3/09/2019

समकालीन कविता पर नये ढंग से विमर्श


पुस्तक समीक्षा

पुस्तक का नामः गद्य वद्य कुछ/लेखकः नील कमल/ प्रकाशकः ऋत्विज प्रकाशन, 244, बांसद्रोणी प्लेस, कोलकाता-700070
वर्तमान समय में देश में आलोचना की स्वस्थ परिपाटी लगभग नष्ट हो चुकी है। निंदक हमलावर के तौर पर देखे जा रहे हैं। आलोचक के विवेक पर दृष्टपात करने के बदले उनकी नीयत की पड़ताल की जाने लगी है। ऐसे में साहित्य का क्षेत्र इससे अछूता रहे, यह मुमकिन ही नहीं है। असहमतियों से डरने वाले सबसे पहले साहित्य पर दृष्टिपात करते हैं। हिन्दी में साहित्य की आलोचना विधा कई और दुरभिसंधियों का शिकार हुआ है। वैचारिक आधार पर खेमेबाजी से लेकर जातीय स्तर तक की गुटबाजी से भी यह त्रस्त है। लकीर पीटते आलोचकों ने स्वतंत्र साहित्यिक मेधा से अधिक परिपाटी और परम्परा की शरण ले रखी है और लेखक भी उन्हीं के सुर में सुर मिलाते हुए अमुक या अमुक की साहित्यिक विरासत के दावेदार बनकर ही फूले नहीं समा रहे। ऐसे दौर में दो-टूक कहने का दुस्साहस रखने वाले नील कमल की आलोचना विधा की कृति 'गद्य वद्य कुछ' आशा की नयी किरण है। और यहां यह कहना अनावश्यक न होगा कि केवल बेबाकी किसी रचना को महत्त्वपूर्ण नहीं बनाती। आलोचक को सत्य के संधान की अथक बेचैनी और फिर हासिल को व्यक्त करने में तटस्थता बरतने की चुनौती भी स्वीकारनी होती है। भाषा का चुस्त-दुरुस्त होना, मुद्दों की समझ और कथ्य को उसके वास्तविक परिप्रेक्ष्य में रखना तो अनिवार्य होता ही है। इन सब पर यह कृति न सिर्फ खरी उतरती है, बल्कि बहुत कुछ अतिरिक्त भी जोड़ती है। न सिर्फ सोचने और कहने में नयापन है बल्कि विषयवस्तु की तोड़फोड़ कर उसके अर्थतह तक पहुंचने की कोशिश भी इस पुस्तक में मिलेगी। एक खिलंदड़ लहजा है। लीकपीटती प्रतिबद्धता से बंधने की लाचारी इसमें नहीं है। नज़रिया वामपंथी आलोचना वाला है लेकिन कीलित नहीं। कथन को सूक्ति बनाने की लियाकत हासिल करने की सामर्थ्य इस कृति में मिलेगी। एक ज़गह नील कमल कहते हैं-'कवि की लड़ाई इतनी स्थूल नहीं हो सकती कि वह बूथ की लड़ाई बन जाये।' यह कृति हमें मुक्तिबोध की 'एक साहित्यिक की डायरी' की याद दिलाती है। जिसमें कवि की अपनी रचनाप्रक्रिया और रचना की विषयवस्तु से विकल मुठभेड़ है, बल्कि वह दूसरों के रचनासंघर्ष से भी उतना ही सरोकार रखती है। ‘एक साहित्यिक की डायरी’ ‘वसुधा’ पत्रिका में उस स्तम्भ का नाम था, जिसके अन्तर्गत समय-समय पर मुक्तिबोध को अनेक प्रश्नों पर विचार करने की छूट होती थी। 'गद्य वद्य कुछ' में भी एक अखबार में प्रकाशित 'अक्षर घाट' स्तम्भ के आलेख संकलित हैं।
नील कमल ने इन लेखों में साहित्यिक दुनिया के संकुचन की खोज खबर ली है और सांगठनिक राजनीति की क्षुद्रताओं की पोल खोली है। एक तरह से ये लेख कविता पर एक जिरह है। इन्हें वैश्वीकरण के बाद की कविता के विमर्श के तौर पर भी देखा जाना चाहिए। नील कमल कुछ मूल्यों की स्थापनाओं की चाहत भी रखते हैं और कुछ ठोस निर्णयों तक पहुंचते भी हैं। वे कहते हैं-'जीवन में जनतांत्रिकता नहीं बची थी तब उसकी आकांक्षा कविता में थी। राजनीति जब संगठित अपराध के हवाले थी तब कविता प्रतिरोध के गीत गाती थी। तमाम सदिच्छाओं के बावजूद कविता मनुष्य के लिए एक बेहतर समाज बना पाने में व्यर्थ रही थी।'
नील कमल इस संग्रह में कई कवियों की प्रायः एक-एक कविता के आधार पर अपनी बात रखते हैं। हालांकि कवियों के चयन में एक क्रमिक लय है। जिन कविताओं को चुना है वे उनकी जिरह को आगे बढ़ाने में सहायक हैं। यह कृति आलोचक से असहमति रखने वालों को नये विमर्श के लिए प्रेरित करती है। त्रिलोचन, मुक्तिबोध, अज्ञेय, विनोद कुमार शुक्ल, केदारनाथ सिंह, ज्ञानेन्द्रपति, अष्टभुजा शुक्ल, अलोकधन्वा, अरुण कमल, राजेश जोशी, बोधिसत्व, वीरेन डंगवाल, अग्निशेखर, मलय, ऋतुराज जैसे कवियों से लेकर युवा कवि तक उनकी जद में हैं। जो इसे अत्यधिक प्रासंगिक बनाती है। पुस्तक का नाम त्रिलोचन की कविता से है, जिन्हें यह कृति समर्पित है।-डॉ.अभिज्ञात

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