(साभारःक्रमशः अंक-15,फरवरी 2009, शैलेन्द्र चौहान विशेषांक के अतिथि सम्पादक-शिवबाबू मिश्र)
अभिज्ञात का संस्मरण
लगभग अनायास ही शैलेन्द्र चौहान मेरी ज़िन्दगी में चले आये थे। मुझे कई बार हैरत भी होती है कि कोई किसी के करीब न चाहते हुए भी कैसे जा सकता है। इधर के कुछ बरसों में मैंने अपनी ज़िन्दगी की वे तमाम राहें बन्द कर दी हैं जहां से किसी का प्रवेश दबे पांव भी मुमकिन हो। आख़िर रिश्तों को निभाना आसान तो नहीं फिर नये रिश्ते क्यों बनाये जायें। हर रिश्ते के साथ ज़िम्मेदारी की डोर बंधी होती है वह आदमी को और बांधती चली जाती है चुपचाप और अपराध बोध उतना ही गहराता जाता है जब रिश्तों का सही प्रकार से निर्वाह नहीं हो पाता। पुराने रिश्तों के तकाज़ों पर मैं कभी खरा नहीं उतर पाया तो नये रिश्ते बनाने से डरने लगा। और दिल के दरवाज़े तो और सख्ती से बंद कर लिये। कोई दस्तक भी होती है तो उसने अनसुना करने की प्रवृत्ति भी धीरे-धीरे कहीं पल रही है।
याद करने की कोशिश करता हूं तो इतना भर याद आता है कि धरती पत्रिका संभवतः 15-18 साल पहले आयी थी। पत्रिका गंभीर थी और उसके सम्पादक थे शैलेन्द्र। पत्रिका पर कानपुर का पता था शायद। फिर हल्का-फुल्का पत्राचार चला। उनके पोस्ट कार्ड आते रहे कि वे किसी और शहर में हैं और पत्रिका भी नियमित नहीं है कि मैं उसका इन्तज़ार करूं। इस बीच मैं कोलकाता से अमृतसर अमर उजाला में गया व वहां से ट्रांसफर होकर जालंधर। मेरे पंजाब जाने की खबर उन्हें नहीं थी। सो वहां उनसे एकदम सम्पर्क नहीं था। सम्पर्क बना इंदौर जाकर जब मैंने वहां वेबदुनिया डाट काम में गया साहित्य चैनल का कार्यभार सम्भाला। ई मेल से जो रचना आयी थी वह और वहां मेरा ई मेल आई डी मेरे वास्तविक नाम से बना था hriday@webdunia.com इसलिए उनकी ओर से पहचाने जाने का सवाल नहीं था। पर मैंने पहचाना और फिर सम्पर्क कायम हो गया। उन दिनों वे नागपुर में थे जहां मेरे तमाम दोस्त थे। मेरे जीवन के लगभग 12 साल विदर्भ में बीते हैं। नागपुर से ट्रेन से घंटे भर की दूरी पर तुमसर है जहां मैंने होश संभाला। पांचवीं कक्षा से आगे की पढ़ाई की। हनुमंत नायडू, श्रध्दा पराते, सागर खादीवाला, नटखटी नागपुरिया, राजेन्द्र पटोदिया कितने ही आत्मीय साहित्यिक मित्र मेरे अग्रज रचनाकार वहां रहे हैं, जिनके बीच मैंने रचनाकर्म शुरू किया था। मेरे प्रिय चित्रकार भाऊ समर्थ भी। नायडू और भाऊ पर दिवंगत हो चुके हैं पर उनकी स्मृतियां साथ हैं।
शैलेन्द्र अब शैलेन्द्र चौहान के नाम से लिखने लगे थे। उन्होंने वेबदुनिया में भी रचनात्मक सहयोग दिया। फोन पर भी बातें होतीं नागपुर की भी और दुनिया जहान की भी। अक्सर रचनाओं के साथ एक पीली या नीली पुर्जी भी लगी होती जिस पर एक दो पंक्तियों का नोटनुमा संक्षिप्त पत्र होता था। इस पुर्जी का कोई नाम ज़रूर होता जिसके बारे में मुझे नहीं पता। यह सम्भवतः उच्च अधिकरियों की कार्यशैली का हिस्सा होता है, (जो कि वे भी हैं एनटीपीसी में चीफ मैनेजर जैसे किसी वरिष्ठ पद पर), लेकिन यह मेरे लिये नया-नया सा था और और कितनी ही पुर्जियां इस प्रकार की मेरे पास उनकी थीं जिन्हें सहेजना मुमकिन नहीं पर वे कहीं न कहीं बना हुई हैं मेरी दराज़ों, फाइलों के बीच क्योंकि मैं बड़ी मुश्किल से ही किसी के पत्र फेंकता हूं। इस प्रकार की पुर्जियां मुझे शैलेन्द्र जी की याद दिलाने में समर्थ हैं। कहीं किसी दराज में, किसी भी फाइल में इस तरह की पुर्जी दिखी तो वह शैलेन्द्र जी की होगी यह मान लेता हूं। उन पुर्जियां पर एक कोने में हल्का सा गोंद लगा होता है इसलिए वह अपने आसपास के किसी भी कागज़ पर सटकर उसका हिस्सा बन जाता है। लगता है वह उससे दस्तावेज़ पर कोई नोट हो। कई बार वह किसी खास रचना या पत्र के साथ जुड़कर उसपर एक विडम्बनापूर्ण या दिलचस्प टिप्पणी बन जाता है। कई बार मुझे यह पुर्जी उनके व्यक्तित्व से मेल खाती दिखी। आडम्बनरहीन, भूमिकाहीन सीधी संक्षिप्त और लगभग जरूरी सी टिप्पणी की तरह।
मैंने यह नहीं उम्मीद की थी कि उनसे मुलाकात भी होगी किन्तु हुई। मैंने सहसा इंदौर और वेबदुनिया को अलविदा कह दिया था। कोलकाता में पत्नी व बेटी थी जिनके बिना रहना लगभग मुश्किल हो गया था सो जमशेदपुर आ गया दैनिक जागरण में। यह करीब था कोलकाता से। और जल्द ही हुआ कि कोलकाता बाकायदा लौटने का अवसर मिल गया सन्मार्ग में। इस बीच उनसे सम्पर्क एकदम टूट गया था। मैं कुछ अरसे तक जमशेदपुर व फिर कोलकाता में परिस्थितयों व कार्य की नयी चुनौतियों से बेतरह जूझ रहा था और उनसे तालमेल बिठाने में लगा हुआ था। पुराने सम्पर्कों को सहेजने का क्रम अभी नहीं आया था। इसी बीच शैलेन्द्र जी का पत्र मिला। और फिर फोन से बातों का क्रम फिर यथावत हो गया। इसी बीच पहले ज्ञानरंजन जी का फोन मिला कि कोलकाता में पहल की ओर से आयोजन होने जा रहा है। फिर शैलेन्द्र जी ने यह बताकर सुखद समाचार दिया कि वे भी पहल के कार्यक्रम में शरीक होने आ रहे हैं। उन्होंने यह भी बताया कि आयोजन स्थल के आसपास ही उनके ठहरने का इन्तजाम है सो वे मेरे यहां नहीं ठहरेंगे किन्तु मिलने अवश्य आयेंगे। और उन्होंने वादा पूरा किया। वे सन्मार्ग के दफ््तर में मुझसे मिलने आये। यह उनसे मेरी पहली मुलाकात थी पर अपरिचित नहीं थे। अपने में सिमटे-सिमटे से। इतने शालीन व संतुलित कि उनसे बेतकल्लुफ होने में झिझक सी हुई। फिर तय हुआ डयूटी ख़त्म होने पर रात में फिर मुलाकात होगी। रात को हम कालेज स्ट्रीट के पास ग्रेस सिनेमा के पीछे विभूति केबिन में मिले। वह ऐतिहासिक चायखाना जहां शुरू-शुरू में मैं कोलकाता आया था तो अच्छाखासा बुध्दिजीवियों का जमावड़ा रहता था। किसी ज़माने में वहां गणेश पाइन जैसे वरिष्ठ व विमल कुंडू जैसे युवा चित्रकार व अन्य साहित्यकार बैठा करते थे और बंगला साहित्य, चित्रकला, फिल्म आदि में उत्तर आधुनिकता की शिनाख्त कर रहे थे। मेरी शोधनिर्देशिका डॉ.इलारानी सिंह ने मेरा गणेश पाइन से परिचय करा दिया था सो मैं यह सौभाग्य मिल गया कि मैं उनके अड्डे का हिस्सा बनूं। काली चाय और सिगरेट का दौर चलता रहता और उत्तर आधुनिकता पर बहस। हालांकि बाद में उनका अड्डा बिखर गया। पेंटिंग का मुझे शौक बचपन से रहा है और भाऊ समर्थ से जुड़ाव का वही कारण भी था। कोलकाता में भाऊ की जगह गणेश पाइन ने उन दिनों ले ली थी। और इधर वरिष्ठ चित्रकार होरीलाल साहू को मैंने बाकायदा अपना कलागुरु बनाया है और उनसे कला की तमाम एकेडमिक बारिकियां सीखने में लगा हूं क्योंकि वे आर्ट कालेज में प्रिंसिपल रह चुके हैं।
उन दिनों हिन्दी दैनिक विश्वमित्र के दीपनारायण सिंह व सन्मार्ग के रमाकान्त उपाध्याय जैसे पत्रकार बौध्दिक बहसें करते और अपने सम्पादकीय के विषय व दिशा तलाशते और तराशते थे। विभूति केबिन भी अब वर्ण परिचय जैसे पुस्तक माल की स्थापना के लिए ढहा दिया गया.. पर वह उन दिनों था। जबकि काफी हाउस और बुलबुल सराय में साहित्यक जमावड़ों के खत्म होने के बाद आखिर पड़ाव। मुझे कभी-कभी लगता है कि रूस के पतन के बाद बौध्दिक जमावड़ों में कमी आती गयी और कोलकाता का लेखक समाज जैसे मिशन के लेखन के च्युत होता चला गया और उसका लेखन एकांत लेखन बनता चला गया। विमर्श के पीछे सोच की गरमी नहीं रह गयी थी शब्दों में खोखलापन और भंगिमा में छद्म शामिल हो गया था। लेखन सामूहिक मामला नहीं रह गया और साथ मिलकर सोचने को कुछ नहीं बचा। और बचा भी तो नये सोचा को साझा करने का साहस नहीं जुटा। जनवादी लेखन का जो दौर जोरशोर से शुरू हुआ था उसकी जिक्र कर सुनने में नहीं आया।
उस समय वह चायखाना विभूति केबिन कोलकाता में साहित्य का अंतिम ठेक था जो टूट गया। पर उससे पहले शैलेन्द्र वहां मिले थे। वहां कालीशंकर तिवारी थे जिनका कुछ ही दिनों पहले पहला उपन्यास आया था। कवि जितेन्द्र धीर और कथाकार विमलेश्वर, अरसे से बंद लघुपत्रिका समय संदर्भ के सम्पादक रवीन्द्र कुमार सिंह थे। अगले दिन हम पहल के आयोजन स्थल भारतीय भाषा परिषद में मिले। वहां पिछली शाम मिली मित्र मंडली के सदस्य भी थे और शैलन्द्र जी के सम्मान में डॉ.कालीशंकर के भोज में शामिल होने के लिए हम टैक्सी पर रवाना हुआ। जहां दावत थी वह स्थल बंद मिला। अगला गंतव्य जो तय हुआ वह कुछ दूर था और हम पैदल थे। मंजिल पर पहुंचकर लगा कि वे काफी थक गये हैं। बाद में पता चला कि उनके डॉक्टर ने उन्हें धीरे-धीरे चलने को कहा है किन्तु उस वक्त उन्होंने तनिक भी भान नहीं होने दिया।
वे मेरे घर भी आये थे और तभी पता चला कि लोगों से घुलने-मिलने में उन्हें खासी दिक्कत होती है। न मेरी पत्नी से बात कर पाये न बेटी से। नहाकर लौटे तो मैं बाथरूम में घुसा पता चला कि टंकी का पानी ख़त्म हो चुका है पर उन्होंने नहीं बताया। जो पानी मिला उसी से काम चला लिया। बताया होता तो मोटर चलाकर पानी ले गया होता। कोई दिक्कत की बात नहीं थी। मेरे यहां बोरिंग किया हुआ है और हम मोटर चलाकर पानी टंकी में भर लेते हैं और पीने का पानी अलग बर्तन में। यह रोजमर्रे का क्रम है। पानी के मसले पर उनकी चुप्पी मुझे जब भी याद आती है मैं परेशान हो जाता हूं अपने रचनाकार मित्र की झिझक पर।
शैलेन्द्र का होना मनुष्य समाज व दुनिया की बेहतरी के बारे में सोचते व्यक्ति का होना है। मुझे कई बार यह लगता है कि बेहतर सोचने वाले दुनिया के लिए उतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं जितने की बेहतरी के बारे में सोचने वाले। बेहतर सोचने में किसी व्यक्ति का अपना बहुत बड़ा योगदान मुझे नहीं लगता क्योंकि वह प्रारब्ध स्थिति है लेकिन बेहतरी के बारे में सोचना अर्जित है। बहुत से प्रलोभन आड़े आते हैं बेहतरी के बारे में सोचते हुए जिनसे किनारा करना पड़ता है। शैलेन्द्र जी की कुछेक कविता संग्रहों की समीक्षा मैंने की है और यह महसूस किया है कि उनकी कविताओं में एक खास तरह की सादगी है जो उनके अपने व्यक्तित्त्व का भी हिस्सा है और दूसरी चीज़ यह कि उनके कथ्य में खरापन अधिक है जो उनकी कलात्मकता को भी कई बार कमतर करता चलता है। सच कहूं तो मुझे यह अपनी ओर अधिक आकृष्ट करता है। जीवन मूल्य और कला मूल्य की मुठभेड़ में जीवन मूल्य की जीत जाना मुझे अधिक आश्वस्तकारी लगता है। स्वयं अपनी कुछ रचनाओं में मैंने दुविधा की स्थिति में कलात्मकता का साथ छोड़ दिया है और कथ्य के साथ खड़ा हो गया। खास तौर पर हाल में लिखी गयी अपनी कहानी क्रैज़ी फैंटेसी की दुनिया में मुझे यह साथ लगा कि मेरी किस्सागोई का फ्रेम तोड़कर मेरा कथ्य बाहर जा रहा है। मैं कहानीपन की आसानी से रक्षा कर सकता था किन्तु मैंने ऐसा नहीं किया। इस कहानी में मेरा कथ्य अपना रूपाकार लेते हुए कहानी के ढांचे को तोड़ बैठता है और कहानी पहले ही ख़त्म हो जाती है किन्तु कथ्य की यात्रा आगे बढ़ जाती है। एक गंभीर पत्रिका में यह कहानी अरसे तक विचाराधीन पड़ी रही फोन पर लम्बी लम्बी बातें हुईं और वे लगातार दबाव बनाते रहे कि मैं अपने कथ्य को काट छांट दूं कहानी अच्छी बन जायेगी मगर मैं अपने आप को इसके लिए सहमत नहीं कर पाया। यहां तक कि मैंने एक कथा गोष्ठी में वही कहानी पढ़कर अपनी मलामत भी करवा ली। फिर भी मैं संतुष्ट हूं कि मैंने सही किया है। मैंने अपने से भी कई बार पूछा है कि मैं कहानी कविता आखिरकार क्यों लिखता हूं। क्या लोगों के मनोरंजन के लिए? क्या धनार्जन के लिए ? यदि नहीं तो फिर मैं एक अच्छी यानी ऐसी कहानी कविता लिखकर क्या करूंगा जिसे पढ़कर लोगों को मज़ा जैसा कुछ आ जाये या संतोष हो कि उनके पढ़ने का जायका मैंने नहीं बिगाड़ा है। मुझे लगता है बेहतरी के बारे में सोचने वाले लोग दूसरों का जायका बिगड़ने की परवाह नहीं करते। शैलेन्द्र भी अपने रचनाक्षणों में शायद यही सोचते होंगे। वे आस्वाद नहीं आश्वस्ति के रचनाकार हैं। उनके जैसे लिखने और सोचने वालों के रहते यह बोध होता है कि हम अकेले नहीं हैं और कला की जो सामूहिकता है वह अब भी बची हुई है। कहते हैं कई विद्वान की रचनाक्षण में कोई भी लेखक अकेला होता है किन्तु शैलेन्द्र जैसे लोग रचते हुए भी अपने आसपास शील, त्रिलोचन जैसे रचनाकारों के कहीं बहुत आसपास होने के बोध से लैस होते हैं और अपनी रचनाओं से यह भी बताते हैं कि तुम अकेले नहीं हो हम भी हैं साथ तुम्हारे साथ चिन्तन पथ पर। वे ऐसी डगर के पथिक हैं जहां व्यक्तिगत उपलब्धितों का कोई अर्थ नहीं होता। जहां एक साथ एक बेहतर सफर पर चलना ही कुल हासिल होता है। एक छोटा सा फोन काल, चिट्टी के नाम पर एक छोटी सी पर्ची, एक संक्षिप्त सा ई मेल, एक एसएमएस भी यह बता सकता है कि तुम अकेले नहीं हो कोई और भी है तुम्हारी परवाह करने वाला। लेखकीय जगत की यह पारिवारिकता शैलेन्द्र जी जैसे लोगों के कारण बनी है और बची है।
अभिज्ञात का संस्मरण
लगभग अनायास ही शैलेन्द्र चौहान मेरी ज़िन्दगी में चले आये थे। मुझे कई बार हैरत भी होती है कि कोई किसी के करीब न चाहते हुए भी कैसे जा सकता है। इधर के कुछ बरसों में मैंने अपनी ज़िन्दगी की वे तमाम राहें बन्द कर दी हैं जहां से किसी का प्रवेश दबे पांव भी मुमकिन हो। आख़िर रिश्तों को निभाना आसान तो नहीं फिर नये रिश्ते क्यों बनाये जायें। हर रिश्ते के साथ ज़िम्मेदारी की डोर बंधी होती है वह आदमी को और बांधती चली जाती है चुपचाप और अपराध बोध उतना ही गहराता जाता है जब रिश्तों का सही प्रकार से निर्वाह नहीं हो पाता। पुराने रिश्तों के तकाज़ों पर मैं कभी खरा नहीं उतर पाया तो नये रिश्ते बनाने से डरने लगा। और दिल के दरवाज़े तो और सख्ती से बंद कर लिये। कोई दस्तक भी होती है तो उसने अनसुना करने की प्रवृत्ति भी धीरे-धीरे कहीं पल रही है।
याद करने की कोशिश करता हूं तो इतना भर याद आता है कि धरती पत्रिका संभवतः 15-18 साल पहले आयी थी। पत्रिका गंभीर थी और उसके सम्पादक थे शैलेन्द्र। पत्रिका पर कानपुर का पता था शायद। फिर हल्का-फुल्का पत्राचार चला। उनके पोस्ट कार्ड आते रहे कि वे किसी और शहर में हैं और पत्रिका भी नियमित नहीं है कि मैं उसका इन्तज़ार करूं। इस बीच मैं कोलकाता से अमृतसर अमर उजाला में गया व वहां से ट्रांसफर होकर जालंधर। मेरे पंजाब जाने की खबर उन्हें नहीं थी। सो वहां उनसे एकदम सम्पर्क नहीं था। सम्पर्क बना इंदौर जाकर जब मैंने वहां वेबदुनिया डाट काम में गया साहित्य चैनल का कार्यभार सम्भाला। ई मेल से जो रचना आयी थी वह और वहां मेरा ई मेल आई डी मेरे वास्तविक नाम से बना था hriday@webdunia.com इसलिए उनकी ओर से पहचाने जाने का सवाल नहीं था। पर मैंने पहचाना और फिर सम्पर्क कायम हो गया। उन दिनों वे नागपुर में थे जहां मेरे तमाम दोस्त थे। मेरे जीवन के लगभग 12 साल विदर्भ में बीते हैं। नागपुर से ट्रेन से घंटे भर की दूरी पर तुमसर है जहां मैंने होश संभाला। पांचवीं कक्षा से आगे की पढ़ाई की। हनुमंत नायडू, श्रध्दा पराते, सागर खादीवाला, नटखटी नागपुरिया, राजेन्द्र पटोदिया कितने ही आत्मीय साहित्यिक मित्र मेरे अग्रज रचनाकार वहां रहे हैं, जिनके बीच मैंने रचनाकर्म शुरू किया था। मेरे प्रिय चित्रकार भाऊ समर्थ भी। नायडू और भाऊ पर दिवंगत हो चुके हैं पर उनकी स्मृतियां साथ हैं।
शैलेन्द्र अब शैलेन्द्र चौहान के नाम से लिखने लगे थे। उन्होंने वेबदुनिया में भी रचनात्मक सहयोग दिया। फोन पर भी बातें होतीं नागपुर की भी और दुनिया जहान की भी। अक्सर रचनाओं के साथ एक पीली या नीली पुर्जी भी लगी होती जिस पर एक दो पंक्तियों का नोटनुमा संक्षिप्त पत्र होता था। इस पुर्जी का कोई नाम ज़रूर होता जिसके बारे में मुझे नहीं पता। यह सम्भवतः उच्च अधिकरियों की कार्यशैली का हिस्सा होता है, (जो कि वे भी हैं एनटीपीसी में चीफ मैनेजर जैसे किसी वरिष्ठ पद पर), लेकिन यह मेरे लिये नया-नया सा था और और कितनी ही पुर्जियां इस प्रकार की मेरे पास उनकी थीं जिन्हें सहेजना मुमकिन नहीं पर वे कहीं न कहीं बना हुई हैं मेरी दराज़ों, फाइलों के बीच क्योंकि मैं बड़ी मुश्किल से ही किसी के पत्र फेंकता हूं। इस प्रकार की पुर्जियां मुझे शैलेन्द्र जी की याद दिलाने में समर्थ हैं। कहीं किसी दराज में, किसी भी फाइल में इस तरह की पुर्जी दिखी तो वह शैलेन्द्र जी की होगी यह मान लेता हूं। उन पुर्जियां पर एक कोने में हल्का सा गोंद लगा होता है इसलिए वह अपने आसपास के किसी भी कागज़ पर सटकर उसका हिस्सा बन जाता है। लगता है वह उससे दस्तावेज़ पर कोई नोट हो। कई बार वह किसी खास रचना या पत्र के साथ जुड़कर उसपर एक विडम्बनापूर्ण या दिलचस्प टिप्पणी बन जाता है। कई बार मुझे यह पुर्जी उनके व्यक्तित्व से मेल खाती दिखी। आडम्बनरहीन, भूमिकाहीन सीधी संक्षिप्त और लगभग जरूरी सी टिप्पणी की तरह।
मैंने यह नहीं उम्मीद की थी कि उनसे मुलाकात भी होगी किन्तु हुई। मैंने सहसा इंदौर और वेबदुनिया को अलविदा कह दिया था। कोलकाता में पत्नी व बेटी थी जिनके बिना रहना लगभग मुश्किल हो गया था सो जमशेदपुर आ गया दैनिक जागरण में। यह करीब था कोलकाता से। और जल्द ही हुआ कि कोलकाता बाकायदा लौटने का अवसर मिल गया सन्मार्ग में। इस बीच उनसे सम्पर्क एकदम टूट गया था। मैं कुछ अरसे तक जमशेदपुर व फिर कोलकाता में परिस्थितयों व कार्य की नयी चुनौतियों से बेतरह जूझ रहा था और उनसे तालमेल बिठाने में लगा हुआ था। पुराने सम्पर्कों को सहेजने का क्रम अभी नहीं आया था। इसी बीच शैलेन्द्र जी का पत्र मिला। और फिर फोन से बातों का क्रम फिर यथावत हो गया। इसी बीच पहले ज्ञानरंजन जी का फोन मिला कि कोलकाता में पहल की ओर से आयोजन होने जा रहा है। फिर शैलेन्द्र जी ने यह बताकर सुखद समाचार दिया कि वे भी पहल के कार्यक्रम में शरीक होने आ रहे हैं। उन्होंने यह भी बताया कि आयोजन स्थल के आसपास ही उनके ठहरने का इन्तजाम है सो वे मेरे यहां नहीं ठहरेंगे किन्तु मिलने अवश्य आयेंगे। और उन्होंने वादा पूरा किया। वे सन्मार्ग के दफ््तर में मुझसे मिलने आये। यह उनसे मेरी पहली मुलाकात थी पर अपरिचित नहीं थे। अपने में सिमटे-सिमटे से। इतने शालीन व संतुलित कि उनसे बेतकल्लुफ होने में झिझक सी हुई। फिर तय हुआ डयूटी ख़त्म होने पर रात में फिर मुलाकात होगी। रात को हम कालेज स्ट्रीट के पास ग्रेस सिनेमा के पीछे विभूति केबिन में मिले। वह ऐतिहासिक चायखाना जहां शुरू-शुरू में मैं कोलकाता आया था तो अच्छाखासा बुध्दिजीवियों का जमावड़ा रहता था। किसी ज़माने में वहां गणेश पाइन जैसे वरिष्ठ व विमल कुंडू जैसे युवा चित्रकार व अन्य साहित्यकार बैठा करते थे और बंगला साहित्य, चित्रकला, फिल्म आदि में उत्तर आधुनिकता की शिनाख्त कर रहे थे। मेरी शोधनिर्देशिका डॉ.इलारानी सिंह ने मेरा गणेश पाइन से परिचय करा दिया था सो मैं यह सौभाग्य मिल गया कि मैं उनके अड्डे का हिस्सा बनूं। काली चाय और सिगरेट का दौर चलता रहता और उत्तर आधुनिकता पर बहस। हालांकि बाद में उनका अड्डा बिखर गया। पेंटिंग का मुझे शौक बचपन से रहा है और भाऊ समर्थ से जुड़ाव का वही कारण भी था। कोलकाता में भाऊ की जगह गणेश पाइन ने उन दिनों ले ली थी। और इधर वरिष्ठ चित्रकार होरीलाल साहू को मैंने बाकायदा अपना कलागुरु बनाया है और उनसे कला की तमाम एकेडमिक बारिकियां सीखने में लगा हूं क्योंकि वे आर्ट कालेज में प्रिंसिपल रह चुके हैं।
उन दिनों हिन्दी दैनिक विश्वमित्र के दीपनारायण सिंह व सन्मार्ग के रमाकान्त उपाध्याय जैसे पत्रकार बौध्दिक बहसें करते और अपने सम्पादकीय के विषय व दिशा तलाशते और तराशते थे। विभूति केबिन भी अब वर्ण परिचय जैसे पुस्तक माल की स्थापना के लिए ढहा दिया गया.. पर वह उन दिनों था। जबकि काफी हाउस और बुलबुल सराय में साहित्यक जमावड़ों के खत्म होने के बाद आखिर पड़ाव। मुझे कभी-कभी लगता है कि रूस के पतन के बाद बौध्दिक जमावड़ों में कमी आती गयी और कोलकाता का लेखक समाज जैसे मिशन के लेखन के च्युत होता चला गया और उसका लेखन एकांत लेखन बनता चला गया। विमर्श के पीछे सोच की गरमी नहीं रह गयी थी शब्दों में खोखलापन और भंगिमा में छद्म शामिल हो गया था। लेखन सामूहिक मामला नहीं रह गया और साथ मिलकर सोचने को कुछ नहीं बचा। और बचा भी तो नये सोचा को साझा करने का साहस नहीं जुटा। जनवादी लेखन का जो दौर जोरशोर से शुरू हुआ था उसकी जिक्र कर सुनने में नहीं आया।
उस समय वह चायखाना विभूति केबिन कोलकाता में साहित्य का अंतिम ठेक था जो टूट गया। पर उससे पहले शैलेन्द्र वहां मिले थे। वहां कालीशंकर तिवारी थे जिनका कुछ ही दिनों पहले पहला उपन्यास आया था। कवि जितेन्द्र धीर और कथाकार विमलेश्वर, अरसे से बंद लघुपत्रिका समय संदर्भ के सम्पादक रवीन्द्र कुमार सिंह थे। अगले दिन हम पहल के आयोजन स्थल भारतीय भाषा परिषद में मिले। वहां पिछली शाम मिली मित्र मंडली के सदस्य भी थे और शैलन्द्र जी के सम्मान में डॉ.कालीशंकर के भोज में शामिल होने के लिए हम टैक्सी पर रवाना हुआ। जहां दावत थी वह स्थल बंद मिला। अगला गंतव्य जो तय हुआ वह कुछ दूर था और हम पैदल थे। मंजिल पर पहुंचकर लगा कि वे काफी थक गये हैं। बाद में पता चला कि उनके डॉक्टर ने उन्हें धीरे-धीरे चलने को कहा है किन्तु उस वक्त उन्होंने तनिक भी भान नहीं होने दिया।
वे मेरे घर भी आये थे और तभी पता चला कि लोगों से घुलने-मिलने में उन्हें खासी दिक्कत होती है। न मेरी पत्नी से बात कर पाये न बेटी से। नहाकर लौटे तो मैं बाथरूम में घुसा पता चला कि टंकी का पानी ख़त्म हो चुका है पर उन्होंने नहीं बताया। जो पानी मिला उसी से काम चला लिया। बताया होता तो मोटर चलाकर पानी ले गया होता। कोई दिक्कत की बात नहीं थी। मेरे यहां बोरिंग किया हुआ है और हम मोटर चलाकर पानी टंकी में भर लेते हैं और पीने का पानी अलग बर्तन में। यह रोजमर्रे का क्रम है। पानी के मसले पर उनकी चुप्पी मुझे जब भी याद आती है मैं परेशान हो जाता हूं अपने रचनाकार मित्र की झिझक पर।
शैलेन्द्र का होना मनुष्य समाज व दुनिया की बेहतरी के बारे में सोचते व्यक्ति का होना है। मुझे कई बार यह लगता है कि बेहतर सोचने वाले दुनिया के लिए उतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं जितने की बेहतरी के बारे में सोचने वाले। बेहतर सोचने में किसी व्यक्ति का अपना बहुत बड़ा योगदान मुझे नहीं लगता क्योंकि वह प्रारब्ध स्थिति है लेकिन बेहतरी के बारे में सोचना अर्जित है। बहुत से प्रलोभन आड़े आते हैं बेहतरी के बारे में सोचते हुए जिनसे किनारा करना पड़ता है। शैलेन्द्र जी की कुछेक कविता संग्रहों की समीक्षा मैंने की है और यह महसूस किया है कि उनकी कविताओं में एक खास तरह की सादगी है जो उनके अपने व्यक्तित्त्व का भी हिस्सा है और दूसरी चीज़ यह कि उनके कथ्य में खरापन अधिक है जो उनकी कलात्मकता को भी कई बार कमतर करता चलता है। सच कहूं तो मुझे यह अपनी ओर अधिक आकृष्ट करता है। जीवन मूल्य और कला मूल्य की मुठभेड़ में जीवन मूल्य की जीत जाना मुझे अधिक आश्वस्तकारी लगता है। स्वयं अपनी कुछ रचनाओं में मैंने दुविधा की स्थिति में कलात्मकता का साथ छोड़ दिया है और कथ्य के साथ खड़ा हो गया। खास तौर पर हाल में लिखी गयी अपनी कहानी क्रैज़ी फैंटेसी की दुनिया में मुझे यह साथ लगा कि मेरी किस्सागोई का फ्रेम तोड़कर मेरा कथ्य बाहर जा रहा है। मैं कहानीपन की आसानी से रक्षा कर सकता था किन्तु मैंने ऐसा नहीं किया। इस कहानी में मेरा कथ्य अपना रूपाकार लेते हुए कहानी के ढांचे को तोड़ बैठता है और कहानी पहले ही ख़त्म हो जाती है किन्तु कथ्य की यात्रा आगे बढ़ जाती है। एक गंभीर पत्रिका में यह कहानी अरसे तक विचाराधीन पड़ी रही फोन पर लम्बी लम्बी बातें हुईं और वे लगातार दबाव बनाते रहे कि मैं अपने कथ्य को काट छांट दूं कहानी अच्छी बन जायेगी मगर मैं अपने आप को इसके लिए सहमत नहीं कर पाया। यहां तक कि मैंने एक कथा गोष्ठी में वही कहानी पढ़कर अपनी मलामत भी करवा ली। फिर भी मैं संतुष्ट हूं कि मैंने सही किया है। मैंने अपने से भी कई बार पूछा है कि मैं कहानी कविता आखिरकार क्यों लिखता हूं। क्या लोगों के मनोरंजन के लिए? क्या धनार्जन के लिए ? यदि नहीं तो फिर मैं एक अच्छी यानी ऐसी कहानी कविता लिखकर क्या करूंगा जिसे पढ़कर लोगों को मज़ा जैसा कुछ आ जाये या संतोष हो कि उनके पढ़ने का जायका मैंने नहीं बिगाड़ा है। मुझे लगता है बेहतरी के बारे में सोचने वाले लोग दूसरों का जायका बिगड़ने की परवाह नहीं करते। शैलेन्द्र भी अपने रचनाक्षणों में शायद यही सोचते होंगे। वे आस्वाद नहीं आश्वस्ति के रचनाकार हैं। उनके जैसे लिखने और सोचने वालों के रहते यह बोध होता है कि हम अकेले नहीं हैं और कला की जो सामूहिकता है वह अब भी बची हुई है। कहते हैं कई विद्वान की रचनाक्षण में कोई भी लेखक अकेला होता है किन्तु शैलेन्द्र जैसे लोग रचते हुए भी अपने आसपास शील, त्रिलोचन जैसे रचनाकारों के कहीं बहुत आसपास होने के बोध से लैस होते हैं और अपनी रचनाओं से यह भी बताते हैं कि तुम अकेले नहीं हो हम भी हैं साथ तुम्हारे साथ चिन्तन पथ पर। वे ऐसी डगर के पथिक हैं जहां व्यक्तिगत उपलब्धितों का कोई अर्थ नहीं होता। जहां एक साथ एक बेहतर सफर पर चलना ही कुल हासिल होता है। एक छोटा सा फोन काल, चिट्टी के नाम पर एक छोटी सी पर्ची, एक संक्षिप्त सा ई मेल, एक एसएमएस भी यह बता सकता है कि तुम अकेले नहीं हो कोई और भी है तुम्हारी परवाह करने वाला। लेखकीय जगत की यह पारिवारिकता शैलेन्द्र जी जैसे लोगों के कारण बनी है और बची है।