11/12/2016

बीसवीं सदी की आख़िरी दहाई

जादू से गायब होने वाली कविताएं नहीं हैं ये 

  • पुस्तक समीक्षा

-ओम प्रकाश मिश्र
पुस्तक: बीसवीं सदी की आखिरी दहाई, प्रकाशन: बोधि प्रकाशन, जयपुर, मूल्य: 175 रुपये 

जो भावना, जो दृष्टि अपने समय को बहुत मन से जीती है, वही कविता है। जिन शब्दों में भावना न हो, दृष्टि न हो वह शब्द-समूह भले ही हो सकता है, बेतुकी तुकबंदी हाे सकती है मगर कविता नहीं। दरअसल कविता बीज होती है जिसके भीतर निहित दृष्टि और भाव विराटता लिए होते हैं। एक बीज में विशाल वृक्ष छिपा होता है, इसलिए बीज का महत्व होता है। उसी प्रकार एक ​कविता में विराट समय छिपा होता है, बस उस विराटता को समझने की दृष्टि होनी चाहिए। बीसवीं सदी की आखिरी दहाई में अभिज्ञात की कविताओं ने अपने समय को बड़े मन से जिया है। इनमें मानवीय संवेदनाएं तो हैं ही मगर वे संवेदनाएं व्यंग्यात्मक खुरचन से परपरा रही हैं- हम/ जो कि एक साथ/ पूंछ और मूंछ/ दोनों की चिंता में व्यग्र हैं/ बचाते हैं अपना घर/ जिस पर हम/ सारी उम्र/ पतीले की परह चढ़ते हैं/ एक अदहन हमारे अन्दर/ खौलता रहता है निरंतर।और -धरती की कन्दराओं से/ आसमान की पीठ तक/ लगी है सीढ़ी/ बशर्ते/ तुम अपनी पीठ पर/ इश्तहार लगाने भर जगह/ हर समय खाली रख सको/ हर समय हो तुम्हारे हाथ में दस्ताने/ जिन्हें पहनकर/ तुम किसी का चेहरा नोंच लो/ और फिर चुस्ती से/उतारकर बजा सको उसी के समर्थन में तालियां।आधुनिक दौर में या यों कहें कि बीसवीं सदी की आखिरी दहाई से आगे भी यह अदहन खौल रहा है, किसी का चेहरा नोचने और उसी के समर्थन में तालियां बजाने का काम भी काल जयी (बीसवीं सदी की आखिरी दहाई से आगे) हो चला है। कवि ने मिल मजदूरों के बहाने निम्नतर मध्यम वर्ग की पीड़ा को भी बड़ी ही संजीदगी से उकेरते हुए यह बताने की कोशिश की है कि भौतिक युग में उसे सुंदर सपने देखने का भी अधिकार नहीं है, क्योंकि उसके द्वारा किये गये बेहतरीन कार्यों का कोई मूल्य नहीं। -मेरी सुत​लियां/ मेरे साथियों से अच्छी हों/ सोचता है चटकल का मजदूर/ सुनता है-/ ये चट, ये टाट जायेंगे सुदूर देशों में जहां गोरे लोग रहते हैं मेमों की कटी जुल्फों के ही रंग सी/वैसी ही मुलायम पाट/ शायद ऐसी ही खुशबूदार/सोचकर जोर से सूंघता है/ और मुस्कुराता है मजदूर...../ फिर सहसा वह मुरझा जाता है/ सुनकर साथियों की बातें/ कि उनके हाथों के लिए तैयार हो रही है/ वहीं कहीं एक-आरी।कलकत्ता और मिल की मजदूरी का अन्योन्याश्रित संबंध रहा है। मिल की चिमनी का धुआं उन मजूदरों के लिए प्रदूषण नहीं खुशियां लाता था लेकिन बीसवीं सदी की आखिरी दहाई आते आते यह हाल हो गया- चटकल मजदूर डरते हैं जादू से/ जादू से गायब हो सकता है/ रातोंरात/ मिल में उनके काम करने का हरेक प्रमाण...।एक आम आदमी को जो जीवन मिला है प्रकृति से, भौतिकता की मोटी परत उसे उसके हिस्से का जीवन भी जीने नहीं देती और उस जीवन को भी वह सिर्फ कल्पनाओं में ही जीते जीते मर जाता है-उसने जाना अधपके बालों वाली खखार थूकती उम्र में/ किस घर सिर्फ आंख में रहने की चीज है/ पत्नी हर बार ज्यादा उम्र की दिखने वाली औरत/ और बच्चे/ कौतूहल।अभिज्ञात की कविताएं कविता की लकीर से परे तो हैं ही, संवेदनाओं की परिपाटी से भी हटकर हैं-मैंने तुम्हें कभी पूर्णतया नहीं पाया/ मैं कभी तुमसे नहीं हुई पूरी/ फिर कैसे-मैं तुम बिन अधूरी ?बीसवीं सदी के आखिरी दशक में आधुनिक एकल परिवार के परम्परागत रिश्तों के मायने भी किस तरह बदले हैं, उसकी बानगी देखिये-घर ऐसे ही चलता है/ काश कि तुम एक परम्परागत पत्नी की तरह/ मुझे ताने देती/ उसे कुलच्छिनी कह आड़े हाथों लेती।। अभिज्ञात के इस काव्य संग्रह में बहुत कुछ है, रिश्तों की बातें हैं, हिंसक घटनाओं की बातें हैं, गांव की बातें हैं, शहर की बाते हैं, आपकी बातें हैं, हमारी बातें हैं। इनमें कुछ सामान्य, कुछ अच्छी, कुछ बहुत अच्छी और कुछ बेहद अच्छी कविताएं हैं। ये कविताएं कालजयी भले न हों मगर अपने समय का जीता जागता प्रमाण हैं और सबसे सुकून देने वाली बात यह है कि ये जादू से गायब हो जाने वाली भी नहीं हैं, बल्कि हर सदी के हर दशक में अपनी उपस्थिति का भान कराती रहेंगी। ऐसे अच्छे संकलन के लिए कवि साधुवाद के पात्र हैं। नयी परिपाटी के काव्य पाठकों को यह संकलन पसंद आएगा।