविताओं का नहीं है, बल्कि अलग-अलग क्षण अलग-अलग जीवन खण्ड की स्मृतियों को कुछ अंतराल में महसूस करने की विकल अभिव्यक्ति है। यह पूरा एक खण्ड-काव्य ही है। इसमें काव्य का लालित्य या छंद आदि उपादान उतने महत्वपूर्ण नहीं रह गये हैं जितना किसी के खोने का एहसास और उसके होने की सार्थकता और अर्थवत्ता। शब्दों में आद्रता है और हर कविता में न होने की एक टीस बराबर झांकती रहती है। यह संग्रह उन्हें भी पसंद आयेगा जिनका कविता से कोई लेना देना नहीं है। एक भरेपूरे जीवन में एकाएक पैदा हुए अपूरणीय शून्य से महाकाव्यात्मक फलक पर रची गयी यह काव्यकृति किसी के होने के बहाने यह बताती है कि किसी मनपसंद जीवनसाथी का होना जीवन में क्या महत्त्व रखता है। एक कविता का अंश देखें-‘रंग बिरंगी तितलियां/आज भी पार्क में/उड़ रही हैं/गुनगुनी धूप आज भी/पार्क में पेड़ों को/चूम रही है/फूलों की खुशबू आज/भी हवा को महका/रही है/कोयलिया आज भी/आम्र कुंजों में/ गीत गा रही है/हवा आज भी/टहनियों की बाहें पकड़/ रास रचा रही है/लेकिन तुम्हारी/चूड़ियों की खनक आज/सुनाई नहीं पड़ रही है।’ विरह को काव्य में ढालने की लम्बी परम्परा चली आ रही है। इस कृति को भावात्मक स्तर पर उस क्रम में भी पढ़ सकते हैं, हालांकि इसमें मिलने की बेताबी की जगह आद्योपांत पुनः न मिल पाने की मारक कसक है, जो इसे शोककाव्य की परम्परा के अधिक करीब ले जाता है।-डॉ.अभिज्ञात
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