10/27/2018

उहापोह की स्थितियों के बीच काव्य -सृजन की ज़मीन की तलाश


पुस्तक समीक्षा
पुस्तकः शिखर से नीचे..मेरी ही बात/लेखक: सत्य प्रकाश 'भारतीय'/ प्रकाशकः उदंत मरुतृण, म.स. 46/2/2, 15 नापित पाड़ा मेन रोड, विधान पल्ली, बैरकपुर, पो.नोना चंदन पुकुर, बैरकपुर, उत्तर 24 परगना, कोलकाता-700122

सुविधापरस्त और तेज़ रफ्तार ज़िन्दगी में 'रोज़ का रिक्शेवाला' कविता पढ़कर ही हमें यह आभास हो जाता है कि सत्य प्रकाश 'भारतीय' तयशुदा रास्ते पर चलने वाली कविताएं नहीं लिखते। अपने पहले काव्य-संग्रह में वे ऐसी स्थितियों को व्यक्त करते हैं कि पाठक आलोचक तय नहीं कर पाता की कि वह उस पर क्या प्रतिक्रिया दे। उनकी कविता पर फेंस के इधर और उधर जैसी कोई विभाजन रेखा नहीं मिलती, क्योंकि वास्तविक जीवन में भी उपापोह वाली स्थितियों की भरमार है, जिसका सामना कवि सत्य प्रकाश 'भारतीय' की कविता में अक्सर होता है। आगे निकलने के हथकंडों को अपनाने से कवि को गुरेज है। यह कविताएं उन तमाम लोगों को शब्द देती हैं, जो हथकंडों का निषेध करते हुए जीवन के विभिन्न मोर्चों पर पीछे छूट जाते हैं। ‘चूक गयी कविता’ भी हमें ऐसे ही उहापोह में डालती है। उसकी बानगी देखें-'कितना अशिष्ट लगता है/जब हम नयन झुकाये/भीड़-भाड़ वाली मेट्रो में/लिख रहे होते हैं कविता/किसी बुज़ुर्ग की परेशानियों के बारे में/वृद्ध आश्रम की बढ़ती मांग पर/रोष व्यक्त करते हुए/और जब समाप्त कर/राहत की सांस लेते हुए उठ खड़े होते हैं/उतर जाने के लिए/फिर देखते हैं/पितामह तुल्य किसी को खड़े/ठीक हमारे सामने/तब यह सोचते हैं/क्या कविता लिख लेना/ज़्यादा ज़रूरी था सीट छोड़ देने से पहले?/अाज के समय में/इस पल तो कविता का/ना लिखना ही कविता होती है/अफसोस होता है कि/कैसे चूक गया मैं/इतनी अच्छी कविता लिखने से।' इस कविता से यह भी स्पष्ट होता है कि सत्य प्रकाश के लिए कविता क्या है। वे अपने कथ्य को जिस तरह से रखते हैं वह मितकथन की ही मांग करता है किन्तु इस शैली में ज़रा सी भी शाब्दिक स्फीति अधिक लगती है। फिलहाल वे इस कौशल को साधने में लगे हैं। और यह आश्वस्तकारी है कि वे अभी प्रक्रिया से गुज़र रहे हैं। वे लिखते हैं-'होश संभालने से लेकर आज तक/निरंतन ही/किसी न किसी प्रक्रिया से ही/गुज़र रहा होता हूं/....कभी/ तन को मथनी बना मन को/तो कभी मन को मथनी बना तन को/मथ रहा होता हूं।'
उनकी कविता में कई विस्मयकारी तत्व हैं। कल्पना की नयी उड़ानें हैं और वह अबोधता और सरलता भी, जो किसी कथ्य को काव्य बनाती है। इस लिहाज से ‘मैं और तुम क्यों एक ही काल में?’ कविता उल्लेखनीय है। इस संग्रह की कविताओं में स्थितियों से दो-चार होने का तरीका प्रहारक नहीं बल्कि विश्लेषणात्मक है। मौजूदा राजनीति को व्याख्यायित करते हुए वे कहते हैं-'सिर्फ तीस -पैंतीस प्रतिशत/लोगों के अपने पक्ष में एकत्रीकरण का/ गणित होता है वोट/इतने नम्बर पाकर तो/ हम फेल हो जाते थे बचपन में।' एक अन्य कविता 'राजनीति से विदाई' भी इस पृष्ठभूमि पर लिखी गयी है। कवि जीवन के नये-नये स्रोतों से कविता के लिए अपनी खुराक जुटाने में सक्षम है तो उसका कारण विषयवस्तु नहीं बल्कि उसकी दृष्टि है, जो विसंगतियों को आरपार देखने में सक्षम है। वे कविता में चीज़ों को ऐसे कोण पर रख देते है, जहां से कविता की धार फूट निकलती है। इस संदर्भ में एक उल्लेखनीय कविता है 'पता नहीं क्या सूझा'। उसकी बानगी देखें-'पानी में डूबते बिच्छू को/निकालने की व्यर्थ कोशिश में/कई बार डंक खाया/यह भूलकर कि/मेरा तन को महात्मा का नहीं/अब मन भर विष लिए/फिर रहा हूं।' -डॉ.अभिज्ञात

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