11/25/2011

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कहानी
साभारःकथादेश, नवम्बर 2011

दुनिया भर में दिमागी तनाव से मरने वालों की संख्या में लगातार इज़ाफा हो रहा था। युवाओं और छात्रों में दिमागी तनाव के बढ़ने से पूरी दुनिया चिन्तित हो उठी थी। कुछ वैज्ञानिकों का कहना था कि यह ग्लोबल वार्मिंग के घातक नतीज़ो में से एक है तो कुछ ने आधुनिक जीवन शैली को इसका कारण बताया। कुछ लोगों का मानना था कि बच्चों पर अध्ययन का अत्यधिक बोझ इसका कारण है। कुछ वैज्ञानिक फास्ट फूड
, कोल्डडिं्रक्स के सेवन को इसका कारण मान रहे थे। सामाजिक अध्ययन से जुड़े विद्वानों का कहना था कि सामाजिक मूल्यों में विघटन और असुरक्षा की बढ़ती प्रवृत्ति इसका कारण है तो कुछ ने माता-पिता के बीच तलाक को इसका कारण गिनाया था। लेकिन किसी एक निष्कर्ष तक पहुंचना कठिन था। ये घटनाएं उन समाजों में भी घट रही थीं जहां आधुनिक जीवन-शैली का बहुत प्रभाव नहीं था फास्ट फूड का प्रचलन कम था या तलाक की घटनाएं विरल थीं।

लेकिन वस्तु-स्थिति यही थी कि किशोरों-युवाओं में ब्रोन हेमरेज से होने वाली मौतों में लगातार इज़ाफा हो रहा था। इन मौतों की जांच के लिए संयुक्त राष्ट्र ने एक विशेष अंतर्राष्ट्रीय प्रकोष्ठ का गठन किया। जिसमें भारतीय दल का नेतृत्व अप्रतिम सिंह को सौंपा गया था। तेरह वर्षीय इकलौती बेटी श्रेया और शास्त्रीय संगीत की गायिका पत्नी शोभा उनके साथ रहती थी। माता-पिता उत्तर प्रदेश के जौनपुर के एक गांव में थे। छत्तीस वर्षीय अप्रतिम एक मनोवैज्ञानिक थे और उन्होंने साइको सिमेटिक इफेक्ट पर कैम्ब्रिाज में शोध किया था। हालांकि गणित उनकी व्यक्तिगत रुचि का विषय था, लेकिन पढ़ायी के दिनों में एक मित्र के साथ उन्होंने मनोविज्ञान की क्लास की थी और मनोविज्ञान उन्हें इतना भाया कि गणित से एमएससी के बाद मनोविज्ञान की विधिवत पढ़ायी की और उसे ही पेशा भी बनाया। वे कोलकाता में एक केन्द्रीय संस्थान में कार्यरत थे। प्रकोष्ठ के गठन के बाद उन्हें एक विशेष दर्जा दिया गया था और उन्हें जो टास्क दिया गया था केवल उसी पर अपना ध्यान केन्द्रित करना था। उन्हें दस लोगों की एक टीम दी गयी थी जिसका चयन उन्होंने विभिन्न सरकारी कार्यालयों में कार्यरत लोगों में से किया था, जो विभिन्न सेवाओं में थे। उन्होंने डॉक्टरों, शिक्षाविदों से लेकर खुफिया विभाग तक के लोगों को अपनी टीम में लिया था।

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अप्रतिम की बेटी ने पिता की ही रुचियां पायी थी। गणित से उसे भी दीवानगी की हद तक लगाव था और पिता से ज़िद कर वह गणित का विशेष पैकेज विश्वास थियरम आफ आईक्यू लाने की ज़िद कर रही थी जिससे आईक्यू विकसित होता है। अप्रतिम इसके घोर विरोधी थे। उनका मानना था कि किसी भी चीज़ का स्वाभाविक विकास ही होना चाहिए। बच्चों का कद बढ़ाने, उनके स्वास्थ्य में ताबड़तोड़ सुधार करने की दवाओं उपकरणों के इस्तेमाल के साथ- साथ मानसिक क्रिया कलापों में वृद्धि करने वाले तौर-तरीकों के भी विरोधी थे, जिनमें विश्वास थियरम आफ आईक्यू भी था।

उनकी बेटी के गणित के प्रति लगाव की चर्चा उनके सहकर्मियो में भी थी और एक दिन एक अधिकारी ने उनकी बेटी के जन्म दिन पर तोहफ़े के तौर पर आईक्यू थियरम दिया तो उसे उन्होंने उसे खोलकर उत्सुकता से देखा फिर अपनी आलमारी में लाक कर दिया।

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आतंकियों का एक दल पकड़ा गया था और उनके पास से जो चीज़ें पायी गयी थीं उनमें आईक्यू थियरम भी था। खुफिया विभाग से जुड़े उनकी टीम के अधिकारी ने जब उन्हें बात-बात में यूं ही बताया तो वे एकाएक चौकन्ने हो गये। इस बात की चर्चा खुफिया अधिकारी ने उनमें इसलिए भी की थी क्योंकि उसी ने यह थियमर खरीदकर अप्रतिम की बेटी को जन्मदिन का उपहार दिया था।

अप्रतिम के लिए यह सूचना चौंकाने वाली थी। उन्होंने अपने घर की आलमारी में पड़े थियरम को निकालकर कार्यालय ले गये और उसे गौर से देखा। फिर आतंकियों के पास से बरामद थियरम की कापी प्राप्त की। दोनों का मिलान करने पर उन्हें एक नयी बात पता चली वह यह कि दोनों ही सवाल शुरू तो एक तरह से होतें हैं कि आतंकियों के पास से बरामद सवाल छोटा है वह आगे बहुत विस्तृत नहीं है।

अप्रतिम दोनों की देर तक तुलना करते रहे किन्तु आतंकियों के पास से आईक्यू थियरम के बरामद होने, उसके बाजार में उपलब्ध थियरम से संक्षिप्त होने के सम्बंध की पड़ताल में जुट गये।

वे गणित का छात्र होने के कारण वे थियरम की उत्पत्ति व उसके वैज्ञानिक के सम्बंध मे पढ़ चुके थे किन्तु उन्होंने डॉ.विश्वास की मौत की फाइलें खुलवायीं जो उनकी मौत को स्वाभाविक मौत का मामला मानकर दो साल पहले ही बंद कर दी गयी थीं।

उन्होंने खुफिया शाखा से मदद दी और कई चौंकाने वाली जानकारियां उनके हाथ आयीं। उसका ब्यौरा इस प्रकार थाः

गणित में डॉ.मिहिर विश्वास को गहरी दिलचस्पी विषय थी। और बाकी विषयों में वे अक्सर वह फेल होते रहते थे। उन्हें मौज़ूदा शिक्षा पद्धति से इसलिए बहुत सारी शिकायतें भी थीं। उनका मानना था कि हर व्यक्ति हर कार्य कर ही नहीं सकता। हर आदमी की अपनी शारीरिक और मानसिक बनावट है। उसकी बनावट कै विशिष्ट को जांचने परखने के तरीक़े शिक्षाजगत को विकसित करने चाहिए और कच्ची उम्र में ही उसका निर्धारण कर उसे उन्हीं विषयों शिक्षा का अवसर प्रदान करना चाहिए जिसमें उसकी गति हो। दूसरे यह कि सामान्य विषयों का दस वर्ष तक और उसके बाद भी विशेषीकृत विषय के अध्ययन के निर्धारण में पास साल और बरबाद करने की आवश्यकता क्या है। टेन प्लस टू, प्लस थ्री, प्लस टू तक की 17 वर्ष की शिक्षा के बाद भी शोध की मानसिक ज़मीन पूरी तरह तैयार नहीं होती क्योंकि उसमें से पंद्रह वर्ष को विद्यार्थी की दिमाग विविध विषयों की और बंटता रहता है और अपने प्रिय विषय के अतिरिक्त भी अन्य विषयों का अध्यनन न किया जाये तो आगे की शिक्षा का मार्ग अवरुद्ध हो जायेगा। वे चाहते थे कि आठवीं के बाद ही विज्ञान, कला या वाणिज्य के विषयों का बंटवारा हो जाये और दसवीं के बाद विशेषीकृत एक विषय के अध्ययन का सुयोग छात्रों को मिले जैसा मास्टर डिग्री में होता है। इससे 17 वर्ष की शिक्षा के पहले ही किसी भी विषय में छात्र स्वतंत्र लायक हो जायेगा। यहां तक कि उससे पहले भी। उनके शिक्षा सम्बंधी नज़रिये की शिक्षा जगत में खासी चर्चा थी और वे विवादास्पद माने जाते थे।

लेकिन वे शिक्षाविद नहीं कहलाना चाहते थे वे तो बस गणित की गुत्थियों को सुलझाने में लगे थे और गणित को आम लोगों के लिए उपयोगी बनने दिशा में प्रयत्नशील। वे चाहते थे कि संख्याओं का यह शुष्क लगता संसार आम आदमी के जीवन में तब्दीली लाये। उन्होंने गणित के कई सूत्र दिये थे और ऐसे सवाल रचने में लगे थे जिसको हल करने से लोगों की तर्क शक्ति विकसित हो, उनकी निर्णय क्षमता का विकास हो चाहे और वह हर वर्ग के लिए उपयोगी हो। हर क्षेत्र में कारगर। वे मानते थे कि गणित मनुष्य के विचारों को सुसंगत करने की एक विधि के विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। गणित की सामाजिक जिम्मेदारी की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है। उन्हें जो बात सालती थी वह यह कि सूत्रों को रट कर गणित हल न किया जाये। गणित को हालांकि तार्किक विषय माना जाता है। समस्या को समझने और उसके समाधान के खोजने की क्षमता का विकास ही गणित का मकसद होता है किन्तु फिलहाल यह फार्मूलों पर आधारित है। यह फार्मूले रटे जाते हैं और कुछ दिन के अन्तर में उन्हें याद न किया जाये तो वे दिमाग से निकल जाते हैं और वे याद न रहें तो समस्या को सुलझाना मुश्किल हो जाता है, भले पूरी मैकेनिदज्म का जानकारी हो। वे कुछ ऐसे सवाल बनाना चाहते थे जो बिना सूत्र के हल हो अपनी तार्किक शक्ति के बूते और उसको जैसे जैसे आगे हल किया जाये वैसे वैसे उसकी निर्णय क्षमता का विकास हो।

उन्होंने बरसों गुज़ार दिये जनोपयोगी गणित का एक सवाल बनाने में और उन्होंने पैंसालीस साल में एक सवाल बना लिया। यह एक ऐसा सवाल था जिसमें कई चरण थे और हर चरण पर हां और ना की गुत्थियां थी और एकदम विपरीत जाने वाली संभावित दिशाएं।

इस गणित के इस सवाल से वे खासे परेशान भी होने लगे थे। यह सवाल कई चरणों बाद अत्यधिक जटिल होने लगा था और और उसे हल करने में वे अस्वस्थता महसूस करने लगते थे। दिमागी तनाव बढ़ जाता था। उन्हें लगा कि कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ है। उन्होंने एक स्नायुविज्ञानी मित्र डॉ.एमएस माधवन से इसकी चर्चा की। तनाव अध्ययन में मदद मांगी। डॉ.माधवन बरसों तक अमेरिका के एक प्रतिष्ठित संस्थान में निदेशक रह चुके थे। फिलहाल वे भारत में एक विदेशी हास्पिटल के मेंटर थे। वे बारहवीं कक्षा में साथ पढ़े थे। उसके बाद डॉ.विश्वास ने मैथ ले लिया और डॉ.माधवन ने बायलोजी, और दोनों की दिशाएं बदल गयीं। फिर भी दोनों के बीच सम्पर्क बना रहा था।

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दोनों पुराने मित्रों ने मिलकर विज्ञान का एक ऐसा प्रयोग शुरु किया था जहां गणित और स्नायविक अध्ययन की साझेदारी थी। विश्वास के गणित को हल करने से पैदा होने वाले मानिसक तनाव का अध्ययन माधवन कर रहे थे। मानसिक संवेगों के उतार-चढ़ाव के अध्ययन के लिए उपकरण लगाये गये। और विश्वास ने गणित का सवाल हल करना शुरू किया।

और पाया गया कि जैसै-जैसे चरण आगे बढ़ता था मानसिक तनाव क्रमशः बढ़ रहा है। और मार्के की बात यह थी कि यह

क्रमिक था। उसका कारण दोनों को यह समझ में आया प्रत्येक चरण में एक साथ ही हां और ना का लगभग एकसाथ आया खयाल ही उसका कारण है जिसमें से हल करने वाले को हां या ना में से एक को चुनना होता था और अगले चरण में आगे बढ़ जाना था। इस सवाल की अद्भुत विशेषता यह थी कि वास्तव में हां में आगे बढ़े तो भी अगली राहें खुलती थी और ना में भी उसी प्रकार। और यही क्रम आगे बढ़ता था। दरअसल इस गणित का कोई सही हल नहीं था बल्कि यह उलझनों का

एक सिलसिला था जिसको सुलझाने के बाद दूसरी एक और उलझन सामने होती थी।

अब दोनों के सामने प्रश्न यह था कि इस सवाल को आगे कितना बढ़ने दिया जाये कि वह खतरनाक न हो। किस हद तक आदमी का दिमाग मानसिक संवेगों का तनाव बर्दास्त कर सकता है। विश्वास चाहते थे कि मनुष्य की तनाव बर्दास्त करने की क्षमता तक ही इस सवाल को सीमित रखा जाये। आगे का सवाल काट दिया जाये, वरना वह आदमी की जान के लिए घातक हो सकता था।

पते की बात यह है कि उन्होंने इस सवाल का कुछ छात्रों पर आंशिक तौर पर प्रयोग भी किया था और पाया था कि इस गणित को हल करने से उनके आईक्यू का विकास हो रहा है। इस एक गणित को जितनी बार भी हल करने की शुरूआत की जाये हर बार नया ही लगता है क्योंकि उसके सवाल याद नहीं होते यह गणित की रंटत सूत्रबद्धता के विपरीत था। इसलिए यह सवाल विश्वास के पूरे जीवन की कुल उपलब्धि हो सकता था किन्तु वे हर तरह के प्रयोग के बाद ही इस सवाल को गणित की दुनिया में सामने लाना चाहते थे।

उन्होंने डॉ.माधवन से कहा कि वे अब और जोखिमपूर्ण स्थिति की ओर बढ़ना चाहेंगे। डॉ.माधवन उपकरणों पर चौकसी से निगाह रखें और जितना तनाव एक आदमी झेल सकता है उसकी सीमा पार होने से पहले ही उन्हें सिगनल दें ताकि वे आगे का सवाल हल न करें।

और दोनों ने प्रयोग शुरू किये। डॉ.विश्वास गणित हल करने लगे और उनके दिमाग अध्ययन के लिए उनके शरीर में उपकरण लगे थे। जिनका अध्ययन डॉ.माधवन उपकरणों की रीडिंग के सहारे कर रहे थे। डॉ.विश्वास हल के चरण बढ़ाते गये और इधर उपकरण उनके दिमागी तनाव की बढ़त दर्शाता गया। विश्वास तनाव बढ़ने के साथ ही असहज महसूस करने लगे किन्तु वे आगे बढ़ते रहे क्योंकि उन्हें यह नहीं पता था कि कोई मनुष्य अधिकतम कितना तनाव बर्दाश्त कर सकता है। इस पर तो माधवन नज़र रखे ही हुए हैं। उनका आगे बढ़ने से रुक जाने का सिगनल अभी तक नहीं मिला है। और यह क्या। एकाएक तनाव से मुक्ति का उन्हें एहसास हुआ। एक ऐसी राहत महसूस हुई जिसका एहसास उन्हें पहले कभी नहीं हुआ था। और फिर एहसास भी गुम हो गया।

डॉ.विश्वास के दिमाग की नसें फट गयीं थीं, जबकि डॉ.माधवन के चेहरे पर मुस्कुराहट थी।

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डॉ.विश्वास की मौत अखबारों की सुर्खियों में थी। गणित के प्रति एक समर्पित व्यक्तित्व के तौर पर उन्हें याद किया गया था। और उनके शिष्य डॉ.शशांक तिवारी ने उनकी शोक सभा के बाद एक प्रेस कांप्रेंस की थी जिसमें डॉ.विश्वास के बनाये एक गणित के सवाल का खुलासा किया गया जिसको हल करने से किसी भी व्यक्ति का आईक्यू बढ़ जाता है। यह डॉ.विश्वास का वह शोध कार्य था जिसकी चर्चा उन्होंने जीते जी नहीं की थी और यह उनकी ज़िन्दगी की कुल कमाई थी। सवाल के निष्कर्षों पर दुनिया भर में चर्चा हुई और आईक्यू बढ़ाने में उसे कामयाब पाया गया। वियेना में अंतर्राष्ट्रीय गणित सम्मेलन में इसे मान्यता दी गयी और वह सम्मेलन डॉ.विश्वास को समर्पित किया गया। इस अवसर पर डॉ.विश्वास के नाम पर विश्वास थियरम नाम दिया गया और गणित के पाठ¬क्रमों के लिए मान्य कर दिया गया। छात्रों के मानसिक विकास के संसाधनों में एक और इज़ाफा हो गया था। यह गणित का हल विविध आकर्षक सजावटों के साथ पूरी दुनिया के बाज़ार में उपलब्ध था।

बाकी दुनिया की तरह डॉ.शशांक भी अपने गुरु की मौत की वजह बस यह जानते थे कि उनकी मौत ब्रोन हेमरेज की वज़ह से हुई है। गणित के सवाल से दिमागी तनाव बढ़ने की प्रवृति के प्रयोगों के बारे में वे एकदम नहीं जानते थे और ना ही पूरी दुनिया के गणितज्ञों का ध्यान इस ओर गया।

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अप्रतिम के सामने कुछ बातें साफ़ थीं। आतंकियों को थियरम का जितना अंश हल करने को दिया गया था उससे उनका मानसिक तनाव बढ़ता था दूसरे उलझनपूर्ण परिस्थितियों में त्वरित निर्णय लेने में भी वह सहायक था। जो लोग आतंकियों का इस्तेमाल कर रहे थे उनका इतना ही मकसद था। आगे का थियरम इसलिए नहीं दिया गया था क्योंकि इसको हल करने से आतंकियों की अपनी जान का खतरा था।

अप्रतिम ने अपनी जानकारियों को वियेना में टास्क फोर्स की इमरजेंसी मिटिंग में रखा। और फिर नयी जानकारियों के आधार पर युवाओं की मौत की जांच शुरू हुई तो पाया गया कि जिनकी मौत हुई है वे किसी न किसी रूप में गणित से जुड़े थे और इस थियरम के अलग-अलग चरणों को हल करते समय अस्वस्थ होने के बाद अस्पताल जाकर या सवाल हल करते समय हुई थी। पाठ¬क्रमों से विश्वास थियरम हटा दिया गया। बाजार से आईक्यू थियरम के जो भी रूप थे वह जब्त करके नष्ट कर दिये गये। थियरम को गलत साबित करके उस पर हर रूप में प्रतिबंध लगा दिया गया। डॉ.विश्वास के गणितीय सिद्धांत को फरेब बताया गया और कहा गया कि उससे आईक्यू में विकास के सारे दावे झूठे हैं और कपोल-कल्पित हैं। अलबत्ता यह नहीं बताया गया कि उनका थियरम खतरनाक़ और जानलेवा है। इससे कानून-व्यवस्था में अराजकता फैल जाने का खतरा था और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तीव्र प्रदशर्नों की आशंका थी। उससे आसान था विश्वास का मानमर्दन। ग़लती दरअसल यह भी थी कि स्वयं डॉ.विश्वास ने इस थियरम का निर्माण तो किया था किन्तु स्वयं उन्होंने उसे न तो सार्वजनिक किया था और न ही स्वयं मान्यता दी थी। वह अभी जांच-परख के स्तर पर ही थी और उनकी मृत्यु के बाद उसे सार्वजनिक कर दिया गया था जिससे यह मुसीबत खड़ी हो गयी थी।

डॉ.विश्वास के क़ातिल डॉ.माधवन की फाइलें तैयार की जाने लगीं और उनकी गतिविधियों पर पहरे लगा दिये गये। वे इन दिनों दुबई में रह रहे थे, जहां एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर की प्रयोगशाला उन्होंने बना रखी थी जहां विज्ञान के विषयों पर कई प्रकार के काम होते थे।

डॉ.माधवन से जुड़ी सारी सूचनाओं की पल-पल की जानकारी अप्रतिम को मिलती रहती थी। अप्रतिम इस अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के वैज्ञानिक से पूछताछ करने की इजाजत इंटरपोल से मांग रहा था जिसमें दिक्कतें आ रही थीं। डॉ.माधवन ने दुबई की नागरिकता ले रखी थी।

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इधर पूरी दुनिया में मोबाइल फ़ोन, कम्प्यूटर और इंटरनेट का रुतबा लगातार बढ़ रहा था। साथ ही साथ पूरी दुनिया में आतंकी गतिविधियों में इनके उपयोग की घटनाओं की बाढ़ आ गयी थी और आतंकी मोबाइल से लेकर कम्प्यूटर बमों का इस्तेमाल करने लगे थे। दुनिया के अलग-अलग देशों में मोबाइल फोन और कम्प्यूटर बम समय-समय पर फटने लगे थे जो चिन्ता का कारण बना हुआ था। फोन और कम्प्यूटर कैसे बम में तब्दील हो जाते हैं इस बात की खोज चल रही थी।

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अप्रतिम अब दिल्ली के कार्यालाय में बैठने लगे थे। उनका परिवार कोलकाता में ही था। बेटी श्रेया का मैथ के प्रति रुझान बरकरार था। वह उत्साहित थी। सुपर मैथ काम्पीटीशन को लेकर। दुनिया में मैथ को बढ़ावा देने के लिए एक कंपनी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर यह प्रतियोगिता करा रही थी जिसमें एक हजार विजेताओं को एक-एक करोड़ की राशि पुरस्कार स्वरूप प्रदान की जानी थी। प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए आनलाइन नामांकन हो रहे थे जिसमें श्रेया ने भी अपना नामांकन कराया था। नामांकन के बाद आनलाइन सुपरमैथ काम्पीटीशन में भाग लेने की तिथि और नियमों की जानकारी उसे ई-मेल से मिल गयी थी। प्रतियोगिता में घर बैठे आनलाइन भाग लेना था। जिनके घर पर कम्प्यूटर, लैपटाप या इंटरनेट की सुविधा नहीं थी उन्होंने पहले ही अच्छी खासी रकम चुकता कर साइबर कैफै में टेबुल बुक करा ली थी। पूरी दुनिया में एक ही समय प्रतियोगिता शुरू होनी थी। सवाल आनलाइन भेजे जाने थे और आनलाइन ही उसको हल करना था। इस बात का पूरा रिकार्ड उसमें रहेगा कि किस सवाल को कितने सेंकेडं या मिनट में किसने हल किया। उसी के आधार पर मूल्यांकन होना था। धांधली की कोई गुंजाइश नहीं थी। प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए कई लोगों के घर पहली बार कम्प्यूटर खरीदा गया क्योंकि साइबर कैफै में भी जगहें बुक हो चुकी थीं।

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इधर, अप्रतिम को खुफिया जानकारी मिली कि डॉ.माधवन के रिसर्च सेंटर में मोबाइल और कम्प्यूटर से जुड़े कार्यक्रम भी बनाये जाते हैं तो वह चौंका।

उसने हाल की आतंकी गतिविधियों के तौर तरीकों की जांच शुरू करवाई तो पता चला कि कोई ई-मेल मैसेज आया और उसे खोलते ही मोबाइल फोन डेढ़ मिनट के भीतर बम की तरह फट उठता था। यही हाल कम्प्यूटर का भी था। कोई खास ई-मेल खोलने के डेढ़ मिनट बाद ही कम्प्यूटर बम की तरह फट जाता था।

इसका मतलब क्या था? इसका डॉ.माधवन से किस तरह का सम्बंध हो सकता है? क्या डॉ.विश्वास के थियरम की कम्प्यूटरीकरण कर दिया गया है? उसने तत्काल कम्प्यूटर विज्ञान से जुड़े विशेषज्ञों से सम्पर्क साधा। उनसे सलाह ली। उनसे अप्रतिम ने पूछा कि क्या कम्प्यूटर में ऐसी प्रोग्रामिंग की जा सकती है कि किसी जगह हां और ना की स्थिति एक साथ पैदा हो और ब्लास्ट हो जाये। उन्होने कहा ऐसा मुमकिन है। और यह भी मुमकिन है कि वह मोबाइल पर एसएमएस खुलने के बाद एक्टीवेट हो जाये और फिर बंद करने पर भी बंद न हो ब्लास्ट हो जाये। ई-मेल से भी यदि वह प्रोग्राम भेज दिया जाये तो वह एक्टीवेट हो सकता है और ई-मेल बम में तब्दील हो सकता है। दरअसल कम्प्यूटर एक सुपर ब्रोन ही है। यदि विपरीत तर्कों से उठने वाली वेब को आपस में टकरा दिये तो ब्लास्ट हो सकता है। सम्भवतः ऐसा ही प्रोग्राम मोबाइल फोन और कम्प्यूटरों पर ई-मेल से भेजा गया हो जिससे विस्फोट हुए।

अप्रतिम ने तुरंत अपनी बेटी को कोलकाता फोन मिलाया। उससे सुपर मैथ काम्पपीटीशन की तारीख और समय पता किया। वह उत्साह में थी। जब उन्होंने उसे काम्पीटीशन में भाग लेने से मना किया तो वह रोने लगी। आखिरकार उन्होंने ही अपनी जिद छोड़ दी और कहा ठीक है भाग लो और एक करोड़ में मेरा आधा हिस्सा रहेगा। वह इस बात पर राजी थी।

दुनिया भर में कई करोड़ लोग इस सुपरमैथ काम्पीटीशन में भाग लेने वाले थे, जिसको मुश्किल से चौबीस घंटे बचे थे। अप्रतिम ने टास्क फोस की वियेना में इंमरजेंसी मीटिंग की बुलाने की मांग की और उसमें भाग लेने के लिए रवाना हो गया। वहां जो आशंका उसने व्यक्त की उसे सुनकर सबके होश उड़ गये। दुनिया भर में इतनी व्यापक तबाही की कल्पना से लोग सिहर गये। यह सुपर मैथ काम्पीटीशन नहीं बल्कि सुपर ब्लास्ट की योजना थी, जिसका प्रोग्राम डॉ.विश्वास के थियरम के आधार पर डॉ.माधवन ने आतंकियों के लिए तैयार किया था। घंटों बैठक चली कि क्या उपाय है इस प्रतियोगिता को रोकने का। प्रचार से कुछ नहीं होगा दहशत फैल जायेगी। और अन्ततः उपाय अप्रतिम ने ही सुझाया।

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अप्रतिम कोलकाता अपने घर लौटा। बेटी के चेहरे पर हंसी नहीं थी। वह क्यों उदास है का जवाब उसी ने दिया। वह मैथ काम्पीटीशन में भाग नहीं ले पायी। वह क्या कोई भी भाग नहीं ले पाया। ऐन वक्त पर सर्वर दगा दे गया। अखबारों में भी प्रकाशित हुआ था कि इतने अधिक लोगों ने सुपर मैथ काम्पीटीशन में भाग लेने के लिए लॉग किया कि सर्वर बैठ गया। कम्प्यूटर टेक्नालाजी अभी भी सर्वर पर निर्भर है और यह प्रणाली दोषपूर्ण है। आनलाइन परीक्षाओं की विफलता की कड़ी के इतिहास में यह विफलता शीर्ष पर है। अखबारों ने नयी टेक्नालाजी का जम कर माखौल उड़ाया था।

हालांकि बाद में एक छोटी सी एक खबर आयी थी कि वैज्ञानिकों ने एक सर्वर जैमर तैयार किया है और उसका चुपचाप तरीके से परीक्षण भी कर लिया गया, जो कामयाब रहा।

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