पुस्तकः अहसास/लेखकः कुशेश्वर/प्रकाशकः समन्वय प्रकाशन, के.बी.97 प्रथम तल, कविनगर, गाज़ियाबाद-201002, उत्तर प्रदेश
कुशेश्वर की कविताएं क्रमशः तीक्ष्ण होती जाती टीस व गहरे दंश वाली हैं। और उनका काव्य स्वभाव हमारे पथराते जाते अहसासों की गहरी पड़ताल से और कसैला होता जाता है। मारक होती जाती निःसंगता के कारकों की शिनाख्त भी उन्होंने की है। पहली कविता ही हमारे काव्यास्वाद को बदलता है। 'अनंत में लीन' कविता की एक बानगी देखें-'वे सभी लौट गये/जो मेरे मित्र थे/ जो मेरे अपने थे../हां, वे उसे तरह भी नहीं लौटे/जैसे लौटते हैं कुछ लोग कब्रिस्तान से/जैसे लौटते हैं कुछ लोग श्मशान से/और बिखर जाते हैं/बातें करते-करते इधर-उधर/वे सभी अचानक इस तरह से लौटे/जैसे देखते ही देखते डूब जाता है सूरज/आख़िर वे मेरा साथ देते भी तो कैसे/मैं तो अनंत अंधकार में लीन हो रहा था।' कुशेश्वर उन कवियों में से नहीं हैं जिन्हें दुनिया जहान से तमाम शिकायतें हों और वह लहजा भी नहीं है। वे तो बस स्थितियों को समझने-समझाने के हिमायती हैं। इस कविता में भी उनका लहजा नर्म है। 'अपनों का सपना' में भी यही लहजा है। दिखावे की क्रांति वाले दोस्तों के व्यावहरिक सच को बयां करते हुए-'और जो मेरे साथ था/ढूंढ़ने नहीं निकला सपनों को/वो पालता रहा सपनों को/आज भी मुस्तैद है/अपनों के बीच/बांटता है सपने/अपनों को।' उनकी कई कविताएं व्यवस्था में बदलाव की चाहत वाली हैं और कई पंक्तियों में उन्होंने विचारों की चिंगारियां यत्र- यत्र बोयी हैं। 'आग' कविता का एक अंश यूं है-'आग भड़काने वाला/कभी सामने नहीं आता/इसलिए ईश्वर बना रहा स्वर्ग में/हवा बनी रही अदृश्य।' इन पंक्तियों में विनम्र बने रहने वाला कवि परवर्ती पंक्तियों में सहसा अपने मंतव्य को मारक बना देता है-'अाग उतनी ही सच है/जितनी की पेट की भूख/दोनों की एक-दूसरे पर आश्रित हैं/अंतर केवल इतना है/आग दिख जाती है/भूख नहीं दिखती/लेकिन जब दिखती है/तो चूल्हे की आग-सी पवित्र नहीं रह जाती।' कुशेश्वर की काव्य शैली, उनके रचना के मर्म और धर्म को समझने के लिहाज से उनकी कविता 'क़लम' की यह पंक्तियां मौजूं हैं-'सुबह का सूरज लिखें/तो ज़रूरी नहीं कि चौंधियाये क़लम/ चाहिए केवल उंगलियों की निष्ठा।' कुशेश्वर उन कविताओं की जमात के रचनाकर्मी हैं, जो कविता को क्रांति मानते हैं, इसलिए हर शब्द का चयन वे अपने हमले के लिए जाल बिछाने की तरह करते हैं और फिर जहां कहीं घटनाक्रम और विमर्श में उन्हें गुंजाइश दिखती है वे धमाका कर देते हैं या उसकी स्थितियां पैदा कर देते हैं। अपनी कविताओं में जहां वे गांव को लेकर नॉस्टेल्जिक बने रहते हैं वहीं रचनाकर्म की शुचिता, वैचारिक निष्ठा, आचरण की नैतिकता, भुखमरी और गरीबी पर कभी तंज तो कभी तल्ख रुख अख्तियार करते हैं और पाठकों को अपने विमर्श में शामिल होने की चाहत जगाते हैं। कई कविताओं में वे एक किस्सागोई का माहौल रचते हैं और अपने कथ्य को घटनाक्रम से स्पष्ट करते हैं यथा 'कलावती', 'कुछ चीज़ें कभी खोती नहीं', 'ख़तरे और कबीर', 'दुर्गंध', 'पेटी और बेटी', 'चौराहा', 'एक शब्द' आदि। 'मेरी ज़गह' कविता भी इनमें से है जिसमें वे जाति व्यवस्था के विमर्श का साथ साथ हाशिए के लोगों की व्यथा को पुरजोर तरीके से उठाते हैं। 'ज्वालामुखी पर खिला हुआ फूल' कविता संग्रह के अरसे बाद उनका यह दूसरा संग्रह 'अहसास' आश्वस्त करता है कि कविता के ज़रिये बदलाव के स्वप्न पर उनका यक़ीन बना हुआ है। जीवन में हाशिये पर जाते मुद्दों को उन्होंने पूरी शिद्दत से अपनी कविताओं में केन्द्रीय स्थान दिया है और उन पर संवाद के लिए लोगों को प्रेरित किया है।उनकी कुछ कविताएं शुभेच्छाएं हैं, जिनमें काव्यत्मकता अधिक है। ऐसी ही एक कविता है 'स्वप्न भरे मकई के दाने'। उसकी बानगी देखें-यदि स्वप्न को/मकई के सफ़ेद दानों की तरह/गिरते और पिछलते देखना हो/तो खड़े हो जाओ तुम/बलखाती बदली के नीचे/हरी दूब के ऊपर।-डॉ.अभिज्ञात
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