सन्मार्ग, 15.12.2019 |
पुस्तक समीक्षा/अभिज्ञात
---------------------------
पुस्तक का नामः
एक औरत की डायरी से/लेखकः उमा झुनझुनवाला/प्रकाशकः एपीएन पब्लिकेशन्स, डब्ल्यू
जेड-87 ए, गली नं.-3, हस्तसाल रोड, उत्तम
नगर, नयी दिल्ली-110059
रंगकर्मी उमा
झुनझुनवाला की यह नयी पुस्तक डायरी फार्म में लिखी गयी है। उन्होंने इसकी भूमिका में
ही स्पष्ट कर दिया है कि
'इसमें एक औरत के भीतर
कई औरतें बड़बड़ाती मिल जायेंगी।' यह कृति औरतों
के मनोभावों को समझने की कोशिश है और यह औपचारिक डायरी की तरह किसी तारीख से बंधी नहीं
है। और यह भी कहना उतना ही सही होगा कि लेखिका के अंतरमन में या बाहर की दुनिया में
जो कुछ घटा है,
किसी खास तिथि को, वह
देश के किसी न किसी कोने में रोज घट रहा है, अन्य
स्त्रियों के मन या जीवन में। उन्होंने कई परिचित स्त्रियों से बातचीत के दौरान पाया
कि उनकी पीड़ा कहीं एक तार से जुड़ी है। उमा सुपरिचित रंगकर्मी हैं, इसलिए
वे यह भलीभांति जानती हैं कि लोगों से जीवंत संवाद कैसे स्थापित किया जाता है। इस अंदाज-ए-बयां
की खूबी के चलते पाठक उनकी बातों से गहरे तक स्वाभाविक रूप से जुड़ता चला जाता है और
उसे यह एहसास होता है कि वह आपबीती व जगबीती के भेद को भुला देता है। उन्होंने इस कृति
के कुछ हिस्सों का मंचन भी किया है और कृति को मांझा है।
इस कृति से गुजरने
के बाद हम पाते हैं कि यह आज की महिलाओं की संवेदना, टीस, तकलीफ
और संभावना का एक वृहद कोलॉज है। भाषा स्वछंद और भावों को सही संदर्भ में व्यक्त करने
में सक्षम है। अवधेश प्रीत ने ठीक कहा है कि इसमें 'अमृता
प्रीतम सा अंदाजे बयां है।' और अपनी बनावट
व बुनावट में किसी न किसी रूप यह अमृता प्रीतम की आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ की याद दिलाता
है। डायरी की यह 87 कड़ियां परत दर परत स्त्री मन, उपके
आसपास के परिवेश,
उसके संघर्षों, आशाओं-आकांक्षाओं
और चुनौतियां का सामाजिक जीवंत इतिहास व दस्तावेज जरूरत है लेकिन यह बाह्य व स्थूल
इतिहास नहीं है। यहां जो हलचलें हैं, वे बाह्य के दबाव
से मन में उठी हुई हैं।
कई दिनों की डायरियों
में घटनाएं सिरे से नदारत हैं केवल मनोवेग हैं..आत्मसंवाद हैं और उनमें काव्यात्मकता
है एक स्त्री के मन की उथलपुथल को व्यक्त करते..संवेदनशील। यह स्त्री के अंदर की दुनिया
को व्यक्त करती है,
जो एहसास के कोमल रेशों
से बुनी हुई है।
दिनांक : आज की
एक बानगी देखें-'अंतिम यात्रा में शामिल होना आसान नहीं होता।
रोज की ज़िन्दगी
में हम अपनों को कितना खो देते हैं, पता नहीं चलता।
लेकिन अंतिम अंतिम यात्रा के पीछे-पीछे चलते कदमों के नीचे से गुजर जाती हैं वो तमाम
उम्रे एक साथ..देखी अनदेखी..छुई अनछुई..भूली बिसरी..
आज वो तमाम उम्रे
जी आयी
आज खुद को मिट्टी
कर आयी
(28/12/14 को जय सेन के निधन पर उनकी अंतिम-यात्रा के दौरान। जय दा
रंगमंच की दुनिया के अद्भुत लाइट डिजाइनर थे)'
यह बाह्य घटनाक्रम
पर आधारित है। लेकिन डायरी के कई सफे ऐसे हैं जो समयबद्ध या घटनाबद्ध नहीं हैं...'दिनांक:
औरत से औरत की दुश्मनी'
का दिन का अंश देखें-'खेल
मानव के स्वभाव में है। औरत ने बरसों पहले इस बात का अर्थ समझ लिया था। लेकिन जब खेल
के दायरे का फैलाव होने लगा तो उसके स्व का संकुचन हो गया और इस संकुचन ने घृणा को
जन्म दिया। लाख चाह कर भी खेल को समझना उसे गवारा नहीं हुआ कभी।'
कुछ सफे हिस्से-सीधे
सीधे कविता हैं..और कुछ के कुछ अंशों में काव्य है.. 'अजीब
रंगों की कोई सांझ'
का अंतिम अंश यूं है-लेकिन
में रुक्मिणी नहीं हूं../मैं तो सिर्फ सफेद हूं/सफेद सर्द ठंडा रूप/जो दहक रहा है/अन्दर
ही अन्दर उबल रहा है/बस लावा फूट कर बाहर आने को है../कृष्ण की बांसुरी को गलना ही
होगा/काली रात को सफेद सुबह तक चल कर आना ही होगा/सांझ को खत्म करना ही होगा।'
3 टिप्पणियां:
जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (16-12-2019) को "आस मन पलती रही "(चर्चा अंक-3551) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं…
*****
रवीन्द्र सिंह यादव
शानदार सार्थक
सार्थक ।
एक टिप्पणी भेजें