चुटीली चिकौटियां/लेखक: मधुप पांडेय/सम्पादन: डॉ.प्रवीण शुक्ल/प्रकाशक:डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा.) लि., 10-30, ओखला इंडस्टियल एरिया, फेज-2, नयी दिल्ली-10020, मूल्य-100 रुपये।
पिछले चार दशकों से कवि-सम्मेलन के मंच पर अपनी गरिमामय उपस्थिति से और लगभग सूत्रधार की भूमिका में मधुप पांडेय ने करोड़ों लोगों का मन मोहा है। वे जब मंच पर होते हैं, बतौर संचालक वे उतने ही जरूरी नजर आते हैं जितना अपना काव्य-पाठ करते समय महत्वपूर्ण। दैनिक अखबारों के रविवारीय परिशिष्ट में उनका कॉलम पढऩा पाठकों की आदत का हिस्सा बन चुका है। उनकी डेढ़ सौ कविताओं को उनके कविता संग्रह 'चुटीली चिकौटियां' में एकसाथ पढऩा एक सुखद अनुभव की प्राप्ति है।
मधुप पांडेय कई समाचार पत्रों में नियमित हास्य-व्यंग्य कविता का कॉलम लिखते हैं। कॉलम लिखने की शुरुआत उन्होंने 1975 में की थी और साहित्य और समाज के रिश्ते पर उनकी गहरी पकड़ का ही परिणाम है कि 36 साल बाद भी यह कॉलम बरकरार है। इस कॉलम में वे रोजमर्रा की जिन्दगी की विद्रूपताओं और विसंगतियों को आत्मीय किन्तु चुटीले अंदाज में पेश करते हैं, जिससे चीजों को उनके सही परिप्रेक्ष्य में देखने की दृष्टि मिलती है। कई बार तो किसी खास मुद्दे की गहराई तक आम आदमी नहीं पहुंच पाता तो उनका यह कॉलम उन्हें फिर से अपने सोच में रद्दोबदल करने को विïवश कर देता है। कई बार उनकी कविताएं मन को आनंदित करतीं हैं तो कई बार बेचैन और यथास्थिति में बदलाव को आतुर।
मधुप जी की काव्य शैली उपदेशात्मक नहीं है किन्तु वह चुपके से इस कार्य को अंजाम भी देती है। शब्दों के प्रयोग करने का बेहद शालीन और चुटीली लहजा और समस्या की सही जगह पर चोट करने की मारक क्षमता उनकी कविता की खूबियां हैं। उनकी कविताएं एकालाप नहीं है बल्कि संवाद हैं और उनमें जीवंतता है। कई बार तो वे हमारे सहज हास-परिहास में शामिल हो जाती हैं, ऐसी एक कविता की बानगी देखें-'मैनेजर ने/चपरासी से कहा-/अगर में मूड में आऊं/तुम्हें मैनेजर बना दूं/ और मैं तुम्हारा/चपरासी बन जाऊं/ तो निश्चित ही/तुम हवा में/उड़ान भरोगे/हां, यह बताओ/सबसे पहले/कौन सा काम करोगे?/चपरासी बोला-/मैं आप जैसा मूर्ख नहीं पालूंगा/सबसे पहले/चपरासी/ बदल डालूंगा।'
पुस्तक का नाम 'चुटीली चिकौटियां' इस अर्थ में सार्थक है कि मधुप जी की कविताएं 'हल्ला बोल' कविताएं नहीं हैं और ना ही 'व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करके रख दूंगा' का थोथा नारा है, बल्कि यह बड़े हौले से समाज की खामियों की ओर इशारा करतीं और उसका वास्तविक चेहरा पाठक के रू बरू करतीं। उन्हें अपने चुटीले अंदाज के कारण आनंदित भी करती हैं। जिन्दगी को सही व वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में देखने वाला रचनाकार ही ऐसा कर सकता है। हिन्दी साहित्य में व्यंग्य निचले दर्जे का साहित्य माना जाता है जबकि पूरे वैश्विक स्तर पर आधुनिक रचनाशीलता का पैमाना बगैर व्यंग्य और कटाक्ष के अधूरा है। अपने समय की आलोचना से किसी भी काल का श्रेष्ठ साहित्य आंखें नहीं चुरा सकता और आलोचना की भाषा में धार तब तक नहीं आ सकती जब तक व्यंग्य का पुट न हो। यह सुखद है कि अपनी व्यंग्य कविताओं से मधुप जी ने व्यंग्य के सकारात्मक पहलू को सामने लाया है और उसे प्रतिष्ठा दिलाने में अहम भूमिका निभाई है। उनका एक और योगदान जिसकी चर्चा यहां आवश्यक है। जो लोग कवि सम्मेलनों का लुत्फ उठाने के शौकीन हैं उन्हें यह पता है कि कवि सम्मेलन को बेहद शालीनता और और कुशलता के साथ अंजाम तक पहुंचाने के लिए मधुप पांडेय अलग से जाने जाते हैं। उनके संयोजन-संचालन में तालमेल की कमी महसूस नहीं होती। वे अपनी रचनाएं तो सधे नाटकीय अंदाज में तो पढ़ते ही हैं विलक्षण वाक्पटुता के साथ वे अन्य रचनाकारों को भी उनकी खूबियों के बखान के साथ मंच पर बुलाते हैं जिससे कि उसे अपनी रचना पढऩे की अनुकूल माहौल मिल जाता है और श्रोता पूरी तन्मयता के साथ मंच पर आने वाले कवियों को सुनते हैं।-डॉ.अभिज्ञात
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