संस्मरणः शलभ श्रीराम सिंह, साभारः धरती
भूलने वाले तुझे क्या याद भी आता हूं मैं. शलभ जी ने मुझे एक ख़त में लिखा था. यह शेर किसी और का था मगर वह रह-रह कर मेरे जेहन में जो छवि बनाता है वह एक ऐसी शख्सियत का है जिससे चाह कर भी पीछा नहीं छुड़ाया जा सकता. अंतराल के बीच वह शख्स एकबारगी मेरे जीवन में घुसपैठ कर जाता था और कुछ दिनों के लिए जीवन को, जीवन के प्रचलित ढर्रे को लेकर मुझे नए सिरे से सोचने पर विवश कर देता था. एक ऐसी जीवन पध्दति का नाम था शलभ जो जीवन के प्रचलित प्रतिमानों में एक हस्तक्षेप की तरह था.
उनका होना और उनके होने का अर्थ मेरे तई एक ऐसे द्वंद्व के बीच घिरना था जो किसी व्यक्ति और रचना के बीच के अंतरसंबंध पर कुछ जरूरी सवाल खड़ा करता है.क्या अस्वाभाविक जीवन शैली किसी रचनाकार को अतिरिक्त रचनात्मक खुराक देती है. क्या साहित्य की दुनिया में ईमानदारी का स्वरूप जीवन के प्रति ईमानदारी से अलग होता है. क्या कोई व्यक्ति तमाम बेईमानियों के भरोसे किसी बड़ी ईमानदारी का प्रारूप तैयार कर सकता है. क्या जीवनके तमाम प्रश्नों और समस्याओं से भागता हुआ व्यक्ति किसी खास मोर्चे पर मुठभेड़ की मुद्रा में दिखाई देने भर से और मुठभेड़ की बातें करने भर से लड़ाका मान लिया जाना चाहिए.
क्या अपने आपको असाधारण मान कर जीने और बाकी लोगों और उनके जीवन मूल्यों को क्षुद्र मान कर जीया गया जीवन दूसरों के समक्ष सचमुच कोई आदर्श रख सकता है. दरअसल, मुझे अक्सर लगा कि शलभ जी की समस्या यह थी कि उन्होंने लगातार दुनिया को हेय मानते हुए पृथ्वी का प्रेम गीत' लिखा है. उनकी रचना प्रक्रिया कुत्सा,र् ईष्या और युयुत्सा को जीवन संचालक तत्व के तौर पर देखने की थी. वे भावना के नहीं, भंगिमा के रचनाकार रहे हैं. वे व्यक्ति को व्यक्त से हेय मानते रहे. अपने आपको मार्क्स के बरक्स रखकर देखने से कम पर वे राजी नहीं थे.एक महान व्यक्ति-सा जीने की कोशिश और लोगों द्वारा उनकी महानता के अस्वीकार ने उन्हें अराजक बना दिया था. वे अपने जीवन में लगातार ड्रामा करते रहे. वे अपनी हरकतों को किस्से की शक्ल में लोगों तक प्रचारित करने को भी लगातार उत्सुक रहे. वे दूसरों के नाम से अपने बारे में लिख सकते थे और अपने पर किसी को घंटों समझा कर उसे शलभ को समझने की दृष्टि से सम्पन्न कर सकते थे.
दुर्भाग्य से ऐसे लेखकों की कमी नहीं जिन्हें अपने नाम से दूसरे का लेख छपने पर गुरेज नहीं, इसलिए खुद शलभ श्रीराम सिंह पर कई लेखों अथवा उनके समकालीनों के साथ उनकी तुलना करते हुए लिखे गए लेखों के वास्तविक लेखक खुद शलभ रहे, जिनकी शिनाख्त हिन्दी आलोचना के लिए भी दिलचस्प होगी. शलभ की भाषा और मुहावरे के अध्येता यह खोज सकते हैं कि शलभ के बारे में शलभ के शब्दों में ही कितने लेख हैं, जो अलग-अलग नामों से प्रकाशित होते रहे हैं. शलभ जी ही ऐसा कर सकते थे कि अपनी एक पुस्तक में अपने बारे में अपनी हस्तलिपि में लिखकर बाबा (नागार्जुन) के उस पर हस्ताक्षर करवा लें और फिर उसे जस-का-तस पुस्तक में प्रकाशित भी करवा दें.
शलभ जी का लिखा मैं चाहकर भी बहुत नहीं पढ़ सका. उनका लेखन मुझे लगातार कृत्रिम लगा. हालांकि उन्होंने अपनी प्रथम पुस्तक की अंतिम और फटी हालत में पुस्तक मुझे सप्रेम यही लिखकर भेंट की थी. शायद वह कल सुबह होने से पहले' ही थी. मुझे यह अजीब-सा लगा था, लेकिन वह उनके गणित वाले स्वभाव के अनुरूप था. वे यह सब करके जैसे किसी को कोई विशेष तरजीह दे रहे होते थे और दूसरे भी ऐसा करके उन्हें उपकृत करें यह मन ही मन चाहते थे. सकलदीप सिंह की पुस्तक प्रतिशब्द आई तो मैं सकलदीप जी के साथ उनके घर बेलूड़ गया था (जो दरअसल कल्याणी सिंह का ही अधिक था, जहां वे कभी कभार वर्षों बाद लौटते रहते थे). उन्हें यह जानकर अच्छा- सा लगा था कि यह उनके पुस्तक की पहली प्रति थी. उनके आग्रह पर सकलदीप जी ने पुस्तक की पहली प्रति लिखकर उन्हें भेंट की थी हालांकि वे इस तरह की औपचारिकताओं के कायल न थे. वे उस तरह की साहित्य धारा में से कभी थे जो अपनी पुस्तकें साहित्य के अध्येताओं के पास यह लिख कर देते थे कि कृपया इस पुस्तक की समीक्षा न करें. जगदीश चतुर्वेदी की निषेध पीढ़ी में शामिल तथा साठोत्तरी साहित्यांदोलनों के दौर मेंकलकत्ता से श्मशानी पीढ़ी के नाम से आंदोलन छेड़ने वाले सकलदीप सिंह न सिर्फ अपने काव्य वैशिष्टय के चलते अकेले पड़ जाने का दंश झेलने को विवश रहे हैं, बल्कि उनके लेखन पर गंभीरता से विचार करने को मोटी पोथियों की संख्या बढ़ाने में लगे आलोचक भी तैयार नहीं हैं, क्योंकि जल्दबाजी में सकलदीप को न तो समझा जा सकता है और न ही आलोचना के प्रचलित मुहावरों में से किसी एक को आनन_फानन में उन पर चस्पा ही किया जा सकता है.
मैं 16 साल पहले कोलकाता पहूंचा तो वहीं की साहित्यिक महफिलों, साहित्यकारों से उनकी चर्चा सुनी थी. मुलाकात नहीं हुई थी. 3 साल बाद भिलाई में जनवादी लेखक संघ का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ तो पीएचडी क़ी मेरी शोधनिर्देशिका डॉ ऌलारानी सिंह को भी आमंत्रित किया गया था. उन्होंने आयोजकों से मेरे आने के बारे में भी पूछ लिया और मैं उनके साथ भिलाई सम्मेलन में पहुंच गया. वहां काव्य पाठ का अवसर भी मुझे दिया गया था, हालांकि जलेस का सदस्य मैं बाद में बना.
वहां मुख्य आयोजकों में विजय बहादुर सिंह भी थे.कोलकाता से इस सम्मेलन में पहुंचने वालों में हमारे अलावा केवल राजकिशोर जी थे. वे उन दिनों रविवार' में थे. जिनके साथ प्रथम परिचय के साथ ही जाम टकराने का मुझे अवसर प्राप्त हुआ था. कोलकाता लौटकर उन्होंने रविवार के लिए समीक्षा करने को मुझे असद जैदी का काव्य संग्रह कविता का जीवन' दिया था.
भिलाई के इस सम्मेलन में अदम गोंडवी से मुलाकात एक ऐसे बुर्जुग दोस्त से मुलाकात साबित हुई जिससे सादगी पर तमाम नफासतें कुर्बान की जा सकती हैं. विजय जी ने इस सम्मेलन के बाद अदम गोंडवी को अपने शहर विदिशा में काव्य पाठ के लिए न्यौता था. अदम जी के आग्रह पर मैं भी विदिशा जाने को तैयार हो गया, इधर इला जी भी सागर विश्वविद्यालय के अपने सहपाठी विजय जी के यहां जाने को तैयार सी थीं. हम विदिशा में तीन दिन रहे. अदम जी के साथ एक्के पर सांची तक की यात्रा सुखद रही, लेकिन यहां विदिशा आकर जाना की शलभ जी विदिशा में अक्सर रहे हैं. विजय जी उनके अपनों से अपने थे, इसलिए उनकी चर्चा अक्सर छिड़ती रहती थी. पता यह भी चला कि इन दिनों वे विजय जी से नाराज चल रहे थे इसलिए किसी और शहर में थे.
कोलकाता लौटने के कुछ अरसे खबर मिलीकि शलभ जी बेलूड़ आए हुए हैं. इला जी ने भी मिलने की इच्छा जाहिर की थी सो उनके साथ ही पहली बार कल्याणी जी के यहां जाना हो सका. कल्याणी जी बिगुल पत्रिका भी निकालती थीं और कुछ कविताओं की पुस्तकें भी उनकी आई थीं. शलभ जी से इला जी की भी पहली ही मुलाकात थी. उसके बाद शायद वे एकाध बार ही उनसे मिली होंगी, लेकिन मैं अक्सर शलभ जी से मिलने जाने लगा था. कभी-कभी श्रीनिवास शर्मा और सुरेश कुमार शर्मा वहां अवश्य जाते थे, मगर और किसी लेखक को मैंने उनके यहां नहीं देखा. अलबत्ता कुछ बांग्ला लेखक अवश्य कल्याणी जी से मिलने पहुंचते थे. कई बार काव्य गोष्ठी जम ही जाया करती थी और बांग्ला लेखकों की रचनाएं मुझे समझाने अथवा अपनी और मेरी कविताएं उन्हें समझाने में शलभ जी की बहुभाषी प्रतिभा दिखाई दे जाती थी. उन्हीं दिनों मुझे पता चला था कि शलभ जी का न सिर्फ बांग्ला पर, बल्कि अंग्रेजी पर भी अच्छा-खासा अधिकार था. मुझे उन दिनों बांग्ला नहीं आई थी. बांग्ला मैंने पत्रकारिता में आने के बाद सीखी.
कल्याणी जी से ही मुझे पता चला था कि शलभ जीका एक दाम्पत्य जीवन फैजाबाद जिले के मसौढ़ा गांव में भी है. कल्याणी जी से उन्हें दो बेटियां हैं. जिनकी सारी जिम्मेदारी कल्याणी जी ने उठाई है. पढ़ाई-लिखाई से लेकर विवाह आदि तक. कोलकाता के साहित्यिक मित्रों से उन्हीं दिनों पता चला था कि बेटी की शादी में सूचना के बावजूद वे नहीं पहुंचे थे और महीनों बाद आए तो दोस्तों को न आने पर प्रतिक्रिया में कहा था-ऐसी कितनी ही बेटियां मेरी हैं किस-किस की शादी में पहुंचूं.' कल्याणी जी ने भी बताया था कि घर की जिम्मेदारियां पूरी तरह से उनकी हैं. शलभ जी जब मन आता है आते हैं और फिर चले जाते हैं.
शलभ जी के पहनावे और रहने के तौर-तरीकों पर मैंने बाद में एक कविता भी लिखी थी, जो मेरे तीसरे काव्य संग्रह आवारा हवाओं के खिलाफ चुपचाप' में है जिसमें मैंने उनका शब्द चित्र खींचा है. तैयारी के बावजूद (कवि शलभ श्रीराम सिंह के लिए) एक सुस्तगाह में फिलहाल को उपस्थित है-
वह केवल तौलिया लपेट
जैसे वह जा रहा हो-नहाने
लेकिन नहाने की किसी योजना से सरोकारहीन
पता नहीं, किसमें, किससे, अपनी किन शर्तों पर
नहाएगा वह, कहना कठिन है
क्यों है वह बिन नहाए
नहाने की तैयारी के बावजूद
वह गुसलखाने के निरंतर आमंत्रण के विरध्द
रहता है कई_कई दिन
जस-का-तस रहता है वह
चहल-पहल भरे बरामदे के विरध्द
वह झटके से कभी आ जाता है
वैेसे ही बरामदे में
बरामदे की सारी ललकार धंसक जाती है
बरामदे की संहिता को चीथ देना
कैसा लगता होगा उसे
वह अपराजेय लौटता है बरामदे से
अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए
शाबाशी देते हुए तौलिए को
कभी-कभी वह जरूर पूछता होगा
उकताकर
भई तौलिए-तुम नहाओगे?
कैसा लगता है तुम्हें मेरे साथ
निरंतर सभ्यता की खोखली लड़ाई
लड़ते हुए.
शलभ जी के यहां जाने की जो कीमत मुझे चुकानी पड़ती थी वह थी विल्स सिगरेट के दो पैकेट. उनका कहना था कि सिगरेट के बिना लिखने-पढ़ने का मूड नहीं बन पाता है और कल्याणी जी से सिगरेट की मांग नहीं कर पाते. सो उनके यहां से दो एक बार सिगरेट खरीदने के लिए लौटाए जाने के बाद मैं इस जहमत से बचने के लिए बेलूड़ स्टेशन उतरकर सिगरेट से लैस होकर ही उनके यहां जाता. मेरे लिए वे एक तिलस्मी व्यक्ति थे. मुझमें लगभग शिष्यत्व का भाव उनके प्रति जगने लगा था. वे चाहते थे कि मेरे शोध प्रबंध में उनकी कविताओं का भी जिक्र हो, पर उनकी कोई पुस्तक ढ़ूंढे से उन्हें नहीं मिल रही थी. और मेरा संकट यह था कि मैंने उन्हें पढ़ा ही नहीं था. उन्होंने डॉ ऌंदु जोशी के नाम एक पत्र लिखकर दिया था कि वे मुझे शलभ जी की कोई पुस्तक मुहैया कराएं, मुझे अपने शोधकार्य के लिए उसकी आवश्यकता है. इंदु जी ने पुस्तक तो दे दी, लेकिन मेरे शोधकार्य में शलभ जी का जिक्र नहीं आ सका, हालांकि वह इला जी की मौत के बाद शायद दफन हो जाना है.लगभग पूर्ण हो चुके शोधकार्य को मैं चाहकर भी न तो कहीं प्रकाशित करवा पाया और ना ही उस पर डिग्री ले पाया. अपनी मित्र हो चुकी शोधनिर्देशक की मौत मेरे अंदर उस शोधकार्य के प्रति ऐसी वितृष्णा जगा चुकी है जो सारे प्रलोभनों पर अब तक भारी पड़ती रही है. जैसे इला जी की अदृश्य छाया मेरे ऊपर मंडराने लगती है. मैं मौत से जूझती और कैंसर की दवाओं के साइड इफेक्ट के विकृत हो चुकी इला जी को देखने का साहस नहीं जुटा सका था और अंतिम दिनों में उनके दर्शन न कर पाने की शर्म ने मुझे उनके घर तक न जाने दिया. पहले जब वे इस बीमारी के दूसरे प्रभावों से त्रस्त थीं तब कितने ही डॉक्टरों के यहां मैं उनके साथ गया था और बीमार बिस्तर पर पड़ी रहने पर उन्हें मुक्तिबोध से लेकर बर्तोल्त ब्रेख्त तक की कविताएं सुनाता रहा था, लेकिन वह मौत की आहट मुझे नहीं सुनाई दी थी.लोगों ने हमें लेकर किस्से भी बनाए थे, इससे वे कभी-कभार परेशान भी हो जाया करती थीं, लेकिन सीधे साफ तौर पर वह यह मुझे नहीं समझा सकती थीं.
तो बात बात शलभ जी की हो रही थी. शलभ से पहले खेप की मुलाकात में कुछ खास उल्लेखनीय नहीं था. सिवा इसके कि वे जब मसौढ़ा जा रहे थे तो हावड़ा स्टेशन तक मैं उन्हें छोड़ने गया था. उन्होंने चलते समय मेरा पर्स मांगा और उसमें पड़े चार सौ साठ रपए में से साठ रपए सहित लौटा दिया था, जिससे कि मुझे घर लौटने में असुविधा या फिर जेब खाली किए जाने का अधिक अफसोस न हो. उन्होंने बगैर कहे जो कहा वह मैंने सुना. मसौढ़ा से उनके दो एक पत्र आए. फिर वह सिलसिला खत्म हो गया. कई महीनों बाद लौटे. मैं मिला तो उन्होंने तपाक से मेरी पहली किताब प्रकाशित होनेकी बधाई दी और पूछा था कि उनका दूरदर्शन पर दिया गया इंटरव्यू मैंने देखा कि नहीं, जिसमें उन्होंने मेरी कविताओं का भी जिक्र किया था. उनका कहना था कि उन्होंने मेरी किताब नामवर जी के यहां दिल्ली में देखी थी, जिसके दूसरे दिन उनका इंटरव्यू था. मैंने उनकी बात पर उन दिनों इसलिए भी यकीन इसलिए भी कर लिया क्योंकि वे मेरी पुस्तक के प्रति सचमुच संजीदा दिखे. मुझसे न सिर्फ किताब ली, बल्कि एक सप्ताह बाद महीन खूबसूरत हस्ताक्षर में बांड पेपर पर चाइनीज पेन से लिखा 32 सफों का एक लेख भी पढ़ाया जो मेरी, एकांत श्रीवास्तव तथा कालिका प्रसाद सिंह की कविताओं पर लिखा गया था. इसमें तीनों को कविता की नई पौध का प्रतिनिधि करार दिया गया था तथा काव्य जगत की ांभावनाओं की दिशा तय की गई थी.
उन्हीं दिनों उन्होंने कल्याणी सिंह, प्रभा खेतान की कविता पुस्तक हुस्नाबानों व अन्य कविताएं' तथा अर्चना वर्मा की कविताओं पर भी 28 पेज लेख तथा सकलदीप सिंह के प्रतिशब्द पर 16 सफे का लेख लिखा था. बेशक इन सब में कवियों के बहाने समकालीन कविता, उसके गतिरोध, उसकी नई प्रवृत्तियों और उसके स्वभाव पर लम्बी जिरह थी. महिला और पुरष के काव्य विषय और बोध पर भी कुछ अहम टिप्पणियां थीं. जिन्हें उन्होंने मुझे और सकलदीप जी को पढ़कर सुनाया था. सकलदीप जी अपनी कविता पर शलभ जी की टिप्पणियों से भावुक हो उठे थे और उन्हें सहसा लगा था कि उनका लिखा सार्थक रहा है. शलभ जी के बारे में उनकी पहले की अपेक्षा सकारात्मक हो उठी थी.
शलभ जी हालांकि कल्याणी जी पर अपनी टिप्पणी से आश्वस्त नहीं हो पा रहे थे. शायद अपने को समझाने के लिए हमसे कहते थे कि कल्याणी इतना तो डिजर्व करती ही हैं. आखिर हंसराज रहबर जैसों ने उनकी खुलकर तारीफ की है. अपने और कल्याणी जी के रिश्ते की अड़चन पर वे कहते कि कल्याणी जी का स्वतंत्र व्यक्तित्व है अपने अगर तारीफ के काबिल हैं तो उनकी भी चर्चा क्यों न हो.
इन लेखों के बारे में विदिशा से अपने भेजे पत्र में उन्होंने लिखा था कि क्यों इन तीनों लेखों को एक पुस्तक की शक्ल में प्रकाशित कर दिया जाए तथा उसका नाम रखा जाए प्रति कविता की पृष्ठभूमि'. अलबत्ता बात आई गई हो गई कभी वह पुस्तक देखने को नहीं मिली. एक बार सकलदीप जी ने जोर लगाया तो हम कल्याणी जी के यहां हो आए पता यही चला कि उसकी पाण्डुलिपि कल्याणी जी के यहां ही है, उन्होंने हमें यह आश्वासन देकर लौटा दिया कि वे उसकी फोटो कॉपी करवा कर हमें देंगी हम फिर कभी आएं. फिर वह बात वहीं दफन हो गई, लेकिन इस संदर्भ में कुछ लोगों के मुंह से यह अवश्य सुना कि शलभ जी ऐसी सनकों के लिए कुख्यात रहे हैं. वे अपनी कलम से किसी ऐरे गैरे को महान साबित कर सकते हैं और फिर अपने लिखे को आराम से फाड़कर फेंक सकते हैं. वे कलाकार हुनरबाज हैं. और वे अपना हुनर इस तरह भी मांजते हैं. फिर दोस्तों से एक दिन सुना कि शलभ जी को दिल का दूसरा दौरा पड़ा है. वे बीमार हालत में बेलूड़ हाजिर हैं. मैं मिल आया. वे अस्वस्थ से ही लगेपर स्वस्थ कब लगे थे? वही दुबला इकहरा बदन. जिस पर घर में होने पर व/ कम ही होते थे इसलिए पसलियां गिनी जा सकती थीं. श्याम वर्ण. खिचड़ी होती सी दाढ़ी.
अगले सप्ताह इला जी ने बताया कि विजय जी कोलकाता आए हैं. (विजय जी के सुपुत्र गिरीश पार्क के पास पुस्तक की दुकान चलाते हैं, इसलिए उनका आगमन पारिवारिक वजहों से ही था) सो एक कवि गोष्ठी हनुमान मंदिर ट्रस्ट की ओर से होनी है. जिसकी वे संयोजिका थीं. इसके लिए शलभ जी को लाने की जिम्मेदारी मेरी होगी. मैं शलभ जी को लाने पहुंचा तो इसके लिए कल्याणी जी से इजाजत लेनी पड़ी, क्योंकि शलभ जी के स्वास्थ्य को लेकर वे उन दिनों बेहद चिंतित थीं. शलभ जी ने बताया था कि कहीं आने-जाने का मामला अब कल्याणी जी की इजाजत पर निर्भर है. कल्याणी जी ने इस शर्त पर शलभ जी को मेरे साथ जाने दिया कि उन्हें वापस पहुंचाने के लिए मुझे स्वयं आना होगा.
शलभ जी को मैं ले तो गया पर क्या मुझ जैसा व्यक्ति शलभ जी का गंतव्य तय कर सकता था? कवि गोष्ठी बड़ा बाजार स्थित हनुमान मंदिर में हुई. वहां पहले से विजय जी पहुंच चुके थे. और तो और वहां कालिका प्रसाद सिंह भी हाजिर थे, जो सिलिगुड़ी से पहुंचे थे. काव्य पाठ महत्वपूर्ण रहा. विजय जी, शलभ जी, सकलदीप जी, कालिका, इला जी, कोलकाता के ही ग़ज़ल गो मुरारीलाल शर्मा प्रशांत' और मैंने काव्य पाठ किया था.
कार्यक्रम खत्म होने के बाद सबने मुझे प्रेरित किया कि परंपरा का पूरा निर्वहन होना चाहिए. सो मैंने सभी की ओर से कार्यक्रम की संयोजिका और अपनी गुर से कविजनों की जाम टकराने की योजना का खुलासा किया. वे पहले तो झेंप-सी गईं पर फिर अपने शामिल न हो पाने की क्षमा याचना करते हुए मुझे पांच सौ रपए पकड़ा दिए और मेजबानी का दायित्व मुझे सौंप दिया. अब हमारे सामने जगह की समस्या विकट थी. इतनी-सी रकम में कोई किसी बार में घुसने का साहस नहीं जुटा पा रहा था. लेकिन प्रशांत ने हमारी समस्या का निदान कर दिया और मुसीबत मोल ले ली. प्रशांत ने जो थोड़ी-सी समस्या व्यक्त की थी उस पर किसी को ऐतराज न था. वह यह कि आर्थिक तंगी की वजह से वह बिजली के बिल का भुगतान नहीं कर पाता है इसलिए उसके घर की बिजली काट दी गई है. सो हमें अंधेरे का मुकाबला दिए से ही करना होगा. दूसरे यह कि वह पांचवीं मंजिल पर रहता है और लिफ्ट नहीं है. मैंने शलभ जी से अनुरोध किया कि हमें इस दावत में शरीक नहीं होना है.
मेजबानी प्रशांत कर लेंगे. एक तो इतनी सीढ़ियां उन्हें तय नहीं करनी चाहिए, दूसरे शराब नहीं पीनी होगी. लेकिन वे नहीं माने. किसी तरह सहारा देकर मैं उन अंधेरी संकरी सीढ़ियों से पांचवीं मंजिल पर प्रशांत के आवास तक ले गया. जहां वे अपनी मां, सांस्कृतिक मामलों से दूर गृहिणी पत्नी और पांच बधाों वाले परिवार में रहते थे. एक हॉलनुमा कमरे के अलावा एक और कमरा था. उस छोटे वाले कमरे में विजय जी, कालिका, शलभ जी, प्रशांत और मैं जम गए. सकलदीप जी ने हमसे यह कह कर पहले ही किनारा कर लिया था कि अब 70वें में नहीं पचती. सामान प्रशांत ने राह में ही खरीद लिया था. नमकीन भी. उसे पता था घर में पानी के अलावा और कुछ हासिल होने में दिक्कतें हैं. खुद उसकी रोटी बमुश्किल जुटती रही है. पर अपने घर ले जाकर वह अपने को धन्य महसूस कर रहा था. वह शलभ जी की बड़ी कद्र करता था और विजय जी के बेटे से उसके संपर्क दोस्ताना थे सो विजय जी के प्रति भी सहज अनुराग था. दरअसल, वह शलभ जी को अपनी गजलें दिखाना चाहता जिसका अनायास अवसर उसे मिला था.
शलभ जी को मैं इस शर्त पर ऊपर ले गया था कि वे केवल हमारे साथ बैठेंगे लेंगे नहीं, पर वे इसे भूल गए. वे तुच्छ लगती बातों के बदले बड़ी बातें करने के मूड में थे. विजय जी मेरी कविताएं सुनना चाहते थे. गांगी का हाल' कविता पर उन्होेंने मुझे लताड़ा था और मुझ पर कवि केदारनाथ सिंह की कविता के प्रभाव से बचे रहने की हिदायत दी थी, हालांकि शलभ जी उनसे सहमत नहीं थे. वे मानते थे कि केदार जी ने अपनी कविता जहां खत्म की है मैं वहां से शुरू कर रहा हूं. इसलिए वह कविता और उसकी परंपरा का क्रमिक विकास माना जाना चाहिए.
इस बीच जो कुछ पांच सौ में प्रशांत ले आए थे वह खत्म हो चुका था. शलभ जी ने पुराने तरीके से मेरा पर्स हथिया लिया था. जो कुछ थोड़ा बहुत निकला. उससे दूसरा दौर भी चला. शलभ जी ने बहुत तो नहीं ली थी, पर जबान लड़खड़ाने लगी थी. इधर प्रशांत बेचैन थे शलभ जी को अपनी ग़ज़लें सुनाने के लिए. और यह क़यामत की घड़ी थी. प्रशांत ने अपनी एक ग़ज़ल पूरी नहीं की थी और शलभ जी उखड़ चुके थे. वे न सिर्फ ग़ज़ल की परंपरा पर भाषण देने लगे थे, बल्कि ग़ज़ल के वज़न और बहर पर भी भिड़ गए. उनकी आवाज़ न सिर्फ़ तेज़तर होती गई थी, बल्कि वे लगभग चीखने लगे थे. और उनके मुंह से मां बहन की गालियां निकल रही थीं. उन्हें प्रशांत तथा हमारी समझाने की कोशिश बेकार साबित हो रही थी कि घर में बुजुर्ग मां भी है और पत्नी भी जिन्हें अब तक यह भी पता नहीं था कि उनके घर में मैकशी चल रही है. उन्हें लगा था सभ्य लोग बैठे हैं और पढ़ने लिखने की बात चल रही है. प्रशांत की मां कमरे में झांकने लगी थी कि आखिर उनके बेटे ने मेहमानों से क्या कह दिया कि वे उसी पर इतना बिफरे हुए हैं. प्रशांत उन्हें समझा पाने में विफल रहा था कि उसकी खता यह थी कि उसने एक महान शायर के सामने परंपराच्युत और वजन तथा बहर से खारिज ग़ज़ल पढ़ने की गुस्ताखी की है.
स्थिति जब काबू से बाहर हो गई तो विजय जी उठकर चलते बने. कालिका प्रसाद भी उठकर जाने लगे तो मैंने उनसे गुजारिश की कि शलभ जी को नीचे ले जाने में मेरी मदद करें, क्योंकि शलभ जी की हालत नशे तथा बीमारी की कमजोरी से ऐसी हो चली थी कि वे अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पा रहे थे. मैंने कालिका को यह भी याद दिलाने की कोशिश की कि इस बैठक के पहले उसने वादा किया था कि शलभ जी को लेकर वह बेलूड़ चला जाएगा. वहीं शलभ जी के साथ दो एक दिन वह गुजारना चाहता था. इस तरह मुझे बेलूड़ जाने से मुक्ति मिल जाएगी. मैं देर रात को बेलूड़ जाने से इसलिए बचना चाहता था, क्योंकि मेरा घर जल्द पहुंचना आवश्यक था. मैं टीटागढ़ में अपने नाना जी के साथ रहता था. वे मंदिर में रहते थे और मैंने किराए पर एक कमरा ले रखा था. हालांकि मंदिर में मैं उनके साथ दो साल तक रहा था, लेकिन वहां बिजली न होने की वजह से पढ़ने-लिखने में दिक्कत पेश आती थी. मुश्किल यह थी कि उन दिनों मैंने उनके मोतियाबिंद का ऑपरेशन करवाया था, जिसके कारण वे मेरे कमरे में रह रहे थे. उनकी देखभाल आवश्यक थी. हालांकि मैंने इस बैठक से पहले बैरकपुर में अपनी एक कवयित्री मित्र पार्वती स्वर्णकार को फोन कर दिया थाकि वे मेरे नाना जी को खाना खिला दें और बता दें कि मेरे आने में कुछ विलंब हो सकता है.
खैर जैसे तैसे मैं उस पांच मंजिला मकान की संकरी और अंधेरी तथा खड़ी सीढ़ियों से नीचे ले आया. प्रशांत ने मदद की कोशिश की थी, मगर सीढ़ियों की जगह इतनी संकरी थी कि दो व्यक्ति ही एक साथ गुजर सकते थे. मेरी मुश्किल यह थी कि मैं खुद पूरी तरह से ठीक न था. नशे का असर किसी हद तक मुझ पर भी तारी था. तब तक पीने का अंदाज नहीं मिला था कि कितनी लेने पर मैं ठीक-ठाक रह सकता हूं. फिर उस दिए की रोशनी में कितना स्टील के गिलास में ढाला गया है अनुमान लगाना भी मुश्किल था. सो सीढ़ी से उस हालत में उस तरह उतरना मौत से खेलने की तरह था. यदि शलभ, प्रशांत पर इस तरह न उखड़े होते तो यह गुंजाइश थी कि शलभ जी को उस हालत में वहीं छोड़ दिया जाता और वे सुबह वहां से जाते.
नीचे उतरने पर मैंने एक टैक्सी की और उसमें शलभ जी को साथ बैठाते हुए हावड़ा चलने को कहा तो शलभ जी अड़ गए. वे बोले मुझे हावड़ा या बेलूड़ नहीं जाना है मुझे सोनागाछी ले चलो. शलभ जी ने बताया कि वहां उनकी कई परिचित हैं, जो उनकी ग़ज़लों को भी पसंद करती हैं. मैं भी रात में उनके साथ ऐश करूं. मेरे लिए अपने गुस्से पर काबू पाना मुश्किल हो रहा था. मेरे आगे एक तरह कल्याणी जी से किया गया वादा था कि मैं उन्हें घर पहुंचा जाऊं. दूसरी तरफ मेरे चौरासी साल के नाना जी थे जो मेरे आने का इंतजार कर रहे होंगे, क्योंकि उन्हें नींद दो बजे से पहले नहीं आती. तीसरी तरफ ये शलभ जी थे और उनकी ख्वाहिशें थीं.
मैंने कहा -अपनी तबीयत पर गौर करें. और घर लौट जाएं.' पर वे कह रहे थे -मैं राजकमल चौधरी सा जीना चाहता हूं.' -तो राजकमल सा मरना भी सीखिए.' मैंने झल्ला कर कहा था और पर्स में इसी शलभ जी द्वारा खंगाले जाने के बाद छोड़े गए पचास रपए टैक्सी वाले को देकर कहा था -ये जहां जाना चाहें छोड़ दो. और मैं टैक्सी से उतर गया था.'
मैं उस रात गिरीश पार्क के पास प्रशांत के मकान के पास से पैदल सियालदह आया था. बस के पैसे भी जेब में नहीं थे. गनीमत तो यह थी कि ग्यारह चालीस की आखिरी लोकल छूटते-छूटते पकड़ में आ गई थी. ट्रेन देखते ही टिकट का भी खयाल जेहन से उतर गया था और याद भी आता तो कौन
खरीदने की हालत में था. पर हां, बगैर टिकट के यात्रा का अभ्यास न होने से जो अस्वाभाविकता आ सकती थी, उससे मैं बचा रहा, लेकिन हां इस रात जिक्र फिर कभी हमारे बीच नहीं हुआ. और न ही उसका कोई असर ही हमारी बातचीत या संबंधों पर पड़ा. मुझे नहीं पता वे उसके बाद कहां गए और कब घर पहुंचे. अगली मुलाकात शायद दस दिन बाद गीतेश शर्मा के कार्यालय में हुई, राजीव सक्सेना कोलकाता आए हुए थे और वहां एक काव्य-पाठ का आयोजन प्रगतिशील लेखक संघ की ओर से अलखनारायण व उनके भाई कपिल आर्य ने किया था. मैं बस अंतिम खेप का जिक्र करना चाहुंगा जिसके बाद उनसे मुलाकात की कोई गुंजाइश नहीं बची थी. इस बीच यह उल्लेख जरूर करना चाहूंगा कि वे कवि कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह के प्रति अगाध प्रेम भाव रखते थे. हिन्दी संडे मेल में कुमारेंद्र जी की पुस्तक बबुरीबन पर समीक्षा प्रकाशित हुई थी जिससे वे संतुष्ट नहीं थे. उनकी नजर में वे मेरी समझ की तुलना में बड़े कवि थे. और मुझे उनके काव्य मर्म से परिचित कराने और अपनी राय से सहमत कराने का भरपूर प्रयास किया था. दूसरे नवल जी कोलकाता में जो पुस्तक प्रकाशन का महत्वपूर्ण कार्य कर रहे थे वे इसके प्रशंसक थे और मानते थे कि नवल जी में सुरचि है. तीसरे यह कि वे मेरी नई कविताओं से कुछ शब्दों और बिम्बों को हटावाना चाहते थे जिसके लिए मैं राजी न था.
कल्याणी जी ने हमारी लम्बी बहसें सुनी थी. और बाद में धीरे से कहा था अभिज्ञात जी नागार्जुन और शलभ जी के सामने अपनी अप्रकाशित कविताएं न पढ़ें और न उनके कहने पर बदलें. ये नए कवियों की खूबियां चुरा लेते हैं और उनके छपने से पहले ही अपनी कविता में उसका इस्तेमाल कर उसेप्रकाशित करवा देते हैं. मैं नहीं जानता कि कल्याणी जी का इस मामले में क्या अनुभव रहा है, पर उनकी यह बात अजीब सी लगी थी.
तो बात शलभ जी से अंतिम खेप की मुलाकात की चल रही थी. इस मुलाकात से काफी पहले शलभ जी का पत्र आया था कि विदिशा में रामकृष्ण प्रकाशन से वे जुड़ गए हैं. इसलिए अब किताबें प्रकाशित कराने का संकट नहीं रह गया है. एक पत्रिका उत्तरशती भी निकल रही है. उसके लिए मैं इधर के बांग्ला साहित्य और हिन्दी साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन पर 18-20 सफे का लेख उन्हें भेजूं. अपनी पुस्तकों की पाण्डुलिपियां भी तैयार करूं. मुझसे उनके मांगे गए विषय पर लेख लिखना न हो सका. और न ही पाण्डुलिपि तैयार हो सकी. मेरे पास लिखने को भले वक्त किसी प्रकार निकल आए कहीं भेजने की जहमत नहीं उठाते बनती है. लिखने भर से लगता है कि अपना काम पूरा हुआ. ऐसा अब भी है.
मैं पत्रकारिता में आ चुका था. नाना जी गुजर चुके थे. उनकी विरासत में मिली एनजेएमसी की मिलों की ठेकेदारी और ट्रांसपोर्टेशन का काम जी के जंजाल सा लगने लगा था. और मैं धीरे-धीरे साठ साल में तैयार की व्यावसायिक विरासत डूबाने में तल्लीन था. और लगभग डूबने की स्थिति में आ चुका था. कर्ज बढ़ने लगा था और तगादे में कमी की वजह से वसूली नहीं हो पा रही थी. जनसत्ता' में पलाश विश्वास का कहना था अक्सर शलभ जी से उनकी खतो किताबत होती रहती है और वे बार- बार अपने खतों में मुझे याद करते हैं. पलाश जी उनसे अपनी किताबें प्रकाशित करवाने की फिराकमें थे. और ईश्वर की गलती नाम से पलाश विश्वास का कहानी संग्रह रामकृष्ण प्रकाशन ने संभवतः प्रकाशित भी किया.
इधर जनसत्ता के ही अरविंद चतुर्वेद ने एक दिन बताया कि मेरे बारे में शलभ जी ने उनके खत में लिखा है कि अभिज्ञात जी तुम्हारे यहां है. और मेरे बारे में अरविंद जी को उन्होंने हैंडल विथ केयर' की हिदायत दी थी, जिसका वे मतलब नहीं समझ पाए.
फिर जनसत्ता में ही शलभ जी का फोन आया कि वे बेलूड़ पहूंचे हुए हैं. अरविंद जी ने ही मुझे इसकी जानकारी दी. अरविंद जी ने यह भी बताया कि उनके लेकटाउन आवास पर एक छोटी-सी बैठक तय है जिसमें पलाश जी होंगे और मुझे भी पहुंचना है, पर मैं पहुंच नहीं सका. मेरी अनुपस्थिति से शलभ जी खफा थे. सो मैं एक शाम अकेले ही बेलूड़ पहुंच गया. घर से थोड़ा पहले ही एक दुकान पर वे दिख गए साथ ही उनकी छोटी बेटी भी थी जो किसी अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने लगी थी. उसके लिए वे कुछ सामान खरीद रहे थे. दाढ़ी और बाल पूरी तरह सफेद हो चले थे और सफेद लम्बे कुर्ते पायजामे में फब भी रहे थे. मुझसे कहा-घर चलो मैं पहुंच रहा हूं.' मैं घर पहुंचा तो मैंने पाया कि कल्याणी जी के घर में समृध्दि झांक रही थी. अनुमान तो यही लगा कि यह शलभ जी के अंदर आए किसी परिवर्तन की वजह से भी हो सकता है. थोड़ी देर में शलभ जी लौटे तो दोसे भी लाए थे. घर में पहले से मौजूद एक युवती से उन्होेंने परिचय कराया- मेरी भतीजी प्रज्ञा सिंह. यह कविताएं भी लिखती है. और मेरे साथ विदिशा में रहकर पढ़ रही है. मुझे अच्छा लगा शलभ भी पारिवारिक हुए.
शलभ जी ने उसे बताया इसी अभिज्ञात ने अपनी किताब सरापता हूं' मुझे समर्पित की है. मुझे लगा शलभ जी का गणितीय पक्ष वैसा ही है. मुझे खुद याद नहीं कि मैंने शलभ जी को किताब समर्पित की है या नहीं. वह तो पुस्तक प्रकाशित होते वक्त जो मनोवेग होता है, जो मन चाहता है लिखवा लेता है. पर उस क्षण के साथ व्यक्ति कितनी देर टिकता है. याद आया कि अपने को समर्पित पुस्तक पर अपनी प्रतिक्रिया में उन्होेंने लिखा था कि मुझ नराधम को आपने पुस्तक समर्पित करने योग्य समझा इसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूं.' इस बीच यह बात भी हो गई कि उनका एक पत्र मुझे प्राप्त हुआ था कि पुरष पत्रिका शलभ विशेषांक निकाल रही है. मैं उन पर कोई लेख पत्रिका को भेज दूं. वह भी मुझसे नहीं हो पाया था. बाद में पलाश जी ने बताया कि यह विशेषांक किसी और पत्रिका ने निकाला है. मैं वह देख नहीं सका.
डिफॉल्टशलभ जी ने उस दिन रामकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित अपनी कई पुस्तकें मुझे दिखाई. मुझे सुखद लगा कि हिन्दी कवि की पुस्तकें इतने सुंदर ढंग से प्रकाशित हुई थीं. और शलभ जी का लिखा प्रकाशित होने पर यह भी संतोष हुआ कि उनका मूल्यांकन अब हो सकेगा. उन्होंने यह भी आश्वस्त किया कि अब तुम्हारी भी कई किताबें आएंगी. तुम्हें मैंने अपनी सभी पुस्तकों की पाण्डुलिपि तैयार करने को कहा था वह कहां है. तैयार नहीं है सुन कर झल्लाए भी. और एक सप्ताह का समय दिया. बाद में पाण्डुलिपि के लिए उनके तगादे आते रहे मैं नहीं दे सका. और एक दिन सुना कि वे बेलूड़ से निकल चुके हैं. मुझे नहीं पता था कि यह मेरी उनसे आखिरी मुलाकात थी. पर कोई खत भी फिर नहीं मिला. यह जरूर बीच में सुना था कि रामकृष्ण प्रकाशन से भी उनकी अनबन हो गई है और वे विदिशा छोड़ चुके हैं. इसके पहले विजय जी से भी उनकी अनबन का समाचार विजय जी के पत्र से ही मिला था. मैं इस बीच जालंधर चला आया था. अमर उजाला' में ही मेरे सहकर्मी और रूमपार्टनर तथा कथाकार हरिहर रघुवंशी ने दिल्ली से लौटकर बताया कि शलभ श्रीराम सिंह पर शोकसभा थी, तो मैं सकते में रह गया. जैसे मेरे भीतर कुछ एकाएक टूट गया. मुझे लगा मेरे बारे में जो वे कहते थे हैंडल विथ केयर' वह उनके बारे में ही था या फिर हम एक ही बिरादरी के हैं. जागरण के एक पत्रकार मित्र ने एक दिन बताया कि शलभ जी उनके गांव के पास के थे. उनकी मौत गांव में हुई. उनकी मौत मेरे लिए एक तरह के आदमी की मौत है. मेरे अंदर कुछ मरने की भी आशंका मुझे लगती है. मैं उनके बारे में सोचना बंद नहीं कर पाता.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें