पुस्तकः अपने हिस्से का सूरज/लेखक: शिव प्रकाश दास/ प्रकाशकः उदंत मरुतृण, म.स. 46/2/2, 15 नापित पाड़ा मेन रोड, विधान पल्ली, बैरकपुर, पो.नोना चंदन पुकुर, बैरकपुर, उत्तर 24 परगना, कोलकाता-700122
'अपने हिस्से का सूरज' संग्रह की पहली कविता की आखिरी पंक्तियों से बात शुरू करता हूं, पहले इन्हें देखें-.'.इस तरह कई यात्राएं/मैं करता हूं/जब शहर की उमस/काटने लग जाती है मन को/मैं निकल पड़ता हूं खुटहना/पूरी करने अनंत यात्रा।' कवि शिव प्रकाश दास का यह पहला संग्रह है। इसकी कविताओं में जीवन के दृश्य हैं, उनके बारीक विवरण हैं, भाषा बोली से ओतप्रोत है, त्रासद यथार्थ, मूल्यों को खोने की टीस और कसक विस्तार से है लेकिन इन सबके बीच कविता..उसका इन्तज़ार कवि को भी है और पाठक को भी। वह जहां-जहां छिपी बैठी है पंक्तियों के बीच या फिर शब्दों के अन्तराल में। यह जो अनंत यात्रा है वह तमाम हलचलों के बीच सहसा कविता को पाने की है। इस पहली कविता में कविता कहां है वह देखें-'..आमों के पेड़ों पर/चलाने लगता हूं चीपा/कि कोई आम/चीपे के बुलावे पर/झट उतर आयेगा धरा पर।'अब तक फलों पर पथराव हमले के लिए रूढ़ हो चला है ऐसे में उसे आमंत्रण के तौर पर पेश करना एक नया लहजा है। 'पिता और पेड़' कविता में भी ऐसी ही पंक्तियां हैं-'कल की बारिश में/टूट चुके पपीते को देख/कोने में बैठ/सुबक रहे थे पिता।'
संग्रह में ग्रामीण परिवेश को व्यक्त करती कई कविताएं एक ही मनोभूमि पर हैं, उन्हें एक ही कविता का हिस्सा भी बनाया जा सकता है। हालांकि कुछ ऐसी भी हैं, जो तल्ख टिप्पणियों से बची हुई होकर भी अधिक प्रभावी हैं जिनमें 'अनाज के दाने' कविता रेखांकित करने योग्य है।
कभी-कभी तो पूरी बात मिलाकर एक काव्याभास देती है पर पूरी कविता की कोई पंक्ति काव्यात्मक नहीं लगती जिसमें 'छूटना गांव का', 'दस पांच की लोकल ट्रेन', 'नदी के आर-पार', 'कर्ज़ में', 'शिक्षा से जुड़ी लोककथा', 'बच्चे सीख रहे हैं', 'भूख' कविताएं शामिल हैं। चूंकि यह उनका पहला संग्रह है इसलिए वे अपनी रचना में क्या करना चाहते हैं यह व्यक्त करने की विकलता है। इसे वे एकाधिक कविताओं में व्यक्त करते हैं-अपने हिस्से का सूरज कविता में वे कहते हैं-'मैं अपने हिस्से का सूरज लिए/दौड़ता हूं हर ठांव/कि बचाये रखूं उसमें/झुर्री पड़े चेहरों के लिए आशाएं/बची रहे पहली बारिश में/भींगी मिट्टी की सोंधी गंध/और अंत में थोड़ी मिठास/आने वाले कल के लिए।' 'आदमीयत से बनती है कविता', 'पन्नों का इतिहास' भी इसी क्रम में पढ़ी जा सकती हैं। 'पत्र', 'अनाज के दाने' आदि कविताओं पर केदारनाथ सिंह की कविताओं की छायाएं मिलेंगी, जो संभवतः उनके प्रिय या आदर्श कवि होंगे। शिव प्रकाश ने केदार जी की कविताओं की ज़मीन पर अपनी कविताएं लिखी हैं। अपने परम्परा से कवि ग्रहण ही नहीं करता बल्कि उसे विकसित करने का भी प्रयास करता है। 'समय की रेत पर', 'बिस्तर की सिलवटें', 'कठपुतली' आदि कविताओं के लिए यह संग्रह अलग से जाना जायेगा क्योंकि उसमें उन्होंने वह सब कुछ अर्जित कर लिया है जो किसी कवि को अपनी ही तरह का कवि बनाती है। इस कविता की बानगी देखें-'कुछ ख़त भी होते हैं गुमनाम/जो हर थपेड़े में तलाशते रहते हैं अपना पता/घूमते हैं डाकिये की झोली में ताउम्र/और बिना किसी पूर्व सूचना के/किसी अनजान बस्ते के नीचे/ हो जाते हैं दफ़न।'यह सुखद है कि अनजान बस्ते के नीचे दफ़न होने वाले भावों को वे कविता में ढालते हैं।स्त्री के प्रति जिस नज़रिये से उन्होंने कविताएं लिखी हैं उसके कारण भी उनका काव्य-व्यक्तित्व उदात्तता की ओर बढ़ा है।व्यवस्था से मुठभेड़ के लिहाज़ से 'पागल हाथियों का ताण्डव', 'अरे! ओ प्रेतात्माओ', 'विकास का रथ', 'बकरियां', 'मरे हुए लोग', 'सपनों पर शोध' कविताएं उल्लेखनीय हैं और कवि के विकासक्रम की भावी दिशा का भी संकेत देती हैं।
-डॉ.अभिज्ञात
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें