3/30/2019

संवेदना की समृद्ध दुनिया में ले जाने वाली कविताएं


पुस्तक का नामः यह मेरा दूसरा जन्म है/ लेखकः विमलेश त्रिपाठी/प्रकाशकः वर्तनी पब्लिकेशन, 23/6जी, लाल बिहारा, बमरौली, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश-211012
विमलेश त्रिपाठी के 'यह मेरा दूसरा जन्म है' संग्रह की कई कविताएं उल्लेखनीय हैं। खास तौर पर गद्यकाव्य 'वह लड़की', जिसमें इन दिनों चर्चित बांग्ला कवि श्रीजातो के उल्लेख यह स्पष्ट होता है कि वह बांग्ला समुदाय से जुड़ी है। मछली-भात, बाकी दिनचर्या और जीवन-संघर्ष के तौर-तरीके इस कविता को कोलकाता की ‍आर्थिक, सामाजिक और नैतिक समस्याओं से जूझती एक युवती का ‍विश्वसनीय शब्दचित्र है। (यहां यह उल्लेखनीय है कि श्रीजातो विमलेश के प्रिय कवियों में से हैं और इस संग्रह में संकलित कविता 'सच' उनकी एक कविता से प्रेरित है, जिसे उन्होंने रेखांकित भी किया है।) इस संग्रह में स्त्री पर लिखी यह इकलौती कविता नहीं है। 'हंसती हुई औरतें' कविता भी उल्लेखनीय है। उसकी बानगी देखें-'हे दुनिया की तमाम औरतो/तुम हंसो ऐसे ही/तुम्हारे हंसने से सभ्यता का स्याह अंधेरा/धीमे-धीमे पिघलता है।' रोती हुई स्त्री पर भी कविता है-'एक स्त्री का रोना'। यह कविता भी उनकी मर्मस्पर्शी कविताओं की लम्बी फेहरिश्त में है। इसकी कुछ पंक्तियों से अनुमान लग जायेगा कि यह कविताएं हमारी आंखें नम कर जाने या मन में गहरी टीस जगा जाने में सक्षम हैं और स्त्री के जीवन के हालात बदलने को समाज की समाज की प्रेरणा भी देती हैं-'एक समय ऐसा आता है/कि घर के कोने में रक्खे एक-एक ईश्वर भी रोने लगते हैं/उसके साथ/एक समय जब वह रोती है तो धरती कांपती है/आसमान थोड़ा दरक जाता है/एक स्त्री अकेले कभी नहीं रोती/एक स्त्री अकेले कभी नहीं मरती।' स्त्री की संवेदना के आगे नत इस संग्रह की कविता 'हमारा ईश्वर' में वे लिखते हैं-'तुम पुरुष/इसलिए तुम्हारे हिस्से का दर्द भी अधिक/स्त्री हूं मैं/इसलिए मेरे हिस्से की करुणा भी अधिक।' इसी क्रम में 'प्रकृति और पुरुष' कविता में उनका कहना है-'इस जन्म में एक स्त्री ने मेरे माथे को चूमकर/मुझे अजन्मा कर दिया।' 'चूल्हा', 'समय बदल गया है' आदि कविताएं भी स्त्री केन्द्रित हैं।
इस संग्रह में खोये हुए प्रेम, ईश्वर और कविता पर कई-कई कविताएं हैं या फिर उसके केन्द्र में हैं। और नहीं तो यह सब कविता के पार्श्व में हैं। 'एक प्रेम कथा', 'तुम सुन रही हो आलिया परवीन खातून', 'कवि नहीं हूं मैं', 'इसी तरह बच रहती है कविता', 'कविता अब', 'यात्राएं' ऐसी कविताओं में शुमार हैं। साम्प्रदायिक भेदभाव को मिटाने का जज्बा भी कुछ कविताओं में है, यथा 'यह मेरा दूसरा जन्म है', 'आत्म स्वीकार' आदि कविताएं। इस परिधि के बाहर भी उनकी कई महत्वपूर्ण कविताएं हैं जिसमें वे काले समय की चुनौतियों से जूझते हैं और जूझते लोगों की टूटन, विवशता और हताशा से दो-चार होते हैं। इन कविताओं को व्यक्त करने के क्रम में उनकी कविता 'काला' को हम भूमिका के तौर पर देखें-'रंगों की दुनिया से बेदखल करो इसे/यह रंग की तरह रंग नहीं/यह इतिहास के माथे पर कलंक का एक धब्बा है/इस दुनिया के हर कोने से मिटा दो।'
विमलेश त्रिपाठी संभावनाओं से भरे बहुआयामी रचनाकार हैं। गद्य और पद्य दोनों में उन्होंने अपनी प्रतिभा को लोहा मनवाया है। उनकी कई कविताओं में एक किस्सागोई भी चलती रहती है और इस क्रम में कुछ नाजुक मोड़ों पर उनकी कविता अपना जादू दिखाती है। विमलेश के इस संग्रह से गुज़रते हुए बराबर यह एहसास बना रहता है कि हम एक ऐसी दुनिया में पहुंच गये हैं, जो संवेदना से समृद्ध है। शब्द-चित्रों में जान पैदा करना वे जानता है। उदारहण है 'कुर्सियां' कविता की यह पंक्तियां-'उनका खालीपन भी भरा हुआ दिखता है/उनकी उदासी रात के अंधेर में/किसी बिरहन पाखी की तरह बिसुरती है।' हमें सहसा निर्मल वर्मा के उपन्यास की भाषा की याद आ जाती है। उनकी कई कविताओं में गांव को लेकर गहरी नास्टेल्जिया है। और ऐसी कविताओं में वे देशज भाषिक- सम्पदा का भरपूर उपयोग करते हैं। उन शब्दों के कारण वह ग्रामीण परिदृश्य न सिर्फ विश्वसनीय हो उठता है बल्कि वह अपनी पूरी गरिमा और गंध के साथ जीवंत हो उठता है। विमलेश की एक अतिरिक्त खूबी यह भी है कि वे लम्बी ओर छोटी दोनों तरह की कविताओं की सीमाओं और संभावनाओं को जानते हैं और उसका बखूबी प्रयोग करते हैं। उन्हें पता है कि कहां शब्द चूक जाते हैं और कहां उन्हें केवल संकेतों को हवाले कर देना चाहिए। उदाहरण के लिए उनकी कविता है 'पिता'-'आज बहुत दिनों बाद/पिता आये थे घर/कुछ और बूढ़े/कुछ और कमज़ोर लगे/मेरे पास उनके लिए/प्रणाम/और आश्वासन के सिवा कुछ न था..।'
-डॉ.अभिज्ञात

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