3/16/2019

गिरमिटिया परिवारों की आकांक्षाओं व त्रासद जीवन की महाकाव्यात्मक अभिव्यक्ति

पुस्तकः गंगा रतन बिदेसी/लेखकः मृत्युंजय/प्रकाशकः भारतीय ज्ञानपीठ, 18 इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली-110003
सपने और यथार्थ की मुठभेड़ की विश्वस्त पड़ताल करता भोजपुरी उपन्यास 'गंगा रतन बिदेसी' लिखा है वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी मृत्युंजय जी ने। गिरमिटिया मजदूरों की दर्द भरी दास्तां को एक नये अंदाज में पेश करती यह कृति है तो उपन्यास लेकिन यह एक विश्वस्त सामाजिक इतिहास भी है। एक ऐसा इतिहास; जिसमें न सिर्फ कराहें शामिल हैं, बल्कि अजनबीपन की वह टीस भी है, जो दिल को झकझोर कर रख देती है। मॉरीशस और गुयाना में नास्टेल्जिया को जीते लोग जब तमाम यत्न करके स्वदेश लौटते हैं तो पाते हैं कि न तो यहां उनका कोई मान -सम्मान है न उनकी कोई खास ज़रूरत। विदेश में पैदा होने व अरसे तक रहने के बाद भी परदेशी कहे और समझे जाने की पीड़ा से मुक्त होने के लिए वे जब अपनी मातृभूमि पर भी अपने को अवांछित पाते हैं। इस त्रासद अनुभव के बाद वे पुनः वे विदेश लौट जाना चाहते हैं, जहां से वे आये थे। भारत से विदेश ले जाये गये गिरमिटिया मजदूरों के जाने की स्थितियों और कारणों से लेकर विदेश से लौटने और फिर यहां उपेक्षत होने की पूरी संवेदनात्मक पड़ताल के बाद लिखा गया यह उपन्यास अपने फलक में महाकाव्यत्मक है। यह जिस भाषा में रचा गया है वह भोजपुरी है। उपन्यास की विषय-वस्तु से इसकी भाषा इसलिए भी गहरा तादात्म्य स्थापित करने में सफल है क्योंकि यहां से जाने के पहले मजदूरों की भाषा भोजपुरी थी और फिर दूसरे देश धरती पर भी उन्होंने भोजपुरी को ही बचाये रखा और उसे ही अपनी पहचान और अस्मिता से जोड़ा। खास तौर पर इसके संवाद उस कथ्य को व्यक्त करने में समर्थ हैं, जो उनकी मूल मनोभूमि को पूरी शिद्दत से व्यक्त करते हैं। पूरा परिदृश्य इस भाषा में जीवंत हो उठा है। यह उपन्यास भोजपुरी का पहला अाधुनिक उपन्यास माना जाये को अतिशयोक्ति न होगी क्योंकि इसकी बनावट-बुनावट और चिन्ताएं अंतरराष्ट्रीय हैं। आधुनिक साहित्य के सर्वाधिक ज्वलंत मुद्दा विस्थापना इसकी केन्द्रीय विषय-वस्तु है। अरसे से इस बात की जरूरत महसूस की जा रही थी कि भोजपुरी में केवल गांव-जवार, खेत -खलिहान, मौसम और पत्नी से दूर रह रहे लोगों के विरह की बातों की ही अभिव्यक्ति बनकर न रह जाये। यह भाषा आज के आधुनिक व वर्तमान मुद्दों से भी दो-चार हो तभी उसे उसका वह स्थान मिल पायेगा, जिसकी वह हकदार है। यह कहने में मुझे संकोच नहीं कि यह उपन्यास भोजपुरी भाषा की श्रीवृद्धि की दिशा में उठा हुआ एक महत्वपूर्ण कदम है। भोजपुरी भाषा में किसी बात की अभिव्यक्ति का अर्थ यह कदापि नहीं होना चाहिए कि नजरिया भी गंवई हो। यदि दुनिया भर में भोजपुरी भाषी पसरे हुए हैं और महत्वपूर्ण पदों पर कार्यरत हैं तो उनकी बातें भोजपुरी में क्यों नहीं व्यक्त हो सकतीं। मृत्युंजय जी ने अपनी भूमिका में ही स्पष्ट किया है कि कितनी लम्बी तैयारी के बाद उन्होंने इस उपन्यास को लिखा है। इस बात की भी चर्चा की है कि भोजपुरी में लिखने की प्रेरणा उन्हें दिवंगत प्रख्यात कवि केदारनाथ सिंह से मिली। आशा है इस उपन्यास से भोजपुरी के पिछड़े होने की भाषा का मिथ टूटेगा। भोजपुरी फिल्मों और गीतों ने हाल के दिनों में जो भोजपुरी का मानमर्दन किया है, उससे निजात देने में यह उपन्यास सहायक साबित होगा।
'गंगा रतन बिदेसी' क ऐसी ही कथाओं का ताना-बाना है, जो सौ साल की काल-परिधि में बंधे एक गिरमिटिया परिवार को अभी तक एक सुनिश्चित स्थान नहीं दे पाया। पीढ़ी दर पीढ़ी विस्थापन से बने अभिशाप की छाया गिरमिटिया रतन दुलारी के पुत्र गंगा रतन बिदेसी पर भी पड़ती है। हालाांकि वह अपने जन्म से भारतीय है, लेकिन अभी भी इतना सबल नहीं हुआ कि विस्थापन में उजड़ी जड़ों को स्थिर और स्थापित कर सके। लेकिन अभिशाप की छाया से लगातार लड़ता हुआ प्रेम, सींचता रहा है वो जिजीविषा जो जीवन को जीने लायक बनाता है। गंगझरिया, हेमबती देवी, लछमी और डोना - उसी प्रेम के अलग-अलग कैनवास हैं, जिसके रंग अभिशाप की कालिमा को दबाए रखते हैं।
जितनी विस्तृत है इस उपन्यास की काल-परिधि, उतना ही विस्तार है सम-सामयिक समाज में चल रही गतिविधियों में प्रतिबिंबित उस समय का। उसके आचरण और उस समय के मूल्य-बोध का। मृत्युंजय जी ने कलकत्ता के प्रेसीडेंसी जेल के परिवेश से ले कर , नटाल (दक्षिण अफ्रीका) में गांधी जी के इर्दगिर्द घूमती घटनाओं, चरित्रों और उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, भारत में आज़ादी की लड़ाई से जुड़ी राजनीति, चंपारण सत्याग्रह के साथ गांधी जी का जुड़ना, रतन दुलारी-गंगझरिया-बरजेस का त्रिकोणीय प्रेम, गंगा रतन बिदेसी-लछीमिया का प्रेम-प्रसंग, गंगा रतन और डोना के बीच उगा एक अतिवायवीय प्रेम, हावड़ा के लोहा-फोंडरी में झुलसते लोगों का दुःख, पोस्ता बाज़ार की राजनीति, सियालदह रेल स्टेशन के त्रासद यथार्थवादी परिवेश में लिपटा जीवन, कलकत्ता के घोड़ों के रेस कोर्स से सम्बद्ध बंगाली अभिजात्य परिवारों के नख़रे, दार्जिलिंग के चाय-बागानों के प्राकृतिक सौंदर्य में रचबसा दैनंदिन जीवन, सबको जैसे एक अलग रंग देकर कल्पना के स्तर से यथार्थ के कैनवास पर उतारा है। भाषा लयात्मक और सहज है। गहन से गहन भाव शब्दों में बारीकी से वर्णित हैं। चाहे वह त्रासदी हो या उल्लास, प्रेम भरी चुहल हो या स्नेह का उद्भास। कुछ विरल ऐतिहासिक तथ्यों का संग्रह भी इस उपन्यास में है। जैसे कलकत्ता में हर रविवार को विक्टोरिया मैदान में लगने वाली पुरबिया लोगों की 'सभा', जिसका अब लोप-सा हो गया है और जिसके बारे में कहीं कोई वर्णन या चित्रण नहीं मिलता। -डॉ.अभिज्ञात

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